प्रारंभ से मैं केवल दो दिवस जानता था- स्वतंत्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस. 'डे' के नाम पर केवल 'मन्ना डे' और 'शोभा डे'.
इन दिनों 'दिवस' और 'डे' का भरमार आया हुआ है. साल भर कोई न कोई 'डे' या दिवस' चलता रहता है. मदर्स डे, फादर्स डे, यूथ डे, वृद्ध डे, नारी दिवस, बाल दिवस आदि-आदि.....
२ अगस्त को 'फ्रेंडशिप डे' गुजार गया. अखबार में आई खबरों से पता चला कि इस 'डे' पर रेस्टोरेंटों और सिनेमा हॉलों की जबरदस्त कमाई हुई. युवा जोडो का 'चिपको आन्दोलन' दिन भर अपने शबाब पर था.
मैं 'फ्रेंडशिप डे' पर थोडा कन्फ्यूज्ड हो गया. एक मित्र से पूछ लिया कि भाई बताओ 'वेलेंटाइन डे' और 'फ्रेंडशिप डे' में क्या अंतर है? दोनों के व्यवहारगत चरित्र की खूबियाँ क्या हैं? मित्र भी कम बड़ा पप्पू नहीं हैं, उन्होंने कहा कि 'फ्रेंडशिप डे' में दोस्ती करते हैं, और 'वेलेंटाइन डे' पर प्रेम करते हैं. तो क्या फ्रेंडशिप वाली दोस्ती में प्रेम नहीं होता? प्रेम के बिना दोस्ती कैसी? प्रेम के बिना दोस्ती नहीं हो सकती तो फिर दोनों दिवस अलग-अलग मनाने की क्या जरूरत है? इकट्ठे मना लिया जाता तो जेब की तो सुरक्षा हो जाती. महंगी मोहब्बत में जीना कोई अच्छी बात थोड़े ही है.
मोहब्बत अधिक और खर्चा कम... लोग मुझे मक्खीचूस कहेंगे. मक्खीचूस व्यक्ति सब कुछ कर सकता है, मोहबबत को छोड़कर....लड़की का ही पैसा खर्च करवाऊं और 'आई लव यू' कहूँ तो भला कब तक टिकी रहेगी मेरे पास? एक धनवान की बेटी 'रिश्ते का दामन नहीं छोडेगी' तो और क्या करेगी? कब तक अपने ए.टी.एम्. के बल पर मोहब्बत की गाड़ी खींचेगी?
घर में पुराना फर्नीचर अच्छा लगता था. भला प्लास्टिक के फर्नीचर में खानदानी नफासत कहाँ फिट बैठती?
पर, आज मोहब्बत के पुराने मूल्यों की चमक कहाँ है. न उसकी क़द्र है, न ही उसके कद्रदान. मॉल में मोहब्बत बिक रही है, पैसा हो तो खरीद लो. जहाँ आपकी वफ़ा आपकी क्रय-शक्ति से ही व्यवस्थित होगी. पैसा नहीं है जेब में तो माशूका से यह गाना सुनिए:-"चल उड़ जा रे पंछी, जब इस जेब में नहीं दो आना..."
सत्यवान पड़ जाये आज बीमार, कि सावित्री हुई फरार....! सावित्री अगर कह भी दे भूलवश कि:- "जाती हूँ मैं.." तो सत्यवान जल्दी से कहेगा:- "जल्दी तू जा....."! "वो क्यों भला" कहने की क्या पड़ी है इन्हें. इंतजार में पहले ही कई खड़ी होती हैं. ..!
जनाब! आप भी कहेंगे कि मैं क्या बकवास झाड़ने लग गया...
दरअसल ये जो 'डे' या 'दिवस' है, वह संवेदनाओं का श्रद्धांजलि-दिवस है. यह महज औपचारिकता है, आयोजन है; प्रेम और सम्बन्ध का इससे कोई प्रयोजन नहीं है.
प्रेम उत्सर्ग और अर्पण है, तर्पण है. लेन-देन औए और खरच-बरच से इसका कोई लेना-देना नहीं है. दरअसल यह अधैर्य पीढी है. इस एलोपैथिक लव का कई साइड-इफेक्ट है.
बुद्धि और प्लानिंग से व्यवस्था का निर्माण तो हो सकता है, विश्वास का नहीं. विश्वास का निर्माण तो भाव से होगा. आज यह मनाया जाने वाला 'डे' भावहीन संसार की एक झलक है.
प्रेम की परीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में होती है. प्रेमिका अंधी हो जाए तब भी वह प्रेमी उसे न छोडे, शायद प्रेम वही होता है.
प्रेम आह्लाद देता है, एकाकीपन से राहत देता है. प्रेम-मिलन में जन्नत का पूर्वाभ्यास है, जिसकी कल्पना संत, कवि करते रहे हैं.
प्रेम जितना है जीवन में, हम उतना ही स्वर्ग के करीब होते हैं.
प्रेम-यात्रा का प्रस्थान-बिंदु अगर देह है, तो यात्रा देह पर ही ख़त्म होगी. केवल बेहतर देह सामने आ जाये तो पुरानी काया कमतर नजर आने लगती है. फिर शुरू होता है उपेक्षा का सिलसिला.... और बिखराव, अलगाव, अराजकता, और बर्बादी....तब प्रेम शक्ति नहीं, संकट बन जाता है.
समय का बहाव तेज़ है. थोडा रुकें. जिंदगी को बहने से रोकें. निःसर्ग से निकलने दें प्रेम की गंगा. इस निर्मल गंगा में लेन-देन, यौन-कुंठा, बाज़ार, राग-द्वेष, औपचारिकता और फूहड़ प्रदर्शन का कचरा ना डालें.
प्रेम की इस निर्मल गंगा को अविरल बहने दो. इसका हाट या बाट मत लगाओ. प्रेम, सृष्टि का बीज-मन्त्र है. इस बीज को बाजार के हवाले मत करो.
सौन्दर्य और सुगंध से इस जिंदगी को बंजर मत बनने दो.
ना कर सको तो मत करो, मगर इस प्रेम की परिभाषा मत बदलो..........!
-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
0 Response to "ना कर सको तो मत करो, मगर इस प्रेम की परिभाषा मत बदलो..........!"