प्रेम क्या है?
एक प्रश्न, जिसका उत्तर सबके पास है, अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार.
क्या वास्तव में सबकी अपनी भावनाओं के अनुरूप ही प्रेम का रूप भी बदलता रहता है? क्या प्रेम एक नहीं है? क्या प्रेम इतना ही संकीर्ण है, कि व्यक्ति-वस्तु के अनुरूप ही रूप ग्रहण कर ले? क्या प्रेम का अपना कोई चरित्र नहीं है? क्या प्रेम वस्तुगत या व्यग्तिगत हो सकता है?
क्या विपरीतलिंगी के प्रति मन में उठ रही भावना ही प्रेम है?
कदापि नहीं!!!
यह जो कुछ भी है, वह प्रेम नहीं हो सकता. वह प्रेम है ही नहीं, जो की भावनाओं के अनुरूप, रूप ले लेता हो. प्रेम स्वयं में एक संपूर्ण भावना है. प्रेम मात्र प्रेम ही है. व्यक्ति-वस्तु के अनुरूप विचलित हो रही भावनाएं, प्रेम नहीं हैं.
प्रेम स्वयं में एक चरित्र है.
प्रेम कृष्ण है; वह कृष्ण जिसके पाश में बंधकर गायें-गोपी-ग्वाल सबके-सब खिंचे चले आते हैं.
प्रेम, बुद्ध हैं; वह बुद्ध जिसकी सैकडों वर्ष पुरानी प्रतिमा भी करूणा बरसाती सी लगती है.
प्रेम, राम है; वह राम जिसके दुःख में कोल-किरात-भील सबकी आँखें नाम हैं.
प्रेम, ईसा है; वह ईसा जो अपने अपराधियों के कल्याण की प्रार्थना ईश्वर से करता हुआ, प्राण छोड़ देता है.
प्रेम, बस प्रेम है.
प्रेम, पुष्प की वह सुगंध है, जो बिना भेद किये सबको आह्लादित कर दे. प्रेम की गति सरल-रेखीय नहीं है, प्रेम का पथ वर्तुल है. वह उस परिधि में आने वाले कण-कण को सुगन्धित कर देता है.
प्रेम, व्यक्ति केन्द्रित भाव नहीं है. यह कहना कि "मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करता/करती हूँ"; इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता.
लेकिन अब यह भ्रम भी होता है, कि तब फिर वैयक्तिक रूप से अपने निकटवर्ती सम्बन्धी, साथी, पारिवारिक सदस्य या फिर किसी के भी प्रति मन में उठने वाली भावना क्या है?
निश्चय ही वह प्रेम नहीं है. यह प्रेम से निम्न स्तर की भावनाएं हैं. प्रेम की बात करते हुए हमें कुछ शब्दों के विभेद को भी ध्यान में रखना होगा.
प्रेम, प्यार, मोह(मोहब्बत) और अनुराग(इश्क) परस्पर समानार्थी शब्द नहीं हैं. इन सबके अपने अर्थ और अपनी मूल भावनाएं हैं.
प्रेम शक्ति चाहता है, (Prem seeks Power)
प्यार, काया चाहता है, (Pyar seeks Body)
मोह(मोहब्बत), माधुर्य चाहता है, ( Moh seeks Madhurya)
अनुराग (इश्क), आकर्षण चाहता है, (Anurag seeks Akarshan)
प्रेम, शक्ति चाहता है. यह शरीर की नहीं, वरन मन की शक्ति है. एक कमजोर प्राणी सब कुछ तो कर सकता है, वह विश्वविजयी हो सकता है, वह प्रकांड विद्वान हो सकता है, परन्तु वह प्रेम नहीं कर सकता.
प्रेम के लिए निर्मोह की शक्ति चाहिए. प्रेम, प्राप्ति का माध्यम नहीं है. प्रेम, बंधन नहीं है, प्रेम मुक्त करता है. प्रेम करने से पूर्व स्वयं को प्राणिमात्र के लिए समर्पित कर देने की शक्ति चाहिए.
किसी की माता को गाली देने वाला, अपनी माँ को भी प्रेम नहीं कर सकता. किसी स्त्री का अपमान करने वाला, अपने परिवार की स्त्रियों से प्रेम नहीं कर सकता. किसी छोटे बच्चे पर हाथ उठा रही स्त्री, अपने पुत्र से प्रेम नहीं कर सकती.
प्रेम जब होता है, तब सिर्फ प्रेम ही होता है. प्रेम किसी से नहीं होता, प्रेम किसी में होता है. जैसे की पुष्प की सुगंध, आपसे या हमसे नहीं है, वह पुष्प में है, जो कि सबके लिए है...
बस यही प्रेम है...
-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.
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प्रेम जब होता है, तब सिर्फ प्रेम ही होता है. प्रेम किसी से नहीं होता, प्रेम किसी में होता है. जैसे की पुष्प की सुगंध, आपसे या हमसे नहीं है, वह पुष्प में है, जो कि सबके लिए है...
बहुत सही ...!!
बहुत सुन्दर रचना!
बधाई!
अत्यन्त सुन्दर बात.........
अभिनव रचना
बधाई !
बहुत सुन्दर व प्यार को परीभाषित करती अच्छी रचना।
प्रेम के बारे में अच्छे विचार हैं
बहुत सुन्दर रचना........
प्रेम के प्रति इतना सटीक और आदर्श विचार...
प्रशंसनीय है...
बहुत सुन्दर रचना...
बेहद अच्छी रचना.....
प्रेम को बहुत ही सार्थक तरीके से परिभाषित किया है..
शब्दों के अर्थ विभेद को इतनी बारीकी से व्यक्त करने के लिए धन्यवाद..
सुन्दर और सार्थक....
अच्छा लेख....और अच्छे विचार...