'पुन्य प्रसून वाजपेयी' ने एक लेख लिखा है, कि लालू यादव किस प्रकार खामोशी से हवाई अड्डा से बाहर निकल जाते हैं. उत्साही कार्यकर्ताओं के 'इन्कलाब जिंदाबाद' की चीख कहाँ गायब हो गई. पुन्य प्रसून ने गंभीर विश्लेषण किया है अपने इस लेख में.
सत्य है, कि लालू यादव केंद्र और राज्य की सत्ता से बेदखल हो गए हैं. अवसरवादी कार्यकर्ताओं की भीड़ का ना जुटना स्वाभाविक है.
बावजूद, लालू यादव की लोकप्रियता कम नहीं हुई है. उनका जनाधार आज भी ख़त्म नहीं हुआ है.
आज नीतीश बिहार का बागडोर संभाले हुए हैं. नीतीश के इस वर्त्तमान का आधार भी लालू यादव ही हैं. यथास्थितिवाद, सामंतवाद और जातिवाद का पहला आक्रमण तो लालू ने ही झेला था.
क्या परिस्थिति थी बिहार की? जगन्नाथ मिश्र, विन्देश्वरी दूबे, भागवत झा आदि का शासन बिहार झेल चुका था. चारों ओर जातिवाद और भ्रष्टाचार का बोलबाला था. हर कार्यालय, हर मंच और मोर्चे पर जातिवादी, सामंतवादी शक्तियों का ही कब्जा था.
लालू पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा. अपराध का राजनीतिकरण, परिवारवाद का आरोप लगा.कर्पूरी ठाकुर पर किसी भ्रष्टाचार, परिवारवाद एवं अपराधियों के प्रशय का आरोप नहीं लगा. एकदम बेदाग व्यक्तित्व. यहाँ तक कि कर्पूरी ठाकुर ने कभी अपने बेटे को टिकट नहीं दिया और परिवार को हासिये पर रखा.
आखिर इतनी योग्यता के बाद भी कर्पूरी ठाकुर की सत्ता क्यों नहीं टिक पायी.?
लालू ने जवाब बनने का प्रयास किया. पिछडे के पास भी सबल, स्वावलंबी और स्वाभिमानी नेतृत्व हो, इसके लिए लालू ने अनचाही हरकत को भी अंजाम दिया.
लालू पर जितना घोटाला का आरोप लगा, उतनी राशि तो दिल्ली में कोई चपरासी भी नहीं छूता.
पिछले बीस-पचीस वर्षों से बिहार की सत्ता पिछडों के बीच ही घूम रही है.
नीतीश का भाजपा से गठबंधन है, बावजूद भी उपमुख्यमंत्री का पद सुशील मोदी को ही मिला. अश्विनी चौबे एवं अन्य ब्राह्मण नेतृत्व हासिये पर ही रह गया. अगर लालू बेदाग होते. कथित आरोपों से मुक्त होते, किसी भूत-बेताल को अपने साथ नहीं सटाते, तो बिहार में वे कितने दिन टिक पाते? ब्रिज बिहारी प्रसाद की तरह उनकी भी हत्या हो जाती.
नागनाथ से सांपनाथ अच्छा है. बिहार का जमींदार जितना जहरीला था, कि उसका दंश झेलना ज्यादा मुश्किल था.
संचिकाओं के निष्पादन का सफल मुख्यमंत्री, लालू भले ही न बन पाए हों, पर इतना तय है, कि बिहार के वंचितों, दबे-कुचलों को उनकी उपस्थिति ने स्वाभिमानी बनाया.अत्याचार का जो सनातन सिलसिला शुरू हुआ था, उसपर लगाम अवश्य लगा. समाज के उपेक्षित वर्ग सीना ठोंककर आगे बढे.
एक बात और है कि लालू अगर इतना ही नकारा था, तो १५-१६ बरस राज करने का मौका बिहार ने क्यों दिया? सदियों के शोषण से निजात के समक्ष लालू की अकर्मण्यता छोटी दिखती रही.
लालू की सत्ता भी तभी गई जब बिहार को नीतीश जैसा मजबूत विकल्प मिल गया. बिहार किसी भी स्थिति में यथास्थितिवादियों और सामंती ताकत को फिर से सत्ता सौंपने की तयारी में नहीं है.
शरद, लालू, नीतीश, मुलायम और पासवान अगर साथ हों, दूरगामी लक्ष्य सामने हो, तो बिहार और उत्तर प्रदेश से फिर साम्राज्यवाद की हवा बह सकती है.
लालू की दी हुई बुनियाद को नीतीश भी स्वीकारते होंगे.
उत्तर-भारत की यह समाजवादी शक्तियां एकजुट हो गई तो कारपोरेट राजनीति पर लगाम लग सकती है.
राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. नीतीश और शरद भी भाजपा के गुलाम थोड़े ही हैं.
जिस प्रकार महंगाई की मार है, गुलाम होती खेती और किसानी है, बिकते जल, जंगल और जमीन हैं, तो उस स्थिति में ये एक हो जायें, इस संभावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता. आखिर ये सब साथ तो रह ही चुके हैं.
बस, प्रसून जी, लालू की खामोशी विस्फोट के पूर्व का सन्नाटा भर है, देखते रहिये.
-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
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एकबार फिर से लालू चालीसा सुनाने के लिए आपको कोटि-कोटि धन्यवाद.
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