बचपन में अक्सर मन में एक प्रश्न उठा करता था- 'घर और मकान में क्या अंतर है?'
हमेशा ही एक बहुत अच्छा सा जवाब भी मन ही तलाश लेता था, अपने हिसाब से. उन दिनों लगता था कितनी अच्छी बातें हैं ये सब. खुद भी 'मकान' से ज्यादा 'घर' शब्द का इस्तेमाल करता था. बड़े-बूढे कहा करते थे कि मकान तो एक बार बनाया जाता है, मगर घर को हमेशा बनाते रहना पड़ता है.....तब मतलब भले न समझ आता रहा हो इन बातों का, लेकिन अच्छी लगती थीं ये बातें.
और आज थोडा बड़ा होकर जब इस बाज़ार की दुनिया में घरों को मकान में तेजी से तब्दील होते देखता हूँ, तो व्यथित हो उठता हूँ.
एक बार दादा जी ने कहा था किसी बात पर,"ये मकान छोटा है लेकिन इस घर में बहुत जगह है." और सचमुच उस चार कमरे के घर में एक भरा-पूरा परिवार समा जाता था. और आज इस बाजारू दुनिया में बड़े-बड़े मकानों में भी लोगो को स्पेस खोजते देखता हूँ तो आश्चर्य होता है.
एक मकान घर बनता ही तब है, जब उसमें दादा-दादी के बूढे गले की आवाज और छोटे बच्चों की किलकारियां एक साथ सुनाई देती हैं.
समझ नहीं आता कि कब इस 'वसुधैव कुटुम्बकम' की संस्कृति के बीच में 'बाज़ार' घुसता चला आया और चुपके से परिवार को मारकर, बाज़ार बना गया. और जैसे ही परिवार बाज़ार बने, रिश्ते बिकाऊ होते चले गए. प्रेम, सम्बन्ध, संवेदना, विश्वास, भावनाएं कब बाज़ार आधारित मूल्यबोध से जांचे जाने लगे पता ही नहीं चला. ऊँचे-ऊँचे मकान दिखाई देने लगे हर ओर, और घर कहीं कोने में पड़ा सिसकता रह गया.
कब संयुक्त परिवार (joint family) इन मकानों के लिए complex family बन गए, पता ही नहीं चला. संयुक्तता, जटिलता बन गयी, जिससे निजात के लिए लोग अपने घरों को उठाकर 'वृद्धाश्रमों' और 'क्रेचों' में छोड़ कर चले आये, और रह गया एक 'गूंगा घर'.
आज व्यक्ति एक मकान को बनाने और सँभालने में जिंदगी लगा देता है, मगर आश्चर्य कि संबंधों को संवारने के लिए उसके पास वक़्त ही नहीं. अब रिश्ते गिनती बन रहे हैं, प्रेम पैसे से तौला जा रहा है.
लोग भूल रहे हैं कि संबंधों की दीवार 'सीमेंट' से नहीं 'संवेदनाओं' जुड़ती है. 'स्नेह' के जल में 'स्पर्श' और 'संवेदना' का मसाला मिलाकर ही संबंधों की दीवार खडी होती है.
और बालू सीमेंट की दीवारों से मकान बना करते हैं, घर नहीं.
घर तो संबंधों की दीवार से बनता है.
-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.
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