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राह कौन सी जाऊं मैं...!!!

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 9/03/2009 01:32:00 am 7 comments


बातें करुँ देश की, या फिर
ताजमहल बनवाऊं मैं......
होंठ गुलाबी, नयन झील,
या गीत देश के गाऊँ मैं....
यौवन भटक गया देश....
का, जाने किन सपनों में..
प्रेम-राग, सीने में आग....
राह कौन सी जाऊं मैं...!!!!

दिल कहता है, हीर ढूंढ लूं,
जुल्फों में तकदीर ढूंढ लूं..
रांझा मुझको बना दे कोई
ऐसी इक तस्वीर ढूंढ लूं...
देखे नयन ख्वाब में उस-
को, गीत उसी के गाऊँ मैं,
प्रेम राग, सीने में आग......

लेकिन लहू उबल जाता है..
हर सपना, तब जल जाता है.
जब चिता में सीता जलती है,
इन्द्र किसी को छल जाता है..
पलकों की छांवों में झूमूँ.........
या ये आग बुझाऊं मैं........!!!
प्रेम राग, सीने में आग..........

मधुमय-मधुशाल बने जीवन,
ना सुने कान कोई क्रंदन,
घुंघरू की झनक कानों में हो,
हर दिन हर पल महके चन्दन,
क्या ऐसे ही सपनों में
अपनी चिता सजाऊं मैं,
प्रेम राग, सीने में आग..

सोता यौवन, खोता बचपन,
हंसती मृत्यु, रोता जीवन,
ना देश भान, ना स्वाभिमान,
ना जग बाकी, ना जग वंदन,,
कैसे भेद मिटाऊं सारे
कैसे अलख जगाऊं मैं..
प्रेम राग, सीने में आग....

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ज्ञाता, अध्येता, चिन्तक, दार्शनिक........ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के राष्ट्रपति......

५ सितम्बर को शिक्षक दिवस है. राधाकृष्णन के जन्म-दिन को शिक्षक दिवस के रूप में देश मनाता आ रहा है.
हम आखिर क्यों राधाकृष्णन के जन्म-दिवस को शिक्षक-दिवस के रूप में मनाएं? राधाकृष्णन एक शिक्षक थे.. शिक्षक से राष्ट्रपति बन गए. यह राष्ट्रपति-दिवस हो सकता है, शिक्षक-दिवस कैसे हो सकता है? अगर कोई राष्ट्रपति, राष्ट्रपति का पद त्याग कर शिक्षक बनने आ जाये, तो शिक्षक का सम्मान बढेगा, शिक्षण कार्य सम्मानित होगा. राधाकृष्णन राष्ट्रपति का पद ठुकराकर शिक्षक ही बने रहने की बात करते तो, शिक्षकों के लिए गौरव की बात थी, परन्तु राधाकृष्णन ने ऐसा नहीं किया. उनके लिए 'राष्ट्रपति' शब्द, 'शिक्षक' शब्द से ज्यादा मूल्यवान था. राधाकृष्णन का शिक्षण कार्य से पलायन, शिक्षक-जगत के लिए अपमान जैसा ही है.

गाँधी, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बन सकते थे, पर जिन कार्यों के लिय वे प्रतिबद्ध थे, वही कार्य उन्होनें किया. गाँधी मानवता की सेवा के लिए थे, और वे उसी के लिए समर्पित रहे. पता है न! नेहरु जब १५ अगस्त १९४७ को लाल किला से स्वतंत्रता का सन्देश दे रहे थे, तो गांधी नोआखली में बिलखती मानवता के आंसू पोंछ रहे थे. ऐसी प्रतिबद्धता!!!!

गेरीवाल्डी भी कम बड़े मसीहा नहीं थे. राष्ट्रपति बनने का जब मौका आया, तो वे राष्ट्रपति पद को ठुकराकर अपने किसान जीवन और अपने खेत की ओर लौट गए. उस देश के किसानों के लिए कितने गौरव की बात रही होगी... कृषि-कर्म को कितना सम्मान मिला होगा, हम भी गर्व करते हैं..

जे. पी. भी भारत के प्रधानमंत्री बन सकते थे. कहाँ विरोध था उनका? प्रधानमंत्री बनना उनकी प्राथमिकता में नहीं था, तो नहीं बने. .

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री रहते हुए भी अपना पुश्तैनी काम, बाल-दाढ़ी बनाने का, करते रहे.

राधाकृष्णन की असीम विद्वता पर कोई सवाल नहीं है. सवाल है शिक्षक-दिवस का...
हम उलटी दिशा में चल रहे हैं. हमारी खोपडी ही उलटी दिशा में घूमी हुई है. लगातार हम शिक्षक-दिवस मनाते आ रहे हैं, पर शिक्षक के सम्मान और मर्यादा में एक प्रतिशत भी बढोत्तरी नहीं हुई है.

इस शिक्षक दिवस को मनाने वाले शिक्षक ही आज नेता, सांसद, विधायक बनने के लिए बेचैन हैं. अच्छा ऑफर मिल गया तो वे बैंक कर्मचारी, अधिकारी और कंपनियों की ओर भी चले जाते हैं.

जब राधाकृष्णन शिक्षण कार्य से पलायन कर सकते हैं, तो फिर इनके अनुयायी क्यों न भागें?

यह गुरुओं का देश रहा है. स्वयं यह देश भी 'विश्वगुरु' कहलाया. अमेरिका की तरह 'विश्व-सेठ' कहलाने की चाहत नहीं थी देश को.

भारतीय परंपरा में पूरी राजसत्ता गुरु के चरणों में थी. गुरुओं की अवहेलना करना अनर्थ था. समर्थ गुरु रामदास के चरणों में शिवाजी ने अपनी सल्तनत रख दी थी. कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, गुरु वशिष्ठ के गुरु-शिष्य परंपरा को हमने आगे बढाया. चन्द्रगुप्त-चाणक्य, रामकृष्ण-नरेन्द्र........आदि कहानियां भरी पड़ी हैं.......

जिस गुरु के चरणों में राजा झुकते थे, उस गुरूजी के लिए ऑफिस का किरानी भी नहीं झुकता. आचार्य, उपाचार्य, उपाध्याय, प्राचार्य आदि शब्द अब अर्थहीन हो गए हैं. वेतनभोगी, भत्ताभोगी, पैरवीबाज गुरु, अब गुरु नहीं रहे, गुरुघंटाल हो गए हैं. अब तो गुरु, 'शिष्याबाज' भी हो गए हैं. मटुकनाथ ने जूली को शिष्या से संगिनी बना डाला. रोज कोई न कोई गुरु जी शिष्या को लेकर फरार हो रहे हैं.

इन शब्दों को पढिये- लव-गुरु, शेयर-गुरु, मैनेजमेंट-गुरु...... अब तो मुंबई के भाई-लोग भी गुरु 'शब्द' को कब्जाने में लगे हैं.

आज गुरु को प्रणाम भी कौन करता है? बचपन के गुरुओं को पैर छूकर आज भी प्रणाम करते हैं. पर कॉलेज में आज शिक्षकों को हाय मेम, हाय सर ... से ज्यादा कुछ नहीं मिलता. आज के लड़के-लड़कियां गुरुओं के सामने झुकें भी तो कैसे? उनके टाइट कपडे दिक्कत करते हैं.....!!!

खैर, शिक्षक दिवस पर हम विचार करें. वक़्त का पहिया तो हम घुमा नहीं सकते. गुरुकुल परम्परा में लौट नहीं सकते. लेकिन अगर न्यूनतम मर्यादा की बहाली भी हो जाए, तो शिक्षण कार्य सम्मानित होने लग जायेगा. बच्चे पढाई से ज्यादा शिक्षकों के निजी जीवन, व्यवहार और चरित्र से सीखते हैं. `

आज भी आदर्श शिक्षक बचे हैं, जो हमारा रोल-मोडल बन सकते हैं. बची-खुची प्रतिष्ठा भी इन शिक्षकों पर ही है. शिक्षण-कार्य श्रेष्ठ है. इसके सामने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पद भी छोटा है- विचार कीजिये...

-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.


जबसे होश संभाला, गानों को समझना शुरू किया, तभी से ये गाना भी सुनता आ रहा हूँ, 'चाँद सा रोशन चेहरा, जुल्फों........'. कभी-कभी ये भी सुनाई दे जाता,'चाँद सी हो महबूबा मेरी..'.

तब कुछ ख़ास समझ नहीं थी, 'महबूब और चाँद' के संबंधों के बारे में. हाँ कभी-कभी सोचता जरूर था, कि ये 'चंदा मामा' महबूब कैसे हो जाते हैं. उस वक़्त कन्हैया की ये हठ भी पढता था,'मैया मोहे चन्द्र खिलौना लैहो..'.
ये दोनों विरोधाभाषी बातें मन में कभी-कभी ही उठा करती थीं. जब तक छोटे थे 'चन्द्र-खिलौना' चला, फिर धीरे धीरे 'चाँद सी महबूबा' हो गयी....

समय के साथ-साथ ये प्रश्न मन में आने लगा, कि आखिर ये महबूबा चाँद जैसी ही क्यों है?
चाँद में वो कौन सी खासियत है, जिसकी वजह से उसे सुन्दरता के साथ जोड़ा जाने लगा..

चाँद गोल है, लेकिन गोल तो चपाती भी है. फिर चपाती जैसा चेहरा क्यों नहीं है??

फिर सोचा कि शायद चाँद रौशनी करता है, इसलिए ऐसा कहते होंगे, शायद इसीलिए उसे सुन्दरता का प्रतीक बना दिया गया. लेकिन रौशनी तो सूरज उससे बहुत ज्यादा करता है, तब फिर उसे क्यों नहीं माना गया?
और मान लो सूरज जलता है, लेकिन घर में जो CFL ट्यूब लाईट है, वो तो एकदम चाँद के जैसी रौशनी देता है, तब फिर लेटेस्ट वर्जन में सुन्दरता को CFL क्यों ना कहा जाए.??

फिर सोचा कि चाँद की शीतलता की बहुत चर्चा रहती है, क्या पता इसीलिए उसे सुन्दरता से तुलना करते हों! वैसे भी आजकल सुन्दरता भी आँखों को शीतल करने के काम आने लगी है...!! लेकिन 'बर्फ' तो उससे भी कहीं ज्यादा शीतल है, तब फिर बर्फ की तुलना क्यों ना की जाए सुन्दरता से??? फिर बर्फ तो सफ़ेद भी होता है, एकदम उजला-धप्प..

कोई भी तर्क संतुष्टि नहीं दे पाया. सब के सब यही साबित करते रहे, कि चाँद में ऐसा कुछ खास नहीं है. वो तो बस पुराने कवियों ने कहा, तब से सब लकीर के फ़कीर बने उसी लीक पर चलते जा रहे हैं.

लेकिन ऐसा नहीं है. चाँद में ऐसी ही एक बात है, जो उसके चरित्र को सुन्दरता के चरित्र के पास ले आती है.
चाँद जब पूर्ण हो जाता है, तब उसमे ह्रास होने लगता है. चाँद की सम्पूर्णता ही उसके क्षरण का प्रारंभ बिंदु है. जिस दिन चाँद पूरा हो जाता है, बस अगले ही दिन से वह घटने लगता है.

यही चरित्र सुन्दरता का भी है. जब सुन्दरता पूर्ण हो जाती है, तभी उसमे ह्रास शुरू हो जाता है. सुन्दरता भी चाँद की कलाओं की तरह बढती है, और फिर पूर्ण होते ही उसका भी क्षरण शुरू हो जाता है. पूर्ण सौंदर्य स्थिर नहीं होता...और पूर्ण चन्द्र भी स्थिर नहीं रहता.. जैसे चाँद का आकर्षण उसकी अपूर्णता में है, क्योंकि तारीफ भी 'चौदहवी के चाँद' की या फिर 'चौथ के चंदा' की होती है, कोई पूर्णिमा के चाँद सी महबूबा नहीं खोजता... उसी तरह सौंदर्य का आकर्षण भी उसकी अपूर्णता में ही है.

यही चरित्र फूल का भी है, उसका सारा आकर्षण उसके खिलने की प्रक्रिया में है. जिस दिन वह पूरा खिल जाता है, मुरझाना शुरू हो जाता है. इसीलिए 'फूलों सा चेहरा तेरा..' है. वरना खुशबू तो 'ब्रीज' साबुन में 17 सेंटों की है.

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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