नए पाठकों से आग्रह है कि कृपया वाद के विषय को जानने की दृष्टि से माननीय विजयेन्द्र जी का यह लेख अवश्य पढें. और उसपर की गई टिप्पणियों को भी.
सम्माननीय निशाचर जी(क्षमा किजीयेगा, ब्लॉग जगत में नया होने के कारण आपके वास्तविक नाम से परिचित नहीं हूँ) मैं दो दिन से सुरेश जी के लेख के समालोचना (पूरा लेख पढने पर इसमें कही भी मात्र आलोचना नहीं लगती) में लिखे गए माननीय विजयेन्द्र जी के लेख पर चल रहे विवाद को देख रहा हूँ. जैसा उचित लगा मैंने टिपण्णी भी की.
एक बात आप स्वीकार करें या ना करें, बात चाहे लेख की हो या टिप्पणियों की, आप और सुरेश जी अपने पूर्वाग्रह से बाहर नहीं ही निकल पाए. आपने सदैव ही एक पक्ष को देखना चाहा.
संघ की दीक्षा में मैं भी जिया हूँ. उनकी अच्छी बातें आज भी जीवित हैं मन में, और जीवन में भी. लेकिन किसी वर्ग विशेष के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होना बेकार है. 'ग' से 'गणेश' न भी पढाया जाए तो क्या होना है? उनका अस्तित्व तो सिर्फ इस बात का मोहताज नहीं है, कि उन्हें किताबों में सजा कर रखा जाए. उन्हें मन में बनाये रखने का कितना प्रयास किया हमने, प्रश्न तो ये है. फिर आखिर 'गणेश' और 'गधे' की ही बहस क्यों है? 'ग' से 'गणराज्य' पढाने की चिंता क्यों नहीं है आपको? रही बात मेरे कलमा पढने या ना पढने की, तो जहाँ तक मैंने उसी शिशुमंदिर की पढाई से मानवता के बारे में जाना है, उससे यही निष्कर्ष निकलता है, कि मात्र कलमा पढ़ देना, इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि मैं हिन्दू नहीं रहा. बल्कि सच यही है, कि इस प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रसित तथाकथित महान हिन्दुओं के कारण ही आज हिंदुत्व एक प्रश्न बन गया है.
आखिर हिंदुत्व की बात तो विवेकानंद ने भी की थी, लेकिन उसके विरोध में कोई प्रश्न नहीं खडा हुआ. तब फिर आपके हिंदुत्व पर प्रश्न क्यों खड़े हो रहे हैं, इस पर आपको खुले दिल और दिमाग से सोचना होगा.
मुझे पार्टीबाजी में कोई दिलचस्पी नहीं है. ना मैं भाजपा विरोधी हूँ ना कांग्रेस समर्थक. लेकिन इस बात पर मेरा विरोध अवश्य है, कि भाजपा ने हिंदुत्व को एक प्रश्न बना दिया है. विवेकानंद का हिंदुत्व एक समाधान था. सारे विश्व ने उसका सम्मान किया. सनातन संस्कृति को भी सम्माननीय दृष्टि से देखा जाता रहा. लेकिन इस बात पर विमर्श की आवश्यकता है कि आखिर आज क्यों यह शब्द प्रश्न बन गए हैं?
आखिर इस हिन्दू बहुसंख्यक राष्ट्र में भी आपको समर्थन नहीं मिल रहा है, तो इसका अर्थ है कि आप आमजन को अपनी विचारधारा नहीं समझा पा रहे हैं. क्यों नहीं समझा पा रहे हैं? इसका कारण भी है. इसका कारण जानने के लिए, आपको इस तथाकथित हिंदुत्व के पीछे पनप रहे ब्राह्मणवाद को भी समझना और स्वीकारना होगा.
जाकर देखिये उन इलाकों में, जहाँ पादरी की बेटी गंदे और मैले-कुचैले दलित के बच्चों को गोद में उठाकर मातृत्व बरसाती है, आखिर वो इसाई नहीं तो क्या बनेंगे? आखिर कितने तथाकथित हिंदुत्व के पुरोधा उन दलितों को पुचकारने जा रहे हैं? राहुल गाँधी चाहे आपके शब्दों में ढोंग ही कर रहे हों, लेकिन आमजन को अच्छा लगता है जब वह संसद में दलित 'कलावती' का मुद्दा उठाते हैं. आपने हिंदुत्व को, उस हिंदुत्व रक्षक जमात से जोड़ने का प्रयास किया ही कब है?
जहाँ तक बात सुरेश जी की है, सुरेश जी, कथित तौर पर एक देशभक्त लेखक हैं, आपकी देशभक्ति अनुकरणीय है, आपके भीतर नए भारत के निर्माण की बेचैनी भी है. लेकिन देश के लिए मरना है तो क्या ट्रेन के नीचे सो जाएँ? भाई! इस देश को कमजोर करने और तोड़ने वाली ताकतें कौन सी हैं. उन कारणों को चिन्हित किये बिना, राष्ट्रनिर्माण का कौन सा हथियार हम गढ़ पाएंगे? दुश्मन ही पता नहीं हो, तो शून्य में तलवार भांजने से क्या फायदा? आग्रह और पूर्वाग्रह से हमें मुक्त होना ही होगा. अतीत लाख विकृत हो, पर उस विकृति को संस्कृति मानकर क्यों चला जाए?
सारे तंत्र फेल हो चुके हैं. झंडों का रंग एक हो चुका है. "जो जाए लंका वही हो जाये रावण....!" स्वदेशी की कोख से निकली हुई सरकार ने तो कोख को कलंकित कर ही दिया. और वाजपेयी सरकार के देशप्रेम को भी हम देख चुके हैं. भारत-माता की जय यानि भारत सरकार की जय नहीं होना चाहिए. हिंदुत्व को मारने की ताकत ना तो माइकल में है, ना मोहम्मद में है. तब फिर मीडिया की क्या बिसात है? क्या हिंदुत्व की रक्षा अब इस दो टके पर बिकने वाली मीडिया के हाथों ही होगी? हिंदुत्व अगर मरेगा, तो अपने ही अन्तर्विरोध के कारण से.
आपके इतिहासबोध पर हमें विश्वास है, कि हिंदुत्व के निरंतर हार के पीछे के कारण क्या है, आप जानते होंगे. अपने पूर्वजों की कमाई को कितना देर बेच-बेचकर खाते रहेंगे. हमें अपने इतिहास को लेकर आत्महीनता नहीं है. अपने इतिहास के प्रति आत्ममुग्ध होना भी अच्छा है, लेकिन असीम आत्ममुग्धता तो ठीक नहीं है.
सम्माननीय, भारत का मौजूदा चीखता हुआ सवाल इस प्रकार के आग्रही चिन्तनों से समाधान की ओर नहीं बढ़ पायेगा. परिवर्तन की हवा बनाने में बुद्धिजीवियों की भूमिका तो होती है, परन्तु कुर्बानी तो बनवासी, गिरिजन, आदिवासियों को ही देनी होती है.
वैसे भी दुनिया का कोई विचार अंतिम सत्य नहीं है, मैं भी जो कुछ कह रहा हूँ, वह सत्य का केवल एक टुकडा भर है, और आप भी जो लिख रहे हैं आजकल, वह भी सत्य का एक टुकडा ही है, किसी भी विचार या चिंतन को अंतिम सत्य मान लेना राष्ट्रीय दुर्भाग्य को न्यौता देना होगा. न ही 'दास कैपिटल' अंतिम सत्य है, न ही 'बंच ऑफ़ थोट्स' अंतिम सत्य है, ठीक उसी तरह ना 'हिंदुत्व' अंतिम सत्य हैं, न 'इसलाम' अंतिम सत्य है. इस वक़्त की एक जरूरी जरूरत है, हर जगह की अच्छी बातों को स्वीकार कर, एक नए औजार को गढा जाए. यही नया औजार, नए भारत के निर्माण में सहायक होगा.
हम अच्छे बनें, हिन्दू अच्छा बने और मुसलमान भी अच्छा बने. परन्तु हिन्दू बनाने का जो आपका कार्यक्रम है, उससे हिंदुत्व कम से कम नहीं ही बचेगा. समाज की प्रतिरोधी शक्तियों को बढाएं. भेदभाव, ऊंच-नीच को मिटायें, भारतीय समाज किसी भी वायरस का मुकाबला कर लेगा. आप इसकी चिंता करें.
जिस दिन आप इसकी चिंता करना शुरू कर देंगे, हिन्दू और हिंदुत्व दोनों बच जायेंगे.
-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.
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बहुत सही विचार है।
achhi baat !
पहली बार किसी को स्वीकार करते हुए पा रहा हूँ कि न इस्लाम सत्य अन्तिम सत्य है न मार्क्स-बाबा की बातें (दास कैपिटल)। लेकिन संभलकर रहना भिया; कहीं फतवा न दे दें या 'वर्ग-संघर्ष' का लाल-आदेश न आ जाय।
हिन्दुओं की तो परम्परा रही है - 'नेति-नेति' (यह नहीं, यह नहीं) कहने की। वह तो साफ-साफ मानता है कि 'नैको मुनि: यस्य वच: प्रमाणम्" (किसी भी मुनि की बात प्रमाण (अन्तिम सत्य) नहीं है।) वह तो धर्म को चक्र कहता है जो गति का प्रतीक है, स्थिरता का नाश करने वाला है। उसके लिये धर्म का अर्थ है - "धारण करने लायक" ; न कि दाढ़ी बढ़ाना, मूंछ मुढ़ाना, पाँच बार नमाज पढ़ना; ऊँचा पायजामा पहनाना या लुंगी पहनना या बुर्का पहनना; या जिहाद करना।
अंतिम सत्य मनुष्य है।
वह सबका विधाता है।
अक्षरश: सहमति! बिल्कुल सही कथन्!
सच कहा आपने।
अंतिम सत्य तो अल्ला मियाँ और उनके सहोदर ईश्वर भाई साहब ही हैं अरे हाँ मैं इन दोनों के कज़िन ब्रदर GOD को तो भूल ही गया था।