देश में सूखा का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है। इन्द्र देव, अग्नि देव, वरूण देव और सूर्य देव की दुष्कृपा ने भारतवासियों का अमन चैन छीन लिया है। इस बार भी गर्मी में जहां सूर्य देवता ने अपना रौद्र रूप दिखाकर अग्नि की ओलावृष्टि की है जिससे इन्सानों के तन-मन में मानों आग सी लगने लगी है। और जब कहीं आग लगी हो तो उसे बुझाने का काम पानी का होता है, लेकिन इन्द्र देवता की बेरुखी ने रही सही कसर बरसात न कराकर पूरी कर दी है। और बरसात तब नहीं होती जब वायु देवता और वरूण देवता अपने कामों में अनियमितता बरतने लगे। और कुछ सालों से भारत में सूखा और बाढ़ के हालात को देखकर ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। जहां एक तरफ बाढ़ की वजहों से जान-माल का नुकसान होता है, वहीं सूखे की वजह से ऐसे हालात पनपने लगते है कि इंसान की जान जंजाल में फंसी नजर आती है अर्थात जीना हराम कर देती हैं। जिस प्रकार मध्यम श्रेणी के लोग जो न तो अपने सामाजिक दायरे के उपर की सोच सकता है और ना ही वह अपने से नीचे स्तर का काम कर सकता है, जिसकी वजह से आज मंहगाई की मार सबसे ज्यादा मध्यम वर्ग के लोगों को ही सहना पड़ रहा है। देश में खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूती जा रही है। चीनी की मिठास का ये आलम है कि अब ये फिकी लगने लगी है और तो और मिठास लाने के लिए विदेशी चीनी आयात कीे जा रही है लेकिन बढ़ी कीमतों से कितनी कड़वाहट आएगी इसका अभी अंदाजा नहीं लग पाया है। लेकिन यह तय है कि इस बार की दिवाली थोड़ी फिकी ही रहने वाली है। वही दालों की कीमते बढ़ने से निचले स्तर के लोगों से बिल्कुल छूटता दिखाई दे रहा है और अब मध्यम वर्ग की पहुच से भी छूटने लगा है। मंहगाई का कारण देश में सूखा, बाढ़ और अनाज की कम बुआई को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। जहां तक रही सूखे की बात तो इसका कारण क्या है? न तो कोई इस पर विचार करना चाहता है और ना ही कोई समझने को तैयार दिखाई दे रहा है। सरकार तो बस एक ही उपाय करती है। अगर पैदावार कम हो तो सामान का आयात करा लो। सब्सिडी देकर दाम कम करने की कोशिश तक सीमित रह जाती है। वहीं जनता सरकार पर आरोप लगाकर या फिर मानसून की कमी का रोना रोकर भगवान को कोस कर शांत हो बैठती है। लेकिन मंहगाई का सबसे बड़ा कारण ÷बढ़ती गुणात्मक जनसंख्या' पर विचार और इसके रोकथाम के लिए आत्म मंथन कोई नहीं करता। विपक्षी पार्टिया भी केवल राजनीतिक फायदे के लिए अपने चुनावी सभाओं में अपने वक्त के दामों की दुहाई देकर वोट लेने तक सीमित रह जाती है। सब यही सोचते होंगे की आखिर मंहगाई का आबादी से क्या मतलब है? लेकिन सच है कि आबादी केवल मंहगाई के लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि देश में जितनी भी समस्याएं है चाहे वो बेरोजगारी, अशिक्षा, गरीबी, भूखमरी, भ्रष्टाचार, अकाल, मृदा अपरदन, वृक्ष कंटाव, दुर्घटना, अपराध, बात-बात पर तनातनी (हाई टेंपर्ड), सांस्कृतिक बदलाव, पाश्चात्यीकरण, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, आतंकवाद, नस्लभेद, आरक्षण, राजनीति में अपराधीकरण, अमीर-गरीब में बढ़ती खाई, सामाजिक एवं शारीरिक शोषण और न जाने ऐसी कितनी समस्याएं जो इस बढ़ती आबादी ने हमें सौगात में दिया है। इसलिए आबादी तो सभी परेशानियों के लिए जिम्मेदार है लेकिन आबादी बढ़ने के पीछे सबसे अधिक जिम्मेदार कोई तत्व है तो वह है मुस्लिम तुष्टीकरण, क्योंकि भारत में आबादी को लेकर चिंताए और चर्चाए इसलिए नहीं होती और ना ही इसके रोकथाम के लिए कड़े कानून बनाए जाते है क्योंकि देश में कानून बनने के बावजूद भी इस कानून की धज्जियां उड़ाई जा सकती है। क्योंकि मुस्लिम समाज देश और कानून से ज्यादा महत्व अपने धर्म को देता रहा है। और हमारे देश में जितने भी राजनीतिक सिपेहसालार है फिर चाहे वो कांग्रेस और यूपीए दल की घटक पार्टियां हो या फिर सांप्रदायिकता की बेवजह दाग ढ़ोने वाला भाजपा ही क्यों न हो, सब उनके ही भरोसे चुनाव जीतना की जुगत में लगे रहते है।आज देश की कुर्सी उन्हें ही मिल सकती है जो मुस्लिम तुष्टिकरण करता हो क्योंकि जीत के लिए विकास का मुद्दा कब का पीछे छुट चुका है। और जातिगत राजनीति से पार्टियों को कुछ खास लाभ नहीं हो पा रहा है। इसलिए तमाम छोटी-बड़ी पार्टियां सत्ता के केन्द्र तक पहुंचने के लिए अल्पसंख्यकों की राजनीति और आरक्षण देने का मुद्दा उठाती रहती है। और तो और उलेमाओं के बड़े-बड़े और घटिया किस्म के नखरे को भी सिर पर उठाने को मजबूर दिखाई पड़ते है सभी राजनीतिक दल। वे जब चाहे जिसे चाहे छोटी-छोटी बातों को लेकर फतवा जारी कर देते है। यहां तक की कुतूबमीनार जैसे सास्कृतिक धरोहरों पर भी अपनी मुस्लिम राजनीति चमकाने से बाज नहीं आते बावजूद इसके, उनके खिलाफ कहने के लिए कोई भी राजनीतिक दल और नेता सामने नहीं आता। ऐसे हालातों के देखकर यह जरूर आभास होता है कि अब दिन दूर नहीं है जब भारत में एक बार फिर मुसलमानों का शासन आ जाएगा और इसके लिए भी जयचंद के रूप में हमारे राजनेता जिम्मेदार होंगे। इसलिए जितना जल्द हो सके राजनीतिक पार्टियों को आबादी पर विचार विमर्श करना चाहिए और कड़े कानून बनाने चाहिए जिससे ÷हम दो हमारे दो' ही नही बल्कि ÷हम दो हमारे एक' की प्रथा शुरू हो जाए। और यह कागजी न रहकर चीन की तरह कठोर कार्यवाही का रूप धारण कर ले।
rachna: narendra nirmal
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