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एक अनुभव वैश्यालय का...

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 7/31/2009 09:38:00 pm 1 comments


उन शातिर आँखों का मतलब समझते ही मैंने सौ-सौ के पांच नोट उसकी ओर बढा दिए और साथ ही अपनी 'पसंद' की ओर इशारा भी कर दिया था.
कुछ ही पलों में मैं अपने ख्वाबों की जन्नत में था. आज मैं अपने साथ के उन तमाम रईसजादों की बराबरी पर आ गया था, जिनके मुहँ से अक्सर मैं ऐसे किस्से नई-नई शब्द व्यंजनाओं के साथ सुना करता था. मेरे दिमाग में तमाम शब्द बन बिगड़ रहे थे; कल अपनी इस उपलब्धि की व्याख्या करने के लिए. हालांकि पहली बार होने के कारन मैं कहीं न कहीं थोडा असंयत सा अनुभव कर रहा था.
दरवाजे पर दस्तक होते ही जब मैंने नजरें उठाई तो अपलक निहारता ही रह गया. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं अपनी सफलता के इतने निकट है.
"फास्ट फ़ूड या मुगलई!?" अपने आप को सहज दिखाने का प्रयास करते हुए मैंने मजाकिया लहजे में कहा.
"नाम क्या है आपका?" सुस्पष्ट आवाज और सधे हुए वाक्य-विन्यास के साथ किये गए इस प्रश्न ने मुझे चौंका दिया.
"ज..जी..वो..सौरभ...सौरभ शुक्ला..."
"घबराइये मत, पहली बार आये हैं?"
"न....हाँ.."
"कहाँ रहते हैं?"
"यहीं......दिल्ली में."
"क्या करते हैं?"
"पढाई...इंजीनियरिंग...." मैं यंत्रवत सा उत्तर देता जा रहा था.
"परिवार ?"
"इलाहाबाद में, ....मम्मी-पापा."
"कितने पैसे दिए हैं बाहर?"
"पांच सौ..."
"कमाते हैं?"
"नहीं, ...पापा से लिए थे .....नोट्स के लिए..." मैंने अपराध स्वीकारोक्ति के लहजे में कहा.
अगले ही पल मेरे सामने पांच सौ का नोट रखा था. इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से मैं स्तब्ध रह गया.
उन होंठों की जुम्बिश अभी भी जारी थी, "हम अपने ग्राहकों से ज्यादा बात नहीं करते, ना ही हमें उनकी निजी जिंदगी में कोई दिलचस्पी होती है, फिर भी आप से दुआ कर रहे हैं, बचे रहिये इस जगह से. हमारी तो मजबूरी है, हमारी तो दुनिया ही यहीं है. पर आपके सामने पूरी दुनिया है. परिवार है. परिवार के सपने हैं, उन्हें पूरा कीजिये..
वैसे हम सिर्फ कह सकते हैं....आगे आपकी मर्जी..जब तक आप यहाँ हैं, हम आपकी खरीदी हुई चीज़ हैं..आप जो चाहे कर सकते हैं.."
मैं चुपचाप नजरें नीचे किये चलने को हुआ.
"पैसे उठा लीजिये, हमें लगेगा हमारी नापाक कमाई किसी पाक काम में इस्तेमाल हो गयी. वैसे थोडी देर रुक कर जाइए, ताकि हमें बाहर जवाब ना देना पड़े..!"
मैं रुक गया और थोडी देर बाद पैसे लेकर बाहर आ गया, लेकिन अपनी नम आँखों से मैंने अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर दी थी. मेरे जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका था. मुझे लगा शायद मैं ईश्वर से साक्षात्कार करके लौटा हूँ.
खैर जो भी था अच्छा था.
सच ही तो है, कहीं भी सब कुछ बुरा नहीं होता.


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-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक......(1)


"LOC kargil" फिल्म लगी थी सिनेमा हाल में. देशभक्ति का अवसान काल चल रहा था. फिर भी देखने का जज्बा सा जाग पड़ा. हाल पहुँच कर बड़ा सुकून मिला था. अच्छी खासी भीड़ थी देखने वालों की. लगा कि चलो देश मरा नहीं है. दर्शकों में ज्यादातर युवा ही थे, मेरी ही उम्र के आसपास के.
फिल्म चल पड़ी थी, मेरा उत्साह जोर मार रहा था. लेकिन युवा साथी कुछ शांत से लग रहे थे, लड़ाई का सीन शुरू होते ही सबकी चेतना वापस आने लगी थी. लेकिन अचानक हुए शोर से (हूटिंग कहते हैं) मैं थोडा सा चौंक गया था, कारन समझ नहीं आया था शोर का. फिर थोडी देर में पता लगा कि शोर कही गयी बातों पर नहीं हो रहा था, बल्कि तालियाँ तो उन शब्दों पर बज रही थीं जिन्हें "बीप-बीप" की आवाज में डायरेक्टर ने छुपा दिया था, शायद सेंसर के चलते. मगर मैं सोच रहा था कि अब सेंसर कहाँ गया..ना कहते हुए भी कह देने का तरीका भी तो है.
शोध कहते हैं कि सोशल नेट्वर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर युवा इनके जरिये ऐसे ही नए चलन में आये हुए स्टाइलिश शब्दों का आदान प्रदान करते हैं. "दिल दोस्ती" और "ओमकारा" की तारीफ इनकी जबान पर है.
बातें तो LOC की भी है, लेकिन "बीप-बीप" की चर्चा ज्यादा है.
हालिया प्रकरण सच का सामना धारावाहिक को लेकर मचा हुआ बवाल भी है. आश्चर्य होता है जब इस तरह के धारावाहिकों के समर्थन में किसी को कहते सुनता हूँ, एक से एक कुतर्कों के साथ.
जितनी निर्लज्जता के साथ निर्देशक ने इसे पेश किया है, प्रतिभागी हिस्सा ले रहे हैं. उतनी ही निर्लज्जता के साथ कुछ बुद्धिजीवी इसके समर्थन का राग भी अलाप रहे हैं. तर्क दिया जा रहा है कि आखिर अमेरिका में भी तो यह धारावाहिक चलता है.
भैया अमेरिका में तो शादी की पाँचवीं सालगिरह मनाने की नौबत ही नहीं आती, लेकिन भारत में सात जन्मों का साथ निभता है.
तासीर का फर्क तो समझो अमेरिका और भारत की. वहां "माँ सिर्फ पिता की पत्नी होती है." उस संस्कृति में आप इस "सेक्स का सामना" करवाइए....मगर भारत में तो नहीं..
आश्चर्य है अब देश की चर्चा, मूलभूत समस्यायों की चर्चा करने के लिए किसी के पास समय ही नहीं बचा है.
हर साल की तरह फिर एक बार स्वतंत्रता दिवस आने वाला है. उत्साह हर रोज घटता जा रहा है. अब भगत सिंह पैदा तो होना चाहिए लेकिन हमारे घर में नहीं पडोसी के घर में.
'सरदार भगत सिंह के आखिरी उदगार' पढ़ रहा था, यकीन ही नहीं होता कि जिस उम्र में साला हम एक खरोंच से डर जाते हैं, उसी उम्र का वो बन्दा कितनी बेफिक्री से अपने मरने के तरीके सूझा रहा था ब्रिटिश सल्तनत को. हमें बेकार की लफ्फाजियों से फुर्सत नहीं और भगत सिंह पूरी दुनिया को अर्थशास्त्र सिखा रहा था.
जब सारा देश महात्मा गाँधी का पूजा की हद तक सम्मान कर रहा था तब कैसी बेबाकी और साफगोई से सुखदेव ने उन्हें पत्र लिखकर अपना और क्रांतिकारियों का पक्ष रखा, और अपने लिए माफ़ी की बात खारिज कर दी..
पता नहीं किस मिटटी के बने थे वो? या शायद इस पीढी की मिटटी ख़राब हो गयी है. !!
मंहगाई, भूख, बेरोजगारी, लूट, बलात्कार सब कुछ तो है बस अगर कुछ नहीं है तो वो है इन बातों पर चिंतन करने और इन्हें ख़त्म करने वाली जमात. 'सच का सामना' पर तो बहस है, लेकिन इन जमीनी मुद्दों पर कहीं चूं भी नहीं है.
सब खोज में लगे हुए हैं चोली के पीछे के राज को...
कौन जिम्मेदार है इस वैचारिक और नैतिक पतन का?
-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.


सोना-चांदी, हीरे-मोती को हम जमीन में गाड़कर रखते थे. इससे जुडी कई किस्से कहानियां माँ सुनाती थी. दूध की नदियाँ बहती थी......! दाल को कौन पूछता था..
जिस दिन घर में अच्छी सब्जी नहीं बनती थी, दाल-रोटी से संतोष करना पड़ता था. रोटी से ज्यादा दाल उपलब्ध थी. माँ पुचकारती और कहती कि 'दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ.' बहुत बेचैन हूँ आजकल मैं, कि जिस तरह थाली से दाल गायब हो रही है, प्रभु का गुण कैसे गाया जायेगा? इस साली दाल के बिना मेरे दीनानाथ का क्या होगा? धर्म विरोधी सरकार को तनिक भी चिंता है इस बात की?!
घर की मुर्गी भी नानी बहुत हैसियत बघारती थी. दाल को तो दो कौडी का समझा जाता था. मुर्गियां उदास हो गयी हैं. दाल आज उसे मुंह चिढा रही है. कोई कह के देखे कि 'घर की मुर्गी दाल बराबर.!'
एक आशिक मित्र डॉ. पवन बहुत ही रंगीन मिजाज के हैं. मेल, ईमेल पर चिपके रहते हैं. मैंने पूछा कि भाई शादीशुदा होकर क्यों इधर-उधर मुंह मारते हो? तपाक से उन्होंने कहा कि 'यार घर की दाल खाते-खाते ऊब गाया हूँ. एकरसता तोड़ना भी तो जरूरी है.' यानि पत्नी भी दाल बराबर थी. कितना उपहास और अपमान दाल को झेलना पड़ा है, यह हम समझते हैं. दाल इस तरह सर्वसुलभ थी कि दाल पीकर गुजारा कर लेते थे. अब बेटा पवन के घर में ही दाल नहीं है तो बाहर कहाँ जायें.... दाल के बिना दाम्पत्य जीवन दलदल हो गया है.
हमारे खेत में दलहन बहुत होता था. चावल की उपज कम थी. माँ दाल ज्यादा बनाती ताकि चावल की खपत कम हो. भूले भटके अपने कस्बाई शहर में जब कभी भी जाता तो होटल में ५ रूपया प्रति प्लेट भोजन था, जिसमें चावल की मात्रा तो निश्चित थी पर दाल पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता था. एक ही प्लेट में भूख को निपटाना होता था, इसलिए होटल में दाल पीने पर ज्यादा जोर देता.
अभी मैं दिल्ली आ गया हूँ, हिम्मत पस्त हो गयी है. आखिर सौ रूपया दाल मैं कैसे खरीदूं? लगातार बचने का प्रयास कर रहा हूँ कि दाल खरीदना न पड़ जाए..
इधर सरकार ने नया चैनल शुरू किया है, जिसका नाम है दाल-दर्शन. इस चैनल पर एक से एक मोडल और हीरो-हिरोइन दाल के विज्ञापन में जुटेंगे. "चने का खेत हो तो जोरा-जोरी संभव है." दाल की प्रचुरता ही सम्बन्ध और सगाई का आधार होगा. दहेज़ में दाल दिया जायेगा. दाल ही सौगात होगी. दाल, दुल्हन और दहेज़ पर वैचारिक बहसें भी होगी. ट्रक के पीछे लिखा होगा 'दुल्हन ही दाल है.' गाँव में एक नयी भाभी आई थी. चिढाने के लिए हम लोगों ने उनका नाम रखा था- दलसुरकी भौजी. यह सुन भौजी आगबबूला होती. इस मजाक के कारन दाल तब वह बिना आवाज के खाती थी.
आज सारे बिम्ब गायब हैं. दाल से जुड़े ना तो मुहावरे हैं, ना कोई लोकोक्तियाँ. दाल घरों से, थाली से गायब हो गयी है. रोटी-दाल क्या शेष हैं हमारे लिए?
प्रतिव्यक्ति दाल की खपत पर डाटा कहाँ है डाटाबाजों के पास?
सरकार बनते ही दाल की कीमत दुगुनी क्यों हो गयी?
ए.सी. , कम्प्यूटर, मोबाइल सब सस्ता फिर दाल इतना महंगा क्यों? सस्ती दाल बेचने की नारेबाज सरकार की घोषणा नाकारा साबित हो गयी. शीला सरकार दाल नहीं प्रसाद बाँट रही है. कतारबद्ध पत्नियाँ कटोरा लिए इंतजार करती रहती हैं. "दाल के अरमा पसीने में बह गए.." दाल की उम्मीद में खफा-खफा घर लौट रही हैं. 80 केन्द्रों पर दाल बिकना था. कहीं आई नहीं, कहीं आई तो प्रसाद की तरह.
"ऊंट के मुहँ में जीरा का फोरन..."
दाल का गायब होना एक गंभीर त्रासदी है. मंहगाई सर चढ़के बोल रही है. दाल के इस आतंक पर पक्ष-विपक्ष साझा बयां क्यों नहीं दे रहे हैं?
मंहगाई पर रोक के कौन से कारगर कदम उठ रहे हैं?
आम आदमी से जुड़े इस मंहगाई के सवाल पर संसद में प्रभावी बहस क्यों नहीं?
नकली बहस में फंसाकर देश को भरमाने की कोशिश क्यों?
इतनी मंहंगी सरकार को जनता कब तक बर्दाश्त करेगी?
क्या इस स्वतंत्रता दिवस पर हम यही गीत गाना चाहते हैं:-
"जहाँ दाल-दाल पर रोने का दिल करता है मेरा....वो भारत देश नहीं है मेरा.."


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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

रामविलास पासवान यानि मंत्री या फिर सांसद. पासवान कभी सत्ता से बेदखल नहीं हुए. उन्होंने वाजपेयी के साथ भी समय गुजरा और सेकुलरिज्म के नाम पर सोनिया का भी पल्लू थमा.
न तो इन्हें सेकुलरिज्म से लगाव है ना ही साम्प्रदायिकता से परहेज. रामविलास पासवान सत्ता से बाहर नहीं रह सकते. इनका प्राण कुर्सी में बसता है. कुर्सी खींच लो, ये जमीन पर आ जाते हैं.
दुर्भाग्य से इस वक़्त ना तो वह सांसद हैं, न ही मंत्री. ग्लैमर जाते ही सारे संगी साथी छोड़कर भागने भी लगे हैं. कार्यकर्ताओं को टिकाये रखना बहुत मुश्किल होता जा रहा है. खिसकती जमीन को बचाने के लिए उन्होंने बिहार में दलित आन्दोलन की शुरुआत की है.
बिहार में नीतीश की सरकार है. कम से कम यह सरकार निठल्ली तो नहीं है, अन्य सरकारों की बनिस्पत. पिछले पंद्रह सालों में जो नंगा नाच बिहार में हुआ, वह किसी से छिपा नहीं है. उस पर चर्चा करना कागज ख़राब करना है.
कर्पूरी ठाकुर हमारी प्रेणना के स्रोत रहे. उनकी सादगी, सदाशयता और ईमानदारी आज भी राजनीति का मानक है.
कर्पूरी का नाम बेचकर लालू, रामविलास और नीतीश ने अपना कद चमकाया. स्वर्गीय जगदेव, कर्पूरी और लोहिया की विरासत को सम्हालने की जिम्मेदारी बारी-बारी से सबों को मिली.
लालू को पंद्रह वर्षों का मौका मिला. एक गरीब घर का लड़का बिहार का नेतृत्व सम्हालेगा, यह सूचना सुखद थी. पर जो हुआ वह किसी ब्राह्मणवादी और कथित मनुवादी अत्याचार से कम नहीं था. बिहार को जागीर समझ, जागीरदारी को पत्नी, साले, ससुरों के बीच बांटा. बिहार में जिनकी बहू-बेटी इन पंद्रह वर्षों में सुरक्षित रह गयी, वह ईश्वर को धन्यवाद देते होंगे. अपहरण को उद्योग का दर्जा मिल गया था. भ्रष्टाचार, शिष्टाचार में तब्दील हो गया था.
लालू के खिलाफ रामविलास सड़क पर उतरे. १५ वर्षों के लालू के शासन को इन्होने जंगलराज घोषित किया. बिहार ने रामविलास के अभियान को सम्मान दिया, और सरकार बनाने का भी मौका मिला. पर 'मुख्यमंत्री मुसलमान ही हो', की जिद में बिहार को दुबारा चुनाव झेलना पड़ा. जिस जंगलराज के खिलाफ रामविलास ने अभियान चलाया था, वह उसी को दुहराने लग गए. समाज के तमाम अवांछित लोगों को टिकट दिया और जिताया भी. उन शातिर अपराधियों को रामविलास ने क्रन्तिकारी नेता कहा. कथनी और करनी में कोई समन्वय नहीं रहा. तब भी इनको बिहार से कोई लेना देना नहीं था, इन्हें केवल सत्ता चाहिए.
आज पुनः उन्होंने बिहार में अपनी गतिविधियों को तेज़ किया है. लालू ने अपने साले को नहीं छोडा, रामविलास अपने भाई को नहीं छोड़ रहे हैं. इन दोनों नेताओं की पार्टी किसी "प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी" के सिवा और क्या है? लालू जी परिवारवाद से थोडा मुक्त भी हुए, "पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत...." जबकि आज भी राबड़ी से योग्य नेता राजद में लालू को कोई सूझता ही नहीं है. इनके राजनीतिक रतौंधी का इलाज नीतीश ने अच्छा किया है.
इन दोनों रहनुमाओं ने अगर नीतीश से बेहतर काम किया है, तो बिहार की जनता को अवश्य ही इनका साथ देना चाहिए. रामविलास नीतीश प्लस की बात क्यों नहीं सोचते? विकास का प्रश्न क्यों नहीं है इनके पास? जब इनकी पार्टी में लोकतंत्र नहीं है तो बिहार में लोकतंत्र की बहाली कैसे करेंगे? आज भी इनको जातीय समीकरण को मजबूत करने की चिंता है. सूबा बचे या न बचे, समीकरण बचना चाहिए.
लालू से दोस्ती का राज भी तो यही है. कोई बिहार बनाने के लिए दोस्त थोड़े ही बनाये हैं. मिलजुल कर माल कैसे भोगा जाये, जुगाड़ तो इसका है. "यादव, पासवान और मुसलमान; यही होगी इनकी पहचान." रामविलास पासवान की जय हो.
रामविलास पासवान आन्दोलन करें इससे किसी को क्या परहेज होगा? बिहार में विपक्ष का होना भी तो जरूरी है. मजबूत विपक्ष के बिना आखिर सरकार भी तो निरंकुश हो सकती है, इस हिसाब से यह काम अच्छा है. लगे रहो रामविलास भाई!!!
अरे भाई! अगर नीतीश दलितों के बीच फूट डाल रहे हैं तो आप इसकी एकता का ही क्या इस्तेमाल करने वाले हैं, बिहार को बताएं तो!!!!


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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.


"भारत में अनेक साम्राज्य बने बिगडे. अनेक सल्तनतें खड़ी हुईं और गर्क भी हुईं. तत्कालीन इतिहास लेखकों ने अपने-अपने बादशाहों या राजाओं का बढा-चढा कर वर्णन किया. बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री समय के साथ नष्ट हो गयी. इस कारन हमारे देश का इतिहास परस्पर विरोधी विवरणों से इतना भर गया कि सत्य क्या है, इसका पता लगाना बहुत कठिन हो गया,..."
गो कि भारत में जंगे-आजादी की शुरुआत १८५७ के ग़दर को माना जाता है और बिहार में जिसकी अगुआई का श्रेय बाबु कुंवर सिंह को जाता है, लेकिन हकीकत यह भी है कि १८५७ का ग़दर अचानक नहीं भड़का था, बल्कि सौ सालों से हर दिल में सुलग रही चिंगारी ने उसे एक धधकती ज्वाला का स्वरुप प्रदान किया. तथ्य बताते हैं कि १७६३ से १८५६ के बीच देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ चालीस बड़े विद्रोह हो चुके थे. सच तो यह है कि जिस दिन से अंग्रेजों ने हिंदुस्तान में हुकूमत संभाली. लोगों के अन्दर विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी थी, कहना गलत नहीं होगा कि ब्रितानी हुकूमत के प्रचार-प्रसार ने समाज के तकरीबन हर तबके को आक्रोशित ही किया. सत्ता छिन जाने से अगर राजा और नवाब नाराज हुए तो यही नाराजगी भूस्वामियों के अन्दर जमीन छिन जाने से उत्पन्न हुई. उसी प्रकार पारम्परिक दस्तकारी पर आघात से अगर दस्तकार नाराज हुए, तो कमरतोड़ लगान के बोझ से किसानों की नाराजगी भी परवान चढी, जिसका मिला-जुला असर यह हुआ कि अंग्रेजों के खिलाफ अन्दर ही अन्दर एक ज्वालामुखी धधकने लगा.
इतिहास साक्षी है कि उस समय तक इस देश के आदिवासी खुद को समाज से अलग-थलग मानते थे. तथ्यों से यह भी जाहिर है कि अंग्रेजों ने न केवल उनका आर्थिक शोषण किया, बल्कि उनकी आदिम सभ्यता और संस्कृति पर कुठाराघात भी किया. सात समंदर पार से आये उन गोरे शासकों की काली करतूतों के खिलाफ आदिवासी समाज में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई, जिसके नतीजे में वे बगावत पर उतर आये. यह बात दीगर है कि बिलकुल स्थानीय परिस्थितियों की कोख से जन्मे वे आन्दोलन हथियारबंद अंग्रेजों के सामने टिक नहीं पाए हों, लेकिन उनकी छापामार लड़ाईयां लगातार पराजय के बावजूद जारी रही. सच यह भी है कि बार-बार पराजय का दंश झेलने के क्रम में जब-तब वे संगठित भी हुए और अत्यंत जुझारू संघर्ष भी किया. जवाबी करवाई के रूप में अंग्रेजों ने उनका दमन करने में क्रूरता की सारी सीमाएं तोड़ दीं, और उन पर पाशविक अत्याचार भी किये. कहना गलत नहीं होगा कि भ्रष्टाचार और अत्याचार के हथियारों से लैस औपनिवेशिक शासन ने जब आदिवासियों के इलाके में घुसपैठ की तो इसकी तीखी प्रतिक्रिया देखने में आई और वे आक्रोश से भर उठे, जिसकी परिणति आन्दोलनों की शक्ल में हुई.
आमतौर पर आदिवासी शेष समाज से स्वयं को अलग-थलग रखते थे, लेकिन ब्रिटिश राज ने उन्हें औपनिवेशिक घेरे के अन्दर खींच लिया. 'फूट डालो, राज करो' की नीति पर अमल करते हुए हुकूमत ने आदिवासी कबीलों के सरदारों को जमीदारों का दर्जा दिया और लगान की नयी प्रणाली लागू की.जो तात्कालिक लाभ के लोभ में फंस गए, वे हुकूमत के प्रिय पात्र बन गए, लेकिन जिन्होंने रोटी के उस टुकड़े को नकार दिया, उन पर कहर बरपा हुआ. यही नहीं, हुकूमत की दलाली करने वाले अपने ही समुदाय के लोगों के खिलाफ भी समाज में जबरदस्त हलचल हुई..
इसकी वजह यह थी कि हुकूमत की नीतियाँ ये ही दलाल आदिवासी समाज में लागू करते-करवाते थे. मसलन, आदिवासियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर जो नए प्रकार के कर लगाये गए, उसकी वसूली ये कथित जमींदार ही करते थे. इसके साथ ही उनके बीच महाजनों, व्यापारियों और लगान वसूलने वाले ऐसे वर्ग को भी उन पर लादा गया, जो बिचौलिए का काम करते थे. वे बाहरी बिचौलिए धीरे-धीरे आदिवासियों की जमीन पर कब्जा जमाते चले गए और सीधे-सादे आदिवासियों को कर्ज के जटिल जाल में उलझा-फंसा दिया. अंग्रेजों द्वारा बोया गया वह बीज आज भी आदिवासी समाज खासकर पहाडों पर आबाद पहाडिया गांवों में फलते फूलते देखी जा सकती है.
प्रसिद्द इतिहासकार विपिन चन्द्र के मुताबिक औपनिवेशिक घुसपैठ और व्यापारियों, महाजनों व लगान वसूलने वालों के तिहरे शासन ने सम्पूर्ण आदिवासी समाज की लय और ताल ही तोड़कर रख दी.
नतीजा यह हुआ कि आम आदिवासी के साथ-साथ उनके सरदार और मुखिया भी विदेशियों को खदेड़ भागने के लिए एकजुट हो गए.
१८५४ के आते-आते बहरहाल, संताल भी कसमसाने लगे. ३० जून, १८५५ को भागनाडीह में चार सौ संताल आदिवासी गाँवों के करीब ६ हजार प्रतिनिधि इकठ्ठा हुए, सभा में एक स्वर में विदेशी राज का खत्म कर न्याय-धर्म का अपना राज स्थापित करने के लिए खुले विद्रोह का फैसला लिया गया.
अलग बात है कि बिहार में १८५५ का संताल-हूल इतिहास में प्रसिद्द हो गया और विद्रोह का लम्बा सिलसिला जारी रखने के बावजूद पहाडिया आन्दोलन चीखती सुर्खियों में दर्ज नहीं हो पाया.
वीरता और कुर्बानी की उस चीखती मिसाल को सिर्फ कार्ल मार्क्स ने समझा और उसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम जनक्रांति कहा, जबकि भारतीय इतिहासकारों ने मूले के सुर में सुर मिलाते हुए उसे 'हुल' कहकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली.


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-Swaraj T.V. Desk


अत्यंत सम्माननीय महात्मा जी,
आजकल के नए समाचारों से मालूम होता है कि आपने संधि-चर्चा के बाद से क्रांतिकारियों के नाम कई अपीलें निकाली हैं जिनमे आपने उनसे कम से कम वर्तमान समय के लिए अपने क्रन्तिकारी आन्दोलन रोक देने के लिए कहा है. वास्तविक बात यह है कि किसी आन्दोलन को रोक देने का काम कोई सैद्धांतिक या अपने वश की बात नहीं है. समय-समय की आवश्यकताओं का विचार करके आन्दोलन के नेता अपना और अपनी नीति का परिवर्तन किया करते हैं.
हमारा अनुमान है, कि संधि के वार्तालाप के समय आप एक क्षण के लिए भी यह बात न भूले होंगे, कि यह समझौता कोई अंतिम समझौता नहीं हो सकता. मेरे ख्याल से इतना तो सभी समझदार व्यक्तियों ने समझ लिया होगा, कि आपके सब सुधारों के मान लिए जाने पर भी देश का अंतिम लक्ष्य पूरा न हो जायेगा. कांग्रेस, लाहौर कांग्रेस के प्रश्नानुसार स्वतंत्रता का युद्ध तब तक लगातार जारी रखने के लिए बाध्य है, जब तक पूर्ण स्वाधीनता ना प्राप्त हो जाये. बीच-बीच की संधियों और समझौते क्षणिक विराम मात्र है. उपरोक्त सिद्धांत पर ही किसी प्रकार का समझौता या विराम-संधि की कल्पना की जा सकती है.
समझौते के लिए उपयुक्त अवसर का तथा शर्तों का विचार करना नेताओं का काम है. यद्यपि लाहौर के पूर्ण स्वाधीनता वाले प्रस्ताव के होते हुए भी आपने अपना आन्दोलन स्थगित कर दिया है, फिर भी वह प्रस्ताव ज्यों का त्यों बना हुआ है. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में सोशलिस्ट प्रजातंत्र प्रणाली स्थापित करना है. इस ध्येय संशोधन के लिए जरा भी गुंजाईश नहीं है. वे तो अपना संग्राम, जब तक कि ध्येय न प्राप्त हो जाए और आदर्श की पूर्ण स्थापना न हो जाए, तब तक जारी रखने के लिए बाध्य है. परन्तु वे परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ अपनी युद्ध-नीति भी बदलते रहना जानते हैं. क्रांतिकारियों का युद्ध भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न स्वरुप धारण कर लेता है.
कभी वह प्रकट रूप रखता है, कभी गुप्त धारण कर लेता है., कभी केवल आन्दोलन के रूप में हो जाता है और कभी जीवन और मृत्यु का भयानक संग्राम करने लग जाता जाता है. वर्तमान परिस्थितियों में क्रांतिकारियों के सामने आन्दोलन रोक देने के लिए कुछ विशेष कारणों का होना तो आवश्यक ही है. परन्तु आपने हम लोगों के सामने ऐसा कोई निश्चित कारन उपस्थित नहीं किया, जिस पर विचार करके हम अपना आन्दोलन रोक दें.
केवल भावुक अपीलें क्रांतिकारियों के संग्राम में कोई प्रभाव नहीं पैदा कर सकतीं. समझौता करके आपने अपना आन्दोलन स्थगित कर दिया है, जिसके फलस्वरूप आपके आन्दोलन के सब बंदी छूट गए हैं. परन्तु क्रन्तिकारी बंदियों के विषय में आप क्या कहते हैं? सन १९१५ के ग़दर पार्टी वाले राजबंदी अब भी जेलों में सड़ रहे हैं., यद्यपि उनकी सजाएं पूरी हो चुकी हैं. लोदियों मार्शल-ला के बंदी अब भी जीवित ही कब्रों में गडे हुए हैं. इसी प्रकार दर्जनों बब्बर अकाली कैदी जेल यातना भोग रहे हैं. देवगढ, काकोरी, मछुआ बाजार और लाहौर षड़यंत्र केस लाहौर, दिल्ली, चटगांव, बम्बई, कलकत्ता आदि स्थानों में चल रहे हैं. दर्जनों क्रांतिकारी फरार हैं. जिनमें बहुत सी तो स्त्रियाँ हैं. आधे दर्जन से अधिक कैदी अपनी फांसियों की बाट जोह रहे हैं. इस सबके विषय में आप क्या कहते हैं? लाहौर षड़यंत्र के केस के तीन राजबंदी, जिन्हें फांसी देने का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश देश में बहुत बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली है, क्रांतिकारी दल के सब कुछ नहीं हैं. दल के सामने केवल इन्ही के भाग्य का प्रश्न नहीं है. वास्तव में इनकी सजाओं के बदल देने से देश का उतना कल्याण न होगा, जितना कि इन्हें फांसी पर चढा देने से होगा. परन्तु इन सब बातों के होते हुए भी आप इनसे अपना आन्दोलन खींच लेने की सार्वजानिक अपीलें कर रहे है. वे अपना आन्दोलन क्यों रोक लें, इसका कोई निश्चित कारन नहीं बतलाया? ऐसी स्थिति में आपकी इन अपीलों के निकालने का मतलब तो यही है कि आप क्रांतिकारियों के आन्दोलन को कुचलने में नौकरशाही का साथ दे रहे हैं. आप इन अपीलों के द्वारा स्वयं क्रांतिकारी दल में विश्वासघात और फूट की शिक्षा दे रहे हैं. अगर यह बात न होती, तो आपके लिए सबसे अच्छा उपाय यह था कि आप कुछ प्रमुख क्रांतिकारियों से मिलकर इस विषय की सम्पूर्ण बातचीत कर लेते. आपको उन्हें आन्दोलन खींच लेने की सलाह देने से पहले अपने तर्कों को समझाने का प्रयत्न करना चाहिए था. मेरा ख्याल है, कि साधारण जन-समुदाय की तरह आपकी भी यह धरना न होगी कि क्रन्तिकारी तर्कहीन होते है और उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों में ही आनंद आता है. हम आपको बतला देना चाहते है कि, यथार्थ में बात इसके बिलकुल विपरीत है. वे प्रत्येक कदम आगे बढ़ने के पहले अपनी चतुर्दिक परिस्थितियों का विचार कर लेते हैं. उन्हें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान हर समय बना रहता है. वे अपने क्रांतिकारी विधान में रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते हैं, यद्यपि मौजूदा परिस्थितियों में उन्हें केवल विनाशात्मक अंश की ओर ध्यान देना पड़ा है.
गवर्नमेंट क्रांतिकारियों के प्रति पैदा हो गयी सार्वजानिक सहानुभूति तथा सहायता को नष्ट करके किसी तरह से उन्हें कुचल डालना चाहती है. अकेले में वे सहज ही कुचल दिए जा सकते हैं. ऐसी हालत में किसी प्रकार की भावुक अपील निकाल कर उनमे विश्वासघात और फ़ुट पैदा करना, बहुत ही अनुचित और क्रांति-विरोधी कार्य होगा. इसके द्वारा गवर्नमेंट को, उन्हें कुचल डालने में प्रत्यक्ष सहायता मिलती है. इसलिए आपसे हमारी प्रार्थना है, कि या तो आप कुछ क्रन्तिकारी नेताओं से, जो कि जेलों में हैं, इस विषय में कोई बातचीत करके कुछ निर्णय कर लीजिये या फिर अपनी अपीलें बंद कर दीजिये. कृपा करके उपरोक्त दो मार्गों में से किसी एक का अनुसरण कीजिये. अगर आप उनकी सहायता नहीं कर सकते, तो कृपा करके उन पर रहम कीजिये. और उन्हें अकेला छोड़ दीजिये. वे अपनी रक्षा अपने आप कर लेंगे. वे अच्छी तरह से जानते हैं, कि भविष्य के राजनितिक युद्ध में उनका नायकत्व निश्चित है. जनसमुदाय उनकी ओर बराबर बढ़ता आ रहा है और वह दिन दूर नहीं है, जबकि उनके नेतृत्व और उनके झंडे के नीचे जनसमुदाय उनके सोशलिस्ट प्रजातंत्र के उच्च ध्येय की ओर बढ़ता हुआ दिखाई पड़ेगा.
या, यदि आप सचमुच उनकी सहायता करना चाहते हैं, तो उनका दृष्टिकोण समझने के लिए उनसे बातचीत कीजिये और सम्पूर्ण समस्या पर विस्तार के साथ विचार कर लीजिये.
आशा है, आप उपरोक्त प्रार्थना पर कृपया विचार करेंगे ओर अपनी राय सर्व-साधारण के सामने प्रकट कर देंगे.

आपका,
'अनेकों में से एक'



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-प्रस्तुति - Swaraj T.V. Desk


हवाई अड्डा पर कलाम की जाँच की गई. जाँच करना जांचकर्ता का धर्म और कर्तव्य भी है. पर भारत में जांचकर्ता उतने संवेदनशील नहीं हैं कि किसी का कपडा उतरवा लें.
इधर हिलेरी क्लिंटन भारत आयीं; कोंडालीजा राईस का भी भारत आगमन हुआ पर हमारे जांबाज सुरक्षा अधिकारियों ने इनके कपडे नहीं उतरवाए. सुरक्षा की जितनी चिंता अमेरिका को है, उतनी ही चिंता भारत को भी है. अगर कलाम के भीतर कोई आतंकवाद पनप जाए तो अमेरिका की सुरक्षा तो खतरे में पड़ ही सकती है? यह स्थिति तो बुश के साथ भी हो सकती है. भारत के सुरक्षाकर्मी को सतर्क हो जाना चाहिए. अगर कलाम खतरनाक हो सकते हैं, तो मिसेज क्लिंटन भी खतरनाक हो सकती हैं.
मामला दरअसल दूसरा है. गाँव में कहावत है कि गरीब की लुगाई, पूरे गाँव की भौजाई होती है. अमेरिका ने भारत को निःसहाय और निर्धन देश समझ लिया है. और ऐसा हो भी क्यों नहीं? अमेरिका के इशारे पर हम नाचने लगते हैं, उसके स्वागत में बिछ जाने को तत्पर रहते हैं, तो भला वह हमें भाव क्यों दे?
राजग के शासन कल में रक्षामंत्री रहते, जोर्ज फर्नांडिस के कपडे उतरवाए गए. भारत का स्वाभिमान क्षत-विक्षत हो गया. वह शर्मनाक सूचना भारत को आहत कर गयी. वह देश के रक्षामंत्री थे न कि भारत के; परन्तु देश के रहनुमाओं ने आपत्ति तक दर्ज नहीं की.
बुश का भारत आगमन हुआ था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात होनी थी. उन्होंने प्रधानमंत्री से हाथ मिलाने के बजाय पीठ थपथपाया मानो उसका कोई जूनियर कर्मचारी हो. इतने बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री का यह अपमान भी हम सह गए.
आज हम कलाम के अपमान पर चिंचिया रहे हैं. इन नेताओं के पास निजी शर्म नाम की कोई चीज पहले भी नहीं थी, अब तो राष्ट्रीय शर्म से भी शर्मसार नहीं होते.
भारत एक संप्रभु राष्ट्र है. केवल भारत को अमेरिका की जरूरत नहीं है, बल्कि भारत के साथ जुड़े रहना अमेरिका की भी मजबूरी है. भारत ने अपना बाजार अगर अमेरिका के लिए बंद कर दिया तो अमेरिका को भारी मुसीबतें झेलनी पड़ सकती हैं.
कब लौटेगा राष्ट्र-बोध हमारे आकाओं का?
कब तक बेइज्जत होते रहेंगे? +
अमेरिकी अधिकारियों का यह फूहड़ व्यवहार केवल विभागीय हिस्सा नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय सोच का हिस्सा है. हम अमेरिका के गुलाम नहीं हैं, न ही उसके भरोसे जिन्दा हैं.
भारतीय नेतृत्व इस मामले को गंभीरता से ले. कठोर आपत्ति दर्ज करे या नहीं तो जैसे को तैसा वाला जवाब देने के लिए तैयार होना चाहिए.
कलाम भारतीय अस्मिता के प्रतीक पुरुष हैं. यह अपमान उनका निजी अपमान नहीं है. इसके खिलाफ में हम आवाम को भी अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए.



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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.


फांसी के कुछ दिन पहले सरदार भगत सिंह और उनके साथियों ने दया प्रार्थना के लिए इनकार करते हुए पंजाब गवर्नर को लिखा था- "अंत में हम केवल यह कहना चाहते हैं कि आपकी अदालत के फैसले के अनुसार हम सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने का अभियोग लगाया गया है और इस प्रकार हम युद्ध के शाही कैदी हैं. अतएव हमें फंसी पर न लटका कर गोली से उदय जाना चाहिए. इसका निर्णय अब आपके ही ऊपर है कि जो कुछ अदालत ने निर्णय किया है इसके अनुसार आप कार्य करेंगे या नहीं. हमारी आपसे विनम्र प्रार्थना है और हमें पूर्ण आशा है कि आप कृपा कर फौजी महकमे को आज्ञा देकर हमारे प्राण-दंड के लिए एक फौज या पलटन के कुछ जवान बुलवा लेंगे."



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-प्रस्तुति- Swaraj T.V. Desk



स्वतंत्रता दिवस की जयंती आने वाली है! जयंती इसलिए कह रहा हूँ ताकि इसके जीवित रहने का भान बना रहे. बचपन से ही बड़ा उत्साह सा रहा है इसके प्रति. सुबह-सुबह नहा-धोकर स्कूल के लिए निकल पड़ना..उस दिन स्कूल ज्यादा आनंद दायक लगता था, क्योंकि उस दिन बस्ता ले जाने की पाबन्दी नहीं होती थी, ना ही पढने की. और ज्यादा प्रतीक्षित तो वो लड्डू थे जो झंडा फहराने के बाद मिलते थे. थोडा बड़ा होते-होते भाषण देने की लत भी लग गयी थी, इसलिए ऐसे अवसरों का और भी बेसब्री से इंतजार रहने लगा था.
उन दिनों भाषण की तैयारी के बहाने ही सही, बड़े-बड़े देशभक्तों की कहानियां ध्यान से पढ़ा करता था. आश्चर्य होता था भगत सिंह, राजगुरु जैसे दीवानों के किस्से पढ़कर. और गांधीजी के 'सत्य के प्रयोग' ने तो मन ही मोह लिया था. मन में वही क्रांतिकारी तेवर करवट लिया करते थे, और १५ अगस्त, २६ जनवरी के आसपास कुछ ज्यादा ही.
बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है ये सब, यही कोई आठ-दस साल ही तो हुए हैं उस देशभक्त बचपन को बीते हुए. शनै-शनै अन्दर का देशभक्त खोने लग गया था, भाषण की आदत तो नहीं छूटी थी, मगर अब भाषण में मेरी आत्मा ना होकर एक लोकेशना का मोह ज्यादा रहने लगा था. धीरे-धीरे भाषण का मंच भी खो गया, और मोह भी.
लेकिन आज अचानक सड़क पर पुलिस की बढ़ी हुई चहलकदमी देखकर याद आया कि 'दिवस' आने वाला है. एक अजीब सा तुलनात्मक भाव आ रहा है मन में.
खुद की तुलना खुद से करते हुए भी एक अंतर लग रहा है, आज में रह कर देखता हूँ तो वह देशभक्त सा बचपन स्वप्न लगता है, और उस बचपन में जाकर देखता हूँ तो आज का सच वहशी लगता है.
और जब ये तुलना बाहर समाज में निकलती है तो दृश्य और भी भयावह हो जाता है. याद आ रही है वो 'मेरा रंग दे बसंती चोला' वाली किताबों में पढ़ी हुई पीढी. विश्वास नहीं होता कि कैसे हमारी ही उम्र के वो नौजवान इतना कष्ट झेल लेते थे देश के लिए?
जाने कैसे देश के लिए जान देने जैसी तत्परता थी उनके भीतर?
उतावलापन सा रहता था उनके मन में देश की स्थिति पर चिंतन करने, और उसे सुधारने के लिए.
बेचैन रहते हर वक़्त आम मानुष के लिए. गाते तो देश, नाचते तो देश. खाते-पीते, सोते-जागते सिर्फ देश की बात......बचपन में उनकी कहानी पढ़ते-पढ़ते जोश में आकर गाया करता था 'मेरा रंग दे बसंती चोला,ओ माये रंग दे बसंती चोला....'और फिर मुझ जैसे कई देशभक्त गाने लगते थे अपनी-अपनी आवाज में.
लेकिन कल पढ़ा कि एक शोध के मुताबिक इन्टरनेट का इस्तेमाल कर रही पीढी का एक बड़ा हिस्सा, अश्लील साइट्स के सर्च को प्राथमिकता में रखता है. अछूता मैं खुद भी नहीं रहा इस से. मगर इस सच ने अचानक झकझोर दिया है. मैं सोच रहा हूँ कि हम सब किस ओर बढ़ रहे हैं?
यह युवा पीढी जिसके कन्धों पर आगे देश की बागडोर होगी, वह कहाँ खोयी हुई है?
'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक के इस सफ़र में देश कहाँ चला गया, और कब चला गया, पता ही नहीं चला.
कब मेरे भीतर का भारत मर गया, मैं सोचकर अनुत्तरित हूँ.
कैसे "वन्दे मातरम" की सेज बनने वाले होंठ "गालियों का गलीचा" बन गए?
कैसे चोले को उस रंग में रंगने की जिद में अड़ा हुआ मन चोली के पीछे का सच खोजने निकल पड़ा?
स्वतंत्रता दिवस कैसे पर्व से जयंती बन गया?
है कोई जवाब आपके पास मेरी इस उलझन का?
हो तो जरूर बताइयेगा.....
पड़ताल अभी जारी है...


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-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.


'..........कंडोम, हमेशा रखिये साथ, क्या पता ज़िन्दगी में कब, कहाँ...........???!!'मैं कोई विज्ञापन नहीं कर रहा हूँ..यह एक प्रख्यात कंडोम कम्पनी द्वारा दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे एक विज्ञापन की पञ्च लाइन है. मैं आश्चर्य में हूँ कि आखिर इस पंक्ति का अर्थ क्या है?
विज्ञापन में क्या दिखाने का प्रयास किया जा रहा है?
क्या कहने का प्रयास हो रहा है?क्या आदमी कुत्ते से भी गयतर हो चुका है, कि उसे पता ही नहीं कब, क्या हो जाए? कहते हैं कि कुत्ते का भी एक मौसम होता है, मगर लगता है कि आदमी बारहमासी कुत्ता हो चुका है!फिर हम हल्ला मचाते हैं एड्स का. अरे ऐसे में एड्स नहीं तो क्या प्यार फैलेगा??!आखिर हम किस संस्कृति की और बढ़ने के प्रयास में हैं? एड्स का हौव्वा है क्या?सच तो ये है कि यहाँ नाको(राष्ट्रिय एड्स नियंत्रण संस्थान) के माध्यम से एड्स को रोका नहीं फैलाया जाता है!!! एड्स को रोकने का ये कैसा प्रयास है जो सरकार 'कंडोम' के रिंगटोन के जरिये करने का प्रयास कर रही है?
जितनी बार सरकार 'कंडोम-कंडोम' चिल्ला रही है अगर उतनी बार 'हरिओम' कहा होता तो शायद ज्यादा फायदा हो जाता!!
बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक जाल फैलाकर एड्स का विज्ञापन कर रही हैं और हम इस सुखद भ्रम में खोये हुए हैं कि ये सब एड्स को रोकने के लिए है. ८० प्रतिशत कंडोम के विज्ञापनों से यह स्पष्ट है कि ये सब मात्र उनके विज्ञापन का, और यौनिक स्वच्छंदता को बढ़ावा देने का प्रयास है. इन सभी विज्ञापनों में इसे एक आनंद प्राप्ति का साधन बताया जाता है, एड्स की रोकथाम या और इस जैसी बातें तो कहीं पीछे छूट जाती हैं, और यही कारन है कि कम पढ़े लिखे लोगों का बड़ा वर्ग इसे उसी रूप में जानता और समझता है, और उसकी उपलब्धता न होने पर उस जैसे और विकल्पों की तलाश करता है. यही तलाश कारन बन जाती है एड्स या उस जैसी गंभीर बीमारी का.
समझ नहीं आता सरकार एड्स रोक रही है या कंडोम की मार्केटिंग कर रही है? जनसत्ता, १९ जुलाई के अंक में एक समाचार पढने को मिला कि अब सरकार राजमार्गों के पेट्रोल पम्पों पर भी कंडोम की वेंडिंग मशीने लगाने जा रही है,,आश्चर्य.... ये क्या है?
क्या ऐसे ही एड्स रुकेगा?
भारत कभी एड्स का देश नहीं रहा है, क्योंकि यहाँ यौन स्वच्छंदता की आदत नहीं रही है. मगर अब लग रहा है कि हम एड्स के मामले में भी शीर्ष पर पहुंचना चाहते हैं.
यहाँ एड्स के रोकथाम का प्रयास नहीं बल्कि एड्स के इलाज का प्रयास ज्यादा हो रहा है. और कोई भी इलाज तभी कारगर है जब बीमारी हो. और इसीलिए बीमारी को बढ़ाने के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं.एड्स किसी कंडोम के इस्तेमाल से नहीं रुक सकता, न ही ए.आर.टी. के इस्तेमाल से.एड्स को ख़त्म करना है तो जरूरी है कि सरकार ये हवाई विज्ञापन बंद कर के कुछ जमीनी कदम उठाये जो भारत की तासीर के हिसाब से हो.इस सम्बन्ध में यह पंक्तियाँ बहुत ही प्रासंगिक हैं--'हर तरफ शोर है, एड्स का दौर है,कोई कहता है ये करो, कोई कहता है वो करो,कोई कहता है ऐसे करो, कोई कहता है वैसे करो,मगर आश्चर्य ....कोई ये नहीं कहता कि चरित्र ऊँचा करो...'शायद यह ज्यादा बेहतर तरीका हो सकता है एड्स से बचने का.
--Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.


'सच का सामना' धारावाहिक के निर्माता और निर्देशक चर्चा में हैं. इस धारावाहिक को मैंने भी देखा . एक परित्यक्ता से हुए सवाल- जबाब का नमूना देखा, सामने में उसकी माँ और बहन भी बैठी थी. सवाल था- 'पति के बिना सेक्स का आनंद किस तरह उठाती हैं आप?' आदि...
फिर दूसरे दिन 'सच का सामना' देख रहा था जिसमें एक अधेड़ कुर्सी पर विराजमान हैं. उनसे सवाल था कि क्या अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के साथ सहवास किया है? वह झेंप जाते हैं , तभी मशीन उनका झूठ पकड़ लेती है. बेटी अपने बाप की स्थिति से हैरान होती है.
यह तो केवल नमूना भर है. इसी प्रकार के वाहियात सवालों का लम्बा सिलसिला टी.वी. पर चल रहा है. निःसंदेह चैनल की टी.आर.पी. तेजी से बढ़ रही है.
इस 'जलालत का सामना' आखिर देश क्यों करना चाह रहा है? शायद हो सकता है कि निर्माता अगली कड़ी में माँ और बाप का ब्लू फिल्म बनाये और बेटी -दामाद को दिखाकर यह पूछे कि दोनों के सेक्स आनंद में क्या अंतर है? दोनों के हनीमून का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए देश को मजबूर करें.
एकता कपूर के धारावाहिक का यह एक उत्तर-आधुनिक संस्करण है. उनके धारावाहिक में अवैध संबंध और संततियों की ही कहानी थी. आखिर आगे दिखाया भी जाए तो क्या? दर्शक भी मोनोटोनस का शिकार होने लगा था. कुछ नया तो करना था. मीडिया का भूत उतर गया है, भाग्य बेकार हो गया, और भगवान की भरमार है. भूत, भाग्य, भगवान और भांटगिरी के अलावा अब तो यही शेष रह गया था.
सेक्स ही सत्य है और इस सच के सिवा कुछ नहीं. सेक्स से जुड़े सवाल ही देश के प्रतिनिधि सवाल हैं. 'रामराज्य' तो नहीं आ सका है, 'सेक्स-राज्य' अवश्य आ गया है. जिधर देखो उधर सेक्स ही सेक्स है. हम 'सेक्स युग' में प्रवेश कर चुके हैं. मनुष्य की बोटी-बोटी से सेक्स निचोड़ा जा रहा है.
सरकार सेक्सी हो गयी है. सेक्स पर इनकी संवेदनशीलता देखने लायक है. असंख्य बुनियादी मामले कोर्ट में लंबित हैं, उन पर सुनवाई नहीं होती, गरीबों को समय पर न्याय नहीं मिलता; पर सेक्स के मामले में फैसला तुरत-फुरत हो रहा है.
गे, होमो-सेक्सुअलिटी, हेट्रो और ट्रांसजेंडर के मामलों को लेकर उच्च न्यायलय से लेकर उच्चतम न्यायलय तक की तत्परता गजब की है. सरकार भी बैकफुट पर आ गयी. समलैंगिकता सम्मानित हो गयी.
स्त्री-पुरुष को आग और फूस कहा जाता था कि कब चिंगारी भड़क जाए. यौन शुचिता के राख हो जाने का खतरा लगा रहता था. अब दो स्त्रियाँ भी एक जगह होगी तो यौवन में आग लग सकती है. बेलगाम सेक्स की अराजक दुनिया तैयार हो चुकी है.
'सच का सामना' आज देश कर रहा है. सत्य का साक्षात्कार तो हम करते ही थे. रामकृष्ण ने भी विवेकानंद को सत्य का साक्षात्कार कराया, गौतम बुद्ध ने भी सच का सामना किया और निर्वाण को उपलब्ध हुए.
यद्यपि हमारा समाज सेक्स-विरोधी कभी नहीं रहा. उस वक़्त सेक्स के लिए निवेदन अवश्य था परन्तु याचना नहीं थी. हम कुंठित नहीं थे. कोणार्क से लेकर एलोरा के गुफा तक में सेक्स मौजूद है, पर वह कतई अश्लील नहीं है.
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यही तो हमारे पुरुषार्थ के आधार थे. हमने ऋतू-चक्र को भी धर्म से जोड़ा और मासिक-धर्म कहा. काम भी शास्त्र से जुड़ा. वही काम-शास्त्र आज भी मानक है. सेक्स शास्त्र था मगर शस्त्र नहीं. हम काम की प्रकृति को समझते थे और इसकी बुनियादी जरूरत को पूरा करने में उत्साहित भी रहते थे; पर अराजकता हमारा अभीष्ट नहीं था.
'सच का सामना' सीरियल के निर्माता स्वतंत्रता और अराजकता के अंतर को नहीं समझ, बेवकूफी की बात कर रहे हैं. 'प्रगतिशील' होने का कतई अर्थ नहीं कि हम 'पतनशील' हो जाएँ.
सृष्टि की कोई भी रचना प्रकृति-विरोधी नहीं है. पशु-पक्षियों का भी अपना संसार है. समय के पूर्व सेक्स की उनकी कोई चाहत नहीं. नर-मादा भले ही साथ-साथ रहें.
आखिर मनुष्य इतना बेलगाम क्यों? इसीलिए कि उसके पास चेतना है, बुद्धि है. चेतना और बुद्धि का क्या केवल यही उपयोग है कि हम समाज को ही अराजकता में धकेल दें. कॉलेज कैम्पस, गेस्ट हॉउस हर जगह 'कंडोम-काउंटर' खुल रहे हैं. अब तो स्कूल-बैग में टिफिन के साथ कंडोम भी दिया जा रहा है कि कहीं इसकी जरूरत न पड़ जाए.
संस्कृति और परंपरा का मतलब केवल वर्जना नहीं होता. इसमें भी उदात्तता है, वैज्ञानिकता है. अतीत केवल कुंठा नहीं होता, वहां अनुभवों का संचय भी तो होता है.
आओ वीर्यहीन बनें.....!! महिलावादी भले ही पुरुषार्थ शब्द पर उलटी करें, पर यह तो बताओ कि 'स्त्रियार्थ' कैसा हो?
यह सच है कि झूठ और वर्जना की बुनियाद पर कोई संस्कृति दीर्घकाल तक नहीं टिकती. खिड़की और दरवाजा खोलना ही चाहिए. ताज़ा हवा भी आना चाहिए. पर यह 'सच का सामना' बाजारवाद का प्रतिउत्पाद है, लाभ का खेल है.
"यह तो केवल झांकी है, खेल अभी बाकी है.."
बाजारवाद दो पांवों पर खडा है- 'ब्रेड' और 'बेड'. इस कंडोम-कल्चर में 'सर्वायवल ऑफ़ द फिटेस्ट' ही जिन्दा रहेगा, फिर 'सर्वायवल ऑफ़ द विटेस्ट' का क्या होगा?
संस्कृति केवल निर्गुण अवधारणा नहीं है. यह जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करता है. यह सत्य है कि यह कल्चर हमारे परिवार को छिन्न-भिन्न कर देगा, तब क्या होगा? बूढे और बच्चे, विधवा और परित्यक्ता निःसहाय होंगे. वृद्धावस्था पेंशन देने का औकात तो है नहीं सरकार के पास, फिर कितना वृद्धाश्रम, अनाथालय और नारी-निकेतन बनायेंगे? पैसा कहाँ से आएगा! यह हमारे इकोनोमी को भी प्रभावित करेगा.
देश की तासीर, जन और जलवायु को देखकर भी नक़ल करनी चाहिए. वैसा ही बीज बोयें जैसी जमीन है. देश अभी 'पेज थ्री-कल्चर' में जीने की स्थिति में नहीं है.
'सच का सामना' के निर्माता बंधुओं! आपसे अपील है कि आपको क्लब ओर कंडोम कल्चर में जीना है तो जियें. पर यह देश क्लब और जुआ घर नहीं है.
यह हमारी मातृभूमि है कोई चकलाघर नहीं. आपका यह प्रयास फूहड़ता के अलावा कुछ भी नहीं.

-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.


बचपन में बहुत सा खेल खेला करते थे. कुछ खेल बेवकूफी भरा था, पर बेहतरीन था. वाह! मेरी बेवकूफी. वैसे बचपन के खेलों की भी अपनी ही ऐतिहासिकता है. भगत सिंह बचपन में धान के खेत में बन्दूक रोपते थे. चन्द्रगुप्त गड़रियों के बीच राजा बनने का खेल खेला करते थे.
मेरा सब खेल बिगड़ गया. मैं ना तो तीतर बन पाया ना बटेर. मेरे सभी मित्र आन्दोलन कर रहे हैं.शशि,विलास,फिरोज़,अक्षय, अशोक सभी के सभी मित्र देश में आन्दोलन कर रहे हैं. मेरे भीतर का आन्दोलन भी कुलबुलाता रहता है. सोचता हूँ कि मैं भी एक आन्दोलन कर ही दूं.
वैसे 'आन्दोलन' मेरे लिए प्यारा शब्द रहा है. स्वतंत्रता-आन्दोलन की कहानियां पढता-सुनता रहता था. आन्दोलन से स्वाभाविक आकर्षण हो गया था. आन्दोलन धीरे-धीरे जीवन का मकसद भी बना.
नाटक भी वैसा ही देखता जिसमे क्रांति की बात थी. तिरंगा उठा लो, बगावत, गुलामी तोड़ दो- ये ही नाटक थे बचपन के. फिल्में भी उस दौर में इन्कलाब, जंजीर, अन्धाकानून थी. चारों ओर अराजकता के खिलाफ आक्रमण था, व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था. विद्रोही चेतना चेतना का अनुगूँज हर ओर सुनाई पड़ता.
कॉलेज में कदम रखा. कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी. आजादी के वक़्त हर नेता पढ़े लिखे थे. क्रांति के लिए केवल भावना ही नहीं विचार की भी जरूरत होती है. कौन सा मार्ग बेहतर है, के चयन में परेशानी थी. जो मिलता वही आकर्षक हो जाता.कैम्पस में कई बैनरों पर बहसें मौजूद थीं. नक्सलवादी आन्दोलन, ७४ का आन्दोलन, बोधगया का भूमि आन्दोलन, गंगा मुक्ति आन्दोलन, आजादी बचाओ आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन, स्त्री मुक्ति, बीज, पानी, जल, जंगल को बचाने के नाम पर आन्दोलन जैसे चिपको आन्दोलन......
गाँधी, आंबेडकर और जे.पी. के विचार वाले ज्यादा ही आन्दोलन करते थे.कैम्पस में राष्ट्र निर्माण के सिद्धांत बघारते थे. भावना के मूल में एक ही बात थी अपना देश समर्थ, सबल, स्वावलंबी और स्वाभमानी कैसे बने? देश को कमजोर करने वाली हर बात मेरे लिए बदसूरत थी. क्या करूँ? कहाँ से शुरू करूँ? समझ में नहीं आ रहा था. हर सप्ताह संगठन बनाता, लैटर हेड छपवाता, बयान देता. कितने ही संगठन के लैटर हेड थे मेरे पास. संगठन का नाम खोजने में डिक्शनरी का सहारा लेता. नाम खोज निकालता और उसमें आन्दोलन शब्द जोड़ देता. चार व्यक्ति भी बैठक में हों, पर हमारा संगठन विश्वस्तर से नीचे का नहीं होता था और मेरा राष्ट्रीय पद पर स्वाभाविक अधिकार हो जाता था.
बस, इसी खेल में डॉ. विवेकानंद से मुलाकात हुई. उन्होंने सुझाया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो लिया जाये. खोजते-खोजते संघ कार्यालय पहुँच गया. जन्माया बेटा और बना-बनाया कार्यकर्त्ता भाग्य से ही किसी को मिलता है. मेरी औकात जल्द ही बढ़ गयी. नगर से लेकर प्रान्त तक का मैं आदमी बन गया.
बयानबाजी खूब करता. अख़बार में खबरें भी दनादन छपतीं. सूची बनाना, संपर्क करना, एकत्रीकरण ये शब्द ही आन्दोलन का पर्याय बन गया. महत्वकांक्षी बड़ी थी. जिस संगठन में बुलाया जाता, वहां राष्ट्रीय दायित्व ही संभालने का जी करता. शुक्र है कि मैं कोई नया संघ बनाकर सरसंघचालक नहीं बना!!
क्या करने आया था, क्या करने लगा? पता ही नहीं चल पा रहा था- "आये थे हरी भजन को, ओटन लगे कपास...". प्रतिक्रांतिकारी होने का सारा नाटक शुरू कर दिया.
एक बार एक बड़े नेता को भागलपुर आना था. स्वागत के फूल खरीद लिए थे. यद्यपि उनका व्यक्तित्व कथित तौर पर राजनीतिक साधक के रूप में चर्चित था. स्टेशन पर आते ही फूल माला से लादकर उन्हें गदगद कर दिया। उन्होने अपने गले से माला उतारा और मेरे हाथ में सौप दिया और मुझे कान मे फुस्फुसाये कि उसी माला
को अगले चौक पर पहना दें।ताकि जगह-जगह उनके स्वागत की खबर बन सके। धुरफ़न्दी का हमारा नया पाठ पढ़ना शुरु हो गया। सवेरे-सवेरे खबर आयी। अखबार को देख-पढ़ मुझे सामाजिक जीवन के पाखण्ड का एह्सास तो हुआ, मगर वह धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा।
दुसरे दिन उस नेता का दूसरा एपिसोड शुरू हुआ. उन्होंने आन्दोलन चलाने की घोषणा की. मैं कभी भी शहर-बंद का कॉल नहीं दिया था. उनकी शह पर बाज़ार-बंद का कॉल दिया. नेता ने बंद के दौरान लाठीचार्ज की आशंका जताया. लाठीचार्ज होगा तो कार्यकर्ता घायल भी होंगे, तो क्यों न बंद के पहले ही घायल होने की फोटो खिंचवा लिया जाय. नेता जी के जात के एक फोटोग्राफर थे. रंग-पट्टी बांधकर मेरा भी फोटो खींच लिया फोटो तैयार होकर पटना चला गया. इधर मेरा भी बाज़ार, बंद हो गया. लाख तोड़फोड़ के बाद भी पुलिस ने लाठीचार्ज नहीं किया. मेरी चिंता बढ़ गई कि घायल होने की खबर पेपर में जा चुकी है, अगर घायल नहीं हुए तो क्या होगा? घायल होने के लिए बेचैन हो गए हम लोग. मरता क्या ना करता? आपस में ही एक दुसरे का शर्ट फाडा, और बाज़ार में बेतहाशा भागा ताकि लाठीचार्ज का वर्चुअल इफेक्ट बन सके.
सवेरे लाठीचार्ज की खबर फ्रंट पेज पर लगी. हम भले चंगे कार्यकर्ता को छिपा दिया गया ताकि असलियत की जानकारी समाज को न हो सके. कथित लाठीचार्ज के विरोध में दुसरे दिन भी बाज़ार बंद रहा. यह था पॉलिटिकल फोलोअप... पुलिस महकमा इस भूत्खेली पर आश्चर्य में तो था ही, मुझे भी अपने आंदोलनकारी होने पर कम आश्चर्य नहीं था!!इस पाखंड से धीरे-धीरे मैं आजिज आ चुका था.
शाखा, संपर्क, सूची बनाना सीख गया था. संघ ने बहुत कुछ सिखाया. लोकप्रियता आसमान
पर पहुँच गई.
महिला कार्यकर्त्ता का झुकाव मेरी ओर बढ़ गया. वैसे संघ की 'मातृशक्ति' शाखा से अलग रखी जाती थी. स्वयंसेवक के भटक जाने का भय था.
स्त्रियों का मातृशक्ति के रूप में बहुत आदर था. मैं भी स्त्रियों को खोज-खोजकर आदर देने लग गया. स्त्रियों को आदर देने का मेरा छिटपुट कार्यक्रम जारी रहा. आदर देने में हमसे भी बड़े-बड़े अधिकारी मौजूद थे वहां. संघ की अंकुरबाडी में मौजूद बड़े-बड़े महंत के सामने मुझ जैसे पिद्दी महंत का टिके रहने मुश्किल था. बस क्या था, संघ का मैं तन-खातैया घोषित हो गया.
बहुत अफ़सोस हुआ संघ से बाहर होने का. बड़ा सुख था वहां आन्दोलन करने में. सारी सुख-सुविधा मौजूद थी. किस्मत में कुत्ता पेशाब कर दिया कि मैं समाजवादियों के बीच आ गया. हलुआ मलाई के बाद सूखी रोटी खाना मुश्किल था. बदबूदार देह, बजबजाती जिंदगी और बोरा-चट्टी पर मीटिंग.
वर्षों वहां गुजरा. आन्दोलन खडा कर देने को मैं उतावला था. आत्म-मुग्धता असीम थी. राष्ट्रपति और भंगी की संतान को समाजवाद मुहैय्या कराने का ठेका मानो मुझपर ही था. एक से एक गीत गाता. नारा लगाता. संघ का 'बंधुवर' यहाँ 'साथी' में तब्दील हो गया.
यहाँ भी रोज बैठक. हर व्यक्ति के पास एक-एक आन्दोलन. कुछ समाजवादी नेता तो ऐसे थे कि एक के पास कई-कई आन्दोलन का जागीर मौजूद था. "तुम मेरी खुजली सहलाओ, मैं तुम्हारी... "न्योता पूरने वाले यहाँ असंख्य नेता थे. उनका जीवन मंच पर ही गुजरता. वे संगठन खडा करने का जोखिम भला क्यों लेते? बना-बनाया मंच भाषण पेलने के लिए मिल जाय तो अच्छा ही था. ना कभी ये एक साथ रहते न कभी अलग रहते. कोई झुकने को तैयार नहीं. 'अपनी डफली अपना राग'. 'संग' चलने के पहले ही जहाँ 'ठन' जाये, उस संगठन में भी वर्षों बिताया. क्रन्तिबाज और इश्कबाज साथ-साथ रह सकते थे. सह्जीवन का नया माहौल. स्त्री-मुक्ति का उछाल कायम था. यहाँ स्त्री हमेशा पुरुषों से मुक्त होती और अन्य से युक्त होती.
संघ में बौद्धिकबाज था. वहां टोका-टोकी कम था. वहां बुद्धि झाड़ने की सुविधा थी. यहाँ टोका-टाकी बहुत ज्यादा था. कोई भी किसी की धज्जियाँ उड़ा डालता. धज्जियाँ सिलने का वक़्त कहाँ था इन समाजवादियों के पास. सत्ता के संघर्ष में लगे समाजवादी सत्ता के विमर्श वाले समाजवादियों से कम ही खतरनाक थे.
हर घाट का पानी पीते-पीते अल्ट्रा-लेफ्ट के पास आ गया. हार्डकोर और मुलायम कोर यहाँ समझ में ही नहीं आया. विरोध के लिए विरोध था. यहाँ मेरा चरित्र अंतर्राष्ट्रीय हो गया. मेरा वैश्विक व्यक्तित्व आकर्षक था. विश्व स्तर के प्रश्न होते थे मेरे पास. इजराएल, अमेरिका, इराक और इरान, न्यूक्लिएर डील और पूँजी वाद पर बोलना तो शगल हो गया था. विखंडनवाद, इतिहास का अंत, सभ्यता का संघर्ष, उत्तर आधुनिकता, ९/११ के बाद, ऐसे प्यारे-प्यारे शब्द थे मेरे पास. ये सारी बातें सुनने के लिए बेवकूफ भी कम नहीं थे.
गाँधीवादी शाकाहारी संगठन और आन्दोलन चलाने में विश्वास करते थे. राज्यपोषित गांधीवाद भी नहीं भाया. गाँधीवादी को फंड, फाइल में ही उलझते देखा. हो सकता है कि मेरी छोटी आँखों में गांधीवादियों का बड़ा फोटो अटका ही नहीं हो!
दलित घाट पर भी गया. नव-ब्राह्मणवाद का पूरा नजारा. खूब मनुआद को कोसता. दलित, वंचित, शोषित, पीड़ित अकलियत और पसमांदा पर बोलता. देश का उत्थान मैं दलितों के उत्थान में देखता. श्रमण, 'बहुजन' और फिर 'सर्वजन' में उलझते-सुलझते, मैं यहाँ हूँ.
कोई कद आदमकद नहीं लगा. हर प्रक्रिया, निष्पत्तियां शून्य लगीं. फंडे और डंडे का रंग एक जैसा था. सिद्धांतों और दर्शनों का कोई भेद नहीं. "जो जाये लंका, वही हो जाये रावन." सत्ता सबों के लिए सुंदरी थी पर गणिका की तरह, वह एकांत में प्रिय थी और सार्वजनिक जगह पर गाली. जो सत्ता तक नहीं पहुँच पाए सत्ता उनके लिए गाली थी, मौकाविहीन ब्रह्मचारी की तरह.
चतुर्दिक खामोशी है. कांग्रेस का रामराज्य, राहुल-राज्य में बदल गया है. देश हँसता-मुस्कुराता नजर आ रहा है. जन्तर-मंतर खाली है, आन्दोलन बचाने का खेल जारी है.
जनता जान चुकी है सबकुछ. जन हस्तक्षेप की तैय्यारी है. संभालने दें अब आन्दोलन, जनता को. जिसकी लडाई, उसकी अगुआई ...
मंहगाई चरम पर है, खेत सूखे हैं, बेहाल किसान हैं, बेबस नौजवान हैं. बहुत दिनों तक यह नहीं चलेगा. यह विस्फोट के पूर्व का सन्नाटा है. जन्तर-मंतर खाली करें, जनता आ रही है. उन्हें ना आपका बैंनर चाहिए ना ही कथित तौर पर चमकता व्यक्तित्व.
मेरे जैसे कईयों ने आन्दोलन-आन्दोलन खेला. नयी पीढी को अब आन्दोलन ना सिखाएं. आन्दोलन का व्याकरण उसे स्वयं गढ़ने दें. मैं अपनी प्रतिक्रान्तिकारिता के लिए नयी पीढी से माफ़ी मांगता हूँ, अब मेरे अंदर उनसे ये कहने की हिम्मत नहीं है
'आओ आन्दोलन-आन्दोलन खेलें..'
-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.



एक प्रेम कहानी लिखने बैठा था. विचार सहज रूप से शब्दों में परिवर्तित होकर कहानी का रूप लेने लगे थे, परन्तु जैसे ही कलम को कागज पर रख रहा हूँ, सब कुछ परिवर्तित होता जा रहा है. मन में प्रेम की परिभाषा ही स्पष्ट नहीं हो पा रही है, तो फिर प्रेम कहानी कैसे तैयार होगी?
प्रश्न उठ रहा है कि प्रेम क्या है? मैं प्रेम कहूँ किसे? क्या उस भावना को जो मेरे मन में किसी 'एक' को लेकर पैदा हुई और उस एक के साथ ही समाप्त हो गयी. या फिर मैं प्रेम कहूँ उस भावना को जो यूँ ही किसी बच्चे की एक बिलकुल निर्दोष सी हंसी देखकर मन में उमड़ पड़ती है? या कि प्रेम कहूँ उस भावना को जो किसी का कष्ट देखते ही मन में पैदा हो जाती है और सहज ही मन उसके कष्ट में डूब सा जाता है?
कभी-कभी लगता है कि प्रेम तो मैंने किया ही नहीं कभी; जब सुनता हूँ मैं किस्से उन प्रेमियों के जिन्हें जिद थी, प्रतिस्पर्धा तो थी परन्तु एक दुसरे से अधिक त्याग कर देने की. जो झगड़ते तो थे परन्तु कुछ पाने के लिए नहीं, वरण कुछ देने के लिए. जिन्हें प्रेम था सच्चा अपनी मातृभूमि से, अपने देश से. और एक हम हैं; प्रेम खोज रहे हैं किसी प्राणी में. कभी उस अलौकिक प्रेम का आनंद ही नहीं लिया. राष्ट्र के बारे में कुछ सोचने-करने का सुख प्राप्त ही नहीं किया, और अपने आप को प्रेमी समझ बैठे . एक वो थे कि राष्ट्र को कष्ट हुआ तो मरने चल पड़े, और एक हम हैं, राष्ट्र तड़प रहा है लेकिन सोचने की फुर्सत नहीं है.
आर्श्चय है! हम प्रेमी होने का दंभ तो पाले हुए हैं मगर हमें प्रेम का अर्थ ही पता नहीं चला.
काश हमें प्रेम की सच्ची अनुभूति हो सके!!
--Amit Tiwari 'Sangharsh', SwarajT.V.



दिल्ली दुनिया से अलग नहीं है, खासकर अमेरिका से तो बिलकुल नहीं। अमेरिका में गे, लेस्बियन, बाई- सेक्सुअल और ट्रांस-जेंडर से जुड़े लोगों ने अपनी आवाज़ बुलंद की है कि उनकी समलैंगिकता को कानूनी आधिकार मिले। समलैंगिक शादी को सामाजिक स्वीकृति मिले।
१९६९ से यह आवाज़ सुनाई पड़ने लग गई थी। आज यह कानून सीनेट से पास होने की स्थिति में भी है। अमेरिका का लोबीईंग और दबाव समूह इस दिशा में सक्रिय है।
कल यानी २८ जून २००९ को दिल्ली में गे-मानसून ने दस्तक दी। टोलस्टोय मार्ग से जंतर-मंतर तक मार्च निकला। नारा था: होमो-हेट्रो भाई-भाई, दुनिया के लेस्बियन एक हों।
खूंटे से खुली गाय की तरह स्त्री-पुरुष वर्जना विरोधी नारे लगा रहे थे। खबरिया चैनलों और अख़बार के लिए इससे बड़ी खबर क्या हो सकती है? कई प्रकार की उत्सुकता लिए मैं टी.वी. से चिपका। गर्मी से तर-ब-तर होने के बावजूद भी मैंने अखबार का पन्ना निचोड़ डाला।
सभी धर्मों के धर्माचार्य इसके विरोध में एकजुट हो गए हैं। पंडित और मुल्ला के स्वर एक हो गए। बहुत मुश्किल से ये लोग एक सुर में बोलते हैं। इन समलैंगिकों व लेस्बिअनों ने धर्माचार्यों के बीच एकता स्थापित करा दी।
समलैंगिकों की जय हो!!।
पहले स्त्रियाँ प्रताडित थीं, मर्दों के प्रति गुस्सा था। इस कारण मर्दों से मुक्ति के लिए दो स्त्रियाँ ही आपस में रहने लगीं। शायद पति-पत्नी की तरह।यानी पतिवाद जिन्दा रहा। इधर पत्नी से आजिज पतियों ने भी समलैंगिक संबंधों को बढ़ावा दिया। एक समलैंगिक संस्कृति का विकास शनैः शनैः पटल पर आने लगा। नव-उदारवाद ने अगर सबसे ज्यादा गति दी तो वह है स्त्री मुक्ति, सहजीवन, सरोगेट मदर, किराये की बीवी, बहन-बेटियों से यौनिक सम्बन्ध। गे, लेस्बियन, बाई-सेक्सुअल ट्रांस जेंडर, वाइफ स्वेपिंग आदि-आदि शब्द भी इसी नव-उदारवाद का प्रति- उत्पाद हैं।
बेड और ब्रेड, इन्हीं दो पावों पर खड़े बाज़ार का लक्ष्य है कि दुनिया को किचेन और कमोडिटीज में परिवर्तित कर दिया जाये। भोग-भाग का योग है, भोग सको तो भोगो। भोग के खिलाफ में कोई प्रवचन सुनने को तैयार नहीं ।
आज का विमर्श है, ''समलैंगिक संस्कृति बनाम सनातन संस्कृति''। सनातन संस्कृति की चासनी में वर्जनाओं की कोई घुट्टी नयी पीढी को नहीं पिलाई जा सकती है। संस्कृति के नाम पर दमन, यह भला कब तक चलता। वक़्त रहते सनातनी खुद को संभाल नहीं पाए। हम जंजीर दिखाते रहे कि हमारे पूर्वजों के पास हाथी था। परिवर्तन आहिस्ते-आहिस्ते बेडरूम तक पहुँच गया। कुंठा की बाढ़ ने सनातनी बांध को तोड़ दिया। कुंठा का बहाव अराजक हो गया। मर्दवाद की फसलों को बहा ले जा रहा है, इस टूटे बांध का पानी।
वक़्त के साथ न बदलने की मूढ़ता लील गयी है मूल्यों की बातों को। स्वर्गीय माइकल जब भारत आये थे, तो संस्कृतिप्रेमियों ने इससे संस्कृति पर हमला बताया। भारत की संस्कृति माइकल के आने से ख़त्म होने लगी। भला राम, कृष्ण, कपिल, कणाद, बुद्ध,महावीर की बनायीं संस्कृति को माइकल ने हिला दिया। राम!!!.राम!!! मेरी दृष्टि में माइकल इन धुरंधरों से ज्यादा बलशाली साबित हुए। अगर दो कौड़ी का नचनिया सनातन संस्कृति को नचाने लग जाये तो निश्चित ही वह नाच प्यारा होगा।
दुर्बलों की कोई संस्कृति नहीं होती। वह शक्तिशालियों की संस्कृति का केवल अनुसरण भर करते हैं। भारत की संस्कृति का भी दुनिया में डंका बजा करता था जब भारत के पास आर्थिक संप्रभुता थी।
मामला गे या लेस्बियन से डरने का नहीं है। कोई भी संस्कृति पराभूत होती है अपने आन्तरिक कारणों से। संस्कृति के भीतर का अन्तर्विरोध ही किसी संस्कृति को निर्बल बनाता है। भारतीय संस्कृति का खिड़की-दरवाजा खोलना होगा। ताज़ा हवा को आने देना होगा। संस्कृति और परम्परा के नाम पर दमन होगा, तो गे सोसाइटी का जन्म तो अवश्यम्भावी हो जायेगा।
--Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.


'अलोक तोमर' का आलेख 'माओवादी मिथक को तोड़ने का अवसर' पढ़ा(rashtriya sahara,15-july). तोमर को लगातार पढता रहा हूँ. इस आलेख में माओवाद के प्रति उनका घिसा-पिटा गुस्सा ही सामने आया है
लोकतान्त्रिक मूल्य, अहिंसा, संसदीय जनतंत्र का महत्त्व तो है ही. अवधारणा के स्तर पर इसका आकर्षण बरक़रार है, पर व्यवहारके स्तर पर इसका चेहरा बहुत ही घिनौना है.
कुछ तो मजबूरियां रही होंगी...... आखिर खून खराबा का जिम्मेदार जमात कौन है? आजादी के बाद से हजारों सांसदों को हमने चुनकर भेजा, क्या उखाड़ लिया उन्होंने? आज़ादी के मायने क्यों नहीं समझ पाये आम लोग?गाँव तक विकास की रौशनी क्यों नहीं पहुँच पाई अभी तक? झोपडियां क्यों उजडती रही हैं? क्यों मुट्ठीभर लोग ही आबाद होते रहे हैं? विकास के बनते टापू से क्यों खदेडे गए हैं लोग...........?

"जब तक भूखा नंगा इन्सान रहेगा...धरती पर तूफान रहेगा...."

क्यों बेच दी गई नदियाँ? क्यों उजाडे गए इनके जंगल? क्यों नहीं मिल पाता निर्धनों को न्याय? दिन-रात मेहनत करने वालों की ज़िन्दगी क्यों खाक है? क्यों श्रमहीन और कर्महीन रातों-रात करोड़पति बन जा रहे हैं?

तोमर जी! दुनिया तीन भ्रमो पर टिकी है- () पूँजी का भ्रम, () लोकतंत्र का भ्रम, () विकास का भ्रम

देशी-विदेशी पूँजी की भरमार लगी है, पर कहाँ? गाँव की गलियों में, खेत-खलिहानों में या दलाल मार्केट में?

जब तक धरती पर बेवकूफ जिन्दा रहेगा, बुद्धिमान भूखा नही रहेगा. ऐसे ही सिद्धांत पर हमारे नेता चल रहे हैं, जनता को बेवकूफ बनाकर. जब चुनाव आता है, जनता मालिक हो जाती है. चुनाव के बाद यही मालिक नेताओं और बाबुओं के आगे दुम हिलाते हम रोज़ देखते हैं. इस तंत्र का लोक पर विश्वाश ही नहीं है। जन्म और मृत्यु के प्रमाण पत्र इनसे ही प्रमाणित होते हैं. तंत्र के लिए जनता अविश्वसनीय है. राज्य के पास जमा असलहा दूसरे देश के लिए नहीं, बल्कि इसी देश के भूखे नंगे आवाम के लिए है. ताकि 'तंत्र' का डर बना रहे 'लोक' में.

विकास की कसौटियां, चिन्तन और चुनौतियाँ, इन सब बहस का क्या हुआ? देश की तासीर के आधार पर क्यों नहीं विकास का मॉडल खड़ा किया गया आजतक? कुटीर उद्योग, हस्त्शिल्ल्प, खेती -किसानी से क्यों विमुख हो गए लोग? क्यों ६० लाख किसानों ने आत्महत्या की? तंत्र की बात करने वाले अलोक जी कुछ ऐसा कर रहे हैं;

"बड़ी अजीब है यह दुनिया जहाँ भूख से भी लड़खाडाओ तो कहते हैं की पीकर आया है. "

ये भूखे नंगे तालिबानी नहीं हैं तोमर जी! तंत्र अगर बेईमान रहा तो विद्रोह को कैसे रोक पाएंगे? आप बताएं तो, क्या गरीबों का आर्तनाद बंदूकों की आवाज से शांत हो जाएगा?
सलवा-जुडूम राज्यपोषित कार्यक्रम है. आन्दोलन को कमजोर करने के लिए राज्य समानांतर में नकली नेता और नकली आन्दोलन खड़ा करता रहा है. महेंद्र करमा की जीत को तमाम बुनियादी सवालों का समाधान मान लेना भारी भूल होगी।
माओवाद का आग्रही चेहरा अनुचित है. आखिर उनके पास भी देश को देने के लिए क्या मॉडल है? क्या उनका वैकल्पिक अर्थशास्त्र है? आखिर हिंसा के बाद क्या देना चाहते हैं देश को? अगर माओवाद के हिंसा का लक्ष्य चीन, रूस, नेपाल है, तो दुर्भाग्य है. फिर तो अलोक तोमर जो रास्ता दिखा रहे हैं, वही बेहतर है. कोठा पर ही जाना है तो फिर बेहतर पर जाया जाये. गंदे कोठे पर जाकर संक्रमित क्यों हुआ जाये?
तोमर जी को स्वात घाटी का जिक्र करने से पहले सत्ता के सनातन चरित्र पर भी प्रकाश डालना चाहिए. अन्यथा आपका लिखना भी राज्यपोषित पत्रकारिता का सलवा जुडूम ही होगा. आज आप नक्सली का सफाया करने के लिए बेचैन हैं, देश की गरीबी दूर करने की बेचैनी क्यों नहीं है? भूख बेबसी के खिलाफ आपकी जंग क्यों नहीं है? क्यों नहीं आपकी ताकत इस जंग में लगती तोमर जी?
"जुल्मों-सितम की आग लगी है यहाँ वहां, पानी से नहीं आग से इसको बुझाइए."

-- Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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