प्रख्यात चिन्तक बेकन का मत है, कि 'इतिहास मनुष्य को बुद्धिमान बनाता है.'
इतिहास का छात्र होने के नाते मैं भी इससे सहमत हूँ. जिस प्रकार प्रकृति में अमृत (गाय) और विष (सांप) दोनों निहित हैं, एवं उसकी मात्रात्मक गडबडी अपने गुणों के विपरीत अवगुण में बदल जाती है. यानि कि अधिक घी का सेवन जानलेवा साबित होता है, और विष की उचित मात्रा औषधि में परिवर्तित होकर कई जीवन बचा लेती है.
कहने का तात्पर्य यही है, कि जैसे सागर-मंथन से निकले अमृत-विष की मात्रात्मक गडबडियां तुंरत विरोधाभाषी गुण में परिवर्तित हो जाती हैं; उसी प्रकार व्यक्तित्व के 'इतिहास सागर' में जब भी 'विवेक की मथानी' चलायी जाए, तो इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि जिन्हें हम महापुरुष कहते हैं और उनकी पूजा करने को आतुर रहते हैं तथा जिन्हें हम खलनायक मानकर सर्वत्र निंदा का पात्र बना देते हैं, के बारे में भारतीय/वैश्विक बुद्धिजीवियों को अतिप्रशंसा और अतिनिन्दा की प्रवृति से बचना चाहिए. क्योंकि कुछ भी पूर्ण सत्य नहीं होता.
जयचंद एक ऐतिहासिक पात्र है. तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में उसने खलनायक की भूमिका निभाई और विदेशी आक्रान्ताओं से मिल गया, जिससे भारतीयता कमजोर हुई. हम गुलाम हुए, और वह अब तक निंदा का पात्र है.
वस्तुतः, जयचंद कोई पात्र नहीं, अपितु एक प्रवृत्ति है. यह प्रवृत्ति देश के अन्दर भी हाथ मिलाती है और देश के बाहर भी. हम सबको जयचंद के बारे में यह समझना चाहिए कि वह सत्ता प्रतिष्ठान के अधिक करीब था, इसीलिए उसने राजा के साथ विश्वासघात किया. क्या ब्रिटिश कालीन भारत में या आजादी के बाद के भारत में यह प्रवृत्ति नष्ट हो गयी?
कदापि नहीं..
केंद्रीय राजनीति हो, सूबाई राजनीति हो या त्रिस्तरीय पंचायती राज वाली राजनीति, क्रमशः प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और जिला परिषद् अध्यक्ष-प्रखंड प्रमुख-मुखिया जी से पूछें कि जहाँ दलगत सत्ता है, वहां पार्टी को आधार बनाकर और जहाँ दलगत सत्ता नहीं है, वहां व्यक्ति को आधार बनाकर कितनी बार तख्ता-पलट की सफल या विफल कोशिश हुई है...
क्या हम लोग इन देशी जयचंदों को माफ़ कर पाएंगे; क्योंकि हालिया 'जिन्ना-जसवंत' प्रकरण से तो यही लगता है कि हमने इन्हें माफ़ करना भी सीख लिया है.
जयचंद की ही अगली कड़ी विभीषण है. सिर्फ अर्थ की गंभीरता दोनों को अलग करती है...
क्रमशः...
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-Kamlesh Pande, Spl. Correspondent, Swaraj T.V.
(तस्वीर गूगल इमेज सर्च से साभार)
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