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बहुत अच्छा लगता है, जब टीवी चलाते ही सामने एक सुन्दर सी बाला स्वागत करती हुई दिखाई दे जाती है. मन कोल्ड ड्रिंक पीने को मचल उठता है, जब एक विश्व सुंदरी अपने सुन्दर होठों से लगाये हुए कहती है, 'पियो सर उठा के'. और समाचार और भी आकर्षक लगने लगते हैं, जब उन्हें कोई दमकता चेहरा, सुरीली आवाज में सुना रहा होता है.

साथ ही साथ मैं इस सुखद भ्रम में भी डूब जाता हूँ, कि स्त्री सच में सशक्त हो रही है. आज कोई कोना नहीं बचा, जहाँ स्त्री ने अपनी उपस्थिति ना दर्ज की हो.

ऐसे ही एक सुखद भ्रम में खोया, टीवी पर बोल रही बाला को सुन ही रहा था, कि अचानक ठिठक सा गया. एक अर्धनग्न सी युवती, समंदर किनारे किसी बंद, पानी की बोतल का प्रचार कर रही थी. मैं उसकी अवस्था को देखकर हतप्रभ था. समझ नहीं पा रहा था, कि यह कौन से 'पानी' का प्रचार है..!!? क्या यह सच में उसी 'पानी' का प्रचार है, जो उस बोतल में बंद है, या फिर यह उस 'पानी' का प्रचार है, जो इस 'पानी' की आड़ में 'पानी-पानी' कर दिया गया.

यह कैसी सशक्तता है? क्या स्त्री इसी सशक्तता के लिए बेचैन थी? क्या यही प्राप्ति उसका अंतिम लक्ष्य है?

एक कटु सत्य यही है कि स्त्री आज भी सशक्त नहीं है, बल्कि वह पुरुष के हाथों सशक्तता के भ्रम में पड़कर स्वयं को छल रही है.
'हे विश्वसुन्दरी, तुमने क्या खोया, क्या पाया है...
तन को बाजारों में बेचा, फिर तुमने क्या कमाया है....'

स्त्री देह के छोटे होते वस्त्र और उसकी सुन्दरता को मिलते बड़े पुरस्कार......यह सब एक रणनीति रही है, इस पुरुष समाज की...स्त्री को छलने के लिए....दुर्भाग्य यही है, कि स्त्री स्वयं को उन्ही बड़े पुरस्कारों के आधार पर जांचने लगी. स्त्री को अपनी सुन्दरता का प्रमाण उन पुरस्कारों में दिखाई देने लगा...

जिस स्त्री को अपने आभूषणों में सुन्दरता दिखती थी, उसे अब अपनी अर्धनग्न देह ज्यादा सुन्दर लगने लगी. और रही बात पुरुष समाज की, तो वह तो सदा से यही चाहता रहा है. जो यह समाज तमाम अत्याचारों और बल के बाद भी नहीं कर पाया था, कुछ बुद्धिजीवियों ने इतनी सरलता से उसे कर दिखाया, कि स्त्री स्वयं ही अपने वस्त्र उतार बैठी.

कन्हैया सोच रहे हैं, कि शायद कोई द्रौपदी अपने चीर की रक्षा के लिए आवाज देगी... लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि यहाँ कोई दुशासन चीर हरण कर ही नहीं रहा है, यहाँ तो अब स्वयं द्रौपदी ही अपने चीर को त्याग रही है, तब फिर भला कन्हैया भी क्या करें?

सरकार की दृष्टि में सशक्तता का प्रमाणपत्र अब बार या पब में जाकर ही मिल सकता है. यह सब कुछ मात्र राजनीति का हिस्सा नहीं है. यह एक बहुत बड़ी रणनीति है, समाज के अन्दर से मनुष्यता और संस्कृति को मारने की.

पिछले दशक में अचानक ही हिन्दुस्तानी सुंदरियों को विश्व-सुंदरी और ब्रह्माण्ड-सुंदरी का ताज मिलने के पीछे उनकी सुन्दरता को पुरस्कृत करने का ध्येय कदापि नहीं था. इसके पीछे खेल था, यहाँ से संस्कृति को पुरस्कारों के जरिये ख़त्म कर देने का. और वह इसमें सफल भी रहे. अब हर रोज कहीं न कहीं गली-सुंदरी, मोहल्ला-सुंदरी, और पार्टी-सुंदरी के ताज मिलते रहते हैं.

स्त्री की सुन्दरता के दृष्टिकोण को बदल दिया गया. अब 'न्यूनतम वस्त्र, अधिकतम आधुनिक सुन्दरता' के द्योतक बना दिए गए. चलचित्रों (फिल्मों) का कैमरा अब अभिनेत्री की 'कजरारी आँखों' से उतर कर, उसकी 'बलखाती कमर' पर टिक चुका है. अब अभिनेता-अभिनेत्री की मुलाकात किसी बगीचे में, पेडों की ओट में नहीं, बल्कि समंदर किनारे किसी 'बीच-पार्टी' में होती है. जहाँ स्विमसूट में अभिनेत्री का एक दृश्य आवश्यक हो गया है.

दुर्भाग्य से स्त्री इसे ही अपनी स्वतंत्रता और सशक्तता का पैमाना मानने लगी है.

समय रहते स्त्री को इस अवधारणा से बाहर निकल कर अपनी सर्वोच्चता और पूर्णता की प्राप्ति के लिए प्रयास शुरू करना होगा. जिस दिन हर स्त्री अपनी पूर्णता को स्वीकार कर अपूर्ण पुरुष की समानता के भ्रमजाल से बाहर आ जायेगी, वह पूर्ण स्वतंत्र और सशक्त हो उठेगी. तब कोई दुसाशन ना चीर हरण का प्रयास करेगा, ना ही कृष्ण को चीर बचाने की चिंता होगी......

आखिर कृष्ण के लिए और भी तो काम हैं....

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.


सोचता हूँ क्या लिखूं, कोई बात बाकी नहीं.
यादों के झरोखों में, कोई हालात बाकी नहीं.

मौत की शुरुआत लिखूं,
या जिंदगी का अंत.....
खुशनुमा पतझर लिखूं
या उजड़ा हुआ बसंत....
बहार के कांटे लिखूं.....
या पतझर के फूल.........
झूठ का आईना लिखूं
या चेहरे की धूल........
इतने दर्द झेल लिए हैं, मेरी कलम ने
अब इसके खून में, कोई जज्बात बाक़ी नहीं.
सोचता हूँ क्या लिखूं..................................

दिल का वही दर्द लिखूं
या बेदर्द दुनिया.....
बेगरज आंसू लिखूं
या खुदगर्ज दुनिया.......
वक़्त के थप्पड़ लिखूं
या गाल अपने...........
मायूस आँखें लिखूं
या हलाल सपने........
कैसे करूँ जिंदगी में सवेरे का इंतजार...
अब तो जिंदगी में कोई रात बाकी नहीं...
सोचता हूँ क्या लिखूं.............................

ख्वाबों की दास्ताँ लिखूं,
या कत्ल सपनों के .....
गैरों के हमले लिखूं, या
कातिल शक्ल अपनों के
भीड़ का मातम लिखूं या
खामोशियों का शोर......
मरहमों के जख्म लिखूं
या जख्मों के चोर........
जख्म के फूल भी कैसे खिले चेहरे पर.....
आंसुओं की भी कोई बरसात बाकी नहीं...
सोचता हूँ क्या लिखूं................................

बुझता हुआ चिराग लिखूं
या आंधी का हौसला.....
गुजरती हुई साँसे लिखूं,
या मौत का फैसला.......
खुशियों का जनाजा लिखूं
या ग़मों की बारात...........
सोचता हूँ आज, मैं
लिखूं कौन सी बात........
'संघर्ष' कब्र में कैसी शहनाई की तमन्ना..
अब तो मौत की भी बारात बाकी नहीं.....
सोचता हूँ क्या लिखूं...............................

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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गर्म तपती दोपहर है,
लड़कियों की जिंदगी,
महज पथरीली डगर है,
लड़कियों की जिंदगी.
हर घडी हर पल सताए,
पत्थरों का डर जिसे,
वो चमकता कांचघर है,
लड़कियों की जिंदगी.
रास्तों का है पता, न
मंजिलों की है खबर,
एक अनजाना सफर है,
लड़कियों की जिंदगी.
है बड़ा बेताब पढ़ने
को, जिसे सारा जहाँ,
आज की ताज़ा खबर है,
लड़कियों की जिंदगी.

जी, यह कोई भावावेश में किसी स्त्री-चिन्तक के मन से निकली हुई पंक्तियाँ नहीं हैं, यह विकृत सत्य है, इस समाज का. समाज में आज तक भी यही स्थिति है स्त्री की. स्त्री सशक्तता की तमाम ऊंची-ऊंची बातों के पीछे का सच ऐसा ही विकृत है.

स्त्री सशक्तता के बहाने भी तो स्त्री देह ही चर्चा का विषय है. आज समानता के नाम और छल के पीछे जिस तरह से स्त्री के शील का हरण किया जा रहा है, वह क्या है?

इन्द्र अगर अहिल्या के पास छल से जाकर उसका शीलभंग करने का अपराधी है, तब फिर यह भी एक प्रश्न है, कि अहिल्या को ही भ्रमित करके इन्द्र के पास छले जाने के लिए भेज देने में, क्या किसी का दोष नहीं? और तब क्या अहिल्या का शील-भंग नहीं हो रहा? चाहे इन्द्र, अहिल्या के पास जाए या अहिल्या, इन्द्र के पास....छली तो अहिल्या ही जाती है....!!

आज आधुनिकता और समानता के नाम पर अहिल्या को स्वयं ही छले जाने का आभास नहीं रहा, और शायद इसी का परिणाम है, कि अब हर अहिल्या पत्थर ही होती जा रही है. स्त्री के पत्थर होते जाने का इससे बड़ा कोई प्रमाण नहीं है, जो कि आये दिन समाचार पत्रों और समाचार चैनलों की ताज़ा खबर के माध्यम से जानने को मिल रहा है. आज देह-व्यापार का सञ्चालन करने वाली संचालिका भी तो पत्थर हो चुकी स्त्री ही है...

और समाज का दुर्भाग्य है, कि अब कोई राम अहिल्या को तारने नहीं आने वाले, क्योंकि अब अहिल्या को ही अपने छले जाने का भान नहीं रहा...या यह भी कहा जा सकता है, कि शायद उसे अपने छले जाने का कोई पश्चाताप नहीं रहा.

आज स्त्री यदि ताज़ा खबर बन गयी है, तो इसमें कहीं न कहीं उसका स्वयं का भी योगदान है. उसने स्वयं ही अपने जीवन को एक अनजाने सफ़र में तब्दील कर लिया है.

स्त्री को यह सत्य अपने जीवन में स्वीकारना होगा कि 'स्त्री होना ही पूर्णता है'.
'पूर्ण' की समानता मात्र 'पूर्ण' से ही हो सकती है, उसे किसी अन्य से समानता की आवश्यकता नहीं होती.......
और यदि यह प्रयास किया जाए, तो वह उस 'पूर्ण सत्य' की महत्ता को कम करने जैसा ही होगा.

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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संघ का राजनीतिक ब्रह्मचर्य...??

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 8/29/2009 04:36:00 pm 4 comments


भारत ब्रह्मचारियों का देश रहा है. ब्रह्मचर्य की एक से एक कथा यहाँ प्रचलित है. स्त्री-सम्बन्ध, भारतीय ब्रह्मचर्य के समक्ष बड़ी चुनौती के रूप में आती रही है.

ब्रह्मचर्य की आड़ में स्त्री-समागम और संततियों की अनेकों कथाएँ भी मौजूद हैं. अकेले मेनका, विश्वामित्र की वर्षों की साधना को ध्वस्त करने में सक्षम थी. कामिनी से हम लगातार भयभीत होते रहे हैं. कामिनी से बचने और अपने ब्रह्मचर्य को बचाने का उपाय खोजना जरूरी था. हनुमान सबसे बेहतर उदहारण थे. हनुमान हमारे सुरक्षा-कवच बने. अपने-अपने मकसद के अनुसार हमने भगवानों का लिस्ट छांटा. पर, ब्रह्मचारियों के रोल-मॉडल तो हनुमान ही बने.

आप जानते होंगे कि इस ब्रह्मचारी हनुमान को एक बेटा भी था, जिसको बहुत कम भक्त जानते हैं, वह है मकरध्वज....
मकरध्वज को हनुमान जैसा ब्रह्मचारी बाप मिला. हनुमान ने भी कभी इसे छिपाने का प्रयास नहीं किया. ना ही कभी संबंधों को लेकर कबड्डी खेली. मकरध्वज जायज औलाद है कि नाजायज, कभी भी इसके लिए हनुमान को स्पष्टीकरण नहीं देना पड़ा. लोगों ने कभी इसे डिबेट नहीं बनाया.

आज बजरंगबली तो चर्चा में नहीं हैं, पर, हमारे बजरंगी भाई चर्चा में अवश्य हैं.
संघ प्रमुख मोहन जी भगवत, भाजपा से रिश्ते को लेकर परेशान हैं. परेशानी समझ में नहीं आती, कि भाजपा इतनी भी बदसूरत पार्टी नहीं है, जिसे रिश्तेदार कहने में शर्म आवे. हाँ, झारखंडी पार्टी होती तो भागवत भाइयों को बैठने में ख़राब भी लगता, पर यहाँ तो सभी खाए-पिए-अघाए लोग हैं. लाल टुह-टुह गाल और धवल वस्त्र, फिर भी...
...देशभक्त भाजपा बोलती भी है जबरदस्त...?

स्थापना से लेकर आज तक सभी संगठन मंत्री तो संघ से भेजे गए. तपोनिष्ठ दीनदयाल उपाध्याय, वाजपेयी, मोदी, आडवाणी सभी के सभी तो संघ के प्रचारक ही रहे हैं. भाजपा आज वह अंगुलिमाल डाकू बन गयी है, जिसके पाप का भागी बनने के लिए कोई तैयार नहीं है. सत्ता और संसाधन-सुख जुटाए भाजपा और भोगे संघी और वक़्त आये तो इज्जत ख़राब कर दो.......ई भाई कहाँ का इंसाफ है?

पार्टी जिस घोडे पर सवार है, उसका लगाम उसके हाथ में कभी होता ही नहीं. आज जो नेता भाजपा विरोध में हैं, उन्हें पहले ही पता था, कि लगाम उनके हाथ में नहीं होगा, फिर लगाम लपकने की हसरत क्यों? हसरत दिखाओगे तो भोगोगे..

देश बेवकूफ नहीं रह गया है. देश अब राजनीति की परिभाषा जानता है. संघ संपूर्णतः एक राजनीतिक संगठन है. सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री नहीं हैं, तो क्या प्रधानमंत्री से कम रसूख है उनका?

घी दाल में कहीं भी गिरे, परिणाम में क्या अंतर आएगा? संघ की बहिन जी हैं, राष्ट्र सेविका समिति, भांजी हैं दुर्गावाहिनी, लाडला है विद्यार्थी परिषद्, कुल-पुरोहित है विहिप. कोई सदस्य किसानी में है, तो कोई मजदूरी में. जरूरत के हिसाब से एक परिवार को जितनी सुविधा चाहिए, उतनी सुविधा के लिए अलग-अलग प्रकल्प संघ ने खडा किया.

एक दम खांटी स्वदेशी......... बाहर से आउटसोर्सिंग की जरूरत ही नहीं. सारी वेरायटी घर में ही. यहाँ तक कि 'नकली विरोधी' भी इन्होने खडा कर लिया है. दूसरा कोई गाली-गलौज करे, परिवार की प्रतिष्ठा दांव पर लगे, इससे बेहतर हैं कि अपने लोग ही गाली दें. गोविन्दाचार्य जैसा छुट्टा सांड, संघ का ही छोडा हुआ है. खूब गालियाँ रटवाई गयी इन्हें.......

हाँ, गाँव में एक नया शब्द विकसित हुआ है, वह है 'बुलौकिया'. गिरमिटिया नहीं बुलौकिया..... यह बुलौकिया 'Block' यानि प्रखंड से बना है. बड़े परिवार में एक सदस्य नेतागिरी में अवश्य ही रहता है. परिवार का यह सदस्य राजनीतिक सुविधा से फंड, राशन, खाद-बीज, सब्सिडी आदि जमा करता है. इसकी दलाली से परिवार को बहुत फायदा होता है. राजनीतिक सम्बन्ध के बिना आज परिवार जिन्दा ही नहीं रह सकता. हर कोई दबोचने का प्रयास करता है.

खैर, मैं संघ परिवार की बात कर रहा था. इस परिवार ने भी भाजपा के रूप में अपना बुलौकिया बनाया.
भाई ई त अच्छी बात बा.... इनमे कौन बुराई बा..? भाजपा तोहार औलाद बा.... काहे गरियावत बानी भागवत जी ? रउरा गुड खाई तो गुलगुला से परहेज काहे...............

संघ की स्वदेशी पढ़ते-पढ़ते मैं भी कभी-कभी देसज हो जाता हूँ. राजनीति पवित्र है, मौलिक है. देश, समाज और जन-गण-मन इस राजनीति से प्रभावित होता है. जिस देश को भागवत जी खडा करना चाहते हैं, वह राजनीति के बिना कैसे संभव है? राजनीति तो गाँधी, पटेल, सुभाष ने भी किया था. क्या ये लोग गलत थे? चुनावी राजनीति हो या सांस्कृतिक राजनीति चरित्र सबका एक ही होता है. इस स्थिति में राजनीतिक ब्रह्मचर्य एक पाखण्ड ही होगा.

-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा : एक अभियान

Posted by अमिताभ भूषण"अनहद" On 8/28/2009 07:46:00 pm 1 comments


जंगल से निकली थी सांप के भय से, गाँव-शहर में आई तो आदमी ने डंस लिया...

यह दशा है, व्यथा है, गौमाता, गौवंश की. उस वंश परंपरा की, जिसका सीधा सम्बन्ध भारत के स्वास्थ्य, समृद्धि, स्वावलंबन और जीवन से रहा है. सहस्त्राब्दियों से भारतीय समाज में पूज्य रहे, पालक-पोषक रहे गौवंश का संरक्षण व संवर्धन समय की दरकार है. तकनीक तथा मशीन के अंध प्रयोग, नक़ल की होड़ में जुटे समाज को गौवंश के निरादर का गंभीर परिणाम भुगतना होगा. गाँव, खेत, किसान की पहचान से गौवंश की दूरी भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हैं.

अभी कुछ वर्ष पहले तक ग्राम्य जीवन में गाय, बैल संपन्नता के प्रतीक थे. घर के बाहर खूंटे से बंधी गायों, बैलों की जोड़ी गृहस्वामी के प्रतिष्ठा का आधार होती थी. गाँव का गरीब से गरीब आदमी गौसेवा, गौपालन के लिए लालायित होता था. सामर्थ्यवान व्यक्ति से गाय अथवा बछडा और बैल सशर्त लेकर गौवंश से अपने दरवाजे की शोभा बढाता था. समय के साथ बदलते समृद्धि, उन्नति के मापदंड ने दरवाजे पर गडे खूंटे और हौदी(नादी) को सूना कर दिया है. ट्रैक्टर और थ्रेशर सरीखे मशीन अब ग्राम्य जीवन की संपन्नता के नए प्रतीक हैं. सोयाबीन के दूध में प्रोटीन ढूँढने वाला समाज, निरोग काया के लिए अब भी गाय के दूध को अमृत मानता है. गोमूत्र के औषधीय उपयोग और गोबर के धार्मिक, खेतिहर प्रयोग आज भी भारत में निर्विकल्प हैं. बावजूद, देश में गौवंश के प्रति विमुखता अपने चरम पर है.

दो बैलों की कहानी तथा लाला दाउदयाल का गऊप्रेम अब इतिहास कथा होने को है. क्या हम नयी पीढी को दो बैलों की कहानी के स्थान पर 'दो ट्रैक्टर की कहानी' पढाना चाहते हैं? या लाला दाउदयाल के गऊप्रेम की जगह किसी सभ्य भारतीय का कुत्ता-बिल्ली प्रेम आदर्श के तौर पर पढाना चाहते हैं?

शायद इन तमाम प्रश्नों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गंभीरता से सोचा है. रचनात्मक कार्यों के प्रति अपनी सांगठनिक प्रतिबद्धता को, संघ अपने गो संरक्षण-संवर्द्धन अभियान के जरिये दुहराने को तैयार है. २९ जून २००९ को भोपाल के शारदा विहार परिसर में संघ ने देश भर से आये डेढ़ सौ से अधिक कार्यकर्ताओं के बीच इस अभियान को लेकर विमर्श किया. तीन दिन तक चले विमर्श से 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' के सम्पूर्ण स्वरुप का निर्धारण हुआ. अपने स्थापना दिवस अर्थात विजयादशमी के दिन 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' का शंखनाद कुरुक्षेत्र की भूमि से करने का संघ ने निश्चय किया है. एक सौ आठ दिनों तक चलने वाली इस यात्रा में २०००० किलोमीटर की दूरी तय की जायेगी.

माना जाता है, कि अयोध्या आन्दोलन के बाद एक बार फिर 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' के जरिये संघ समाज में अपने पकड़ और प्रभाव का परिचय देगा. चार प्रमुख रथों से निकलने वाली इस यात्रा का उद्देश्य गौवंश के प्रति समाज में कर्तव्यबोध उत्पन्न करना तथा गाँव, पर्यावरण, संस्कृति के लिए चेतना जागृत करनाहै.

संघ के सारथी इस यात्रा में समाज के सभी पंथ, धर्मं, जाति को जोड़ने का प्रयास करेंगे. इस यात्रा का परिणाम क्या होगा, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा. फ़िलहाल इतना तय है कि गौवंश के रक्षार्थ निकलने वाली यह यात्रा संघ की ही नहीं, अपितु समय की भी यात्रा है.

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-Amitabh Bhushan 'Anhad'

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लीजिये, जनकल्याणार्थ प्रधानमंत्री महोदय का एक और बयान आ गया है. लगता है कि देश में उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से परेशान हैं प्रधानमंत्री!

होना भी चाहिए, क्योंकि दूसरी बार सत्ता जो मिली है. जन भरोसा का सर्टिफिकेट मिला है; सो जन यानि आम जन की याद उन्हें फिर सता रही है. उन्होंने पिछले दिनों आह्वान किया था कि सीबीआई आमजनता की इस धारणा को समाप्त करे कि बड़ी मछलियाँ सजा से बच जाती हैं. इससे भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है , सुरसा के मुख की तरह. लिहाजा न केवल दुनिया में भारतीयों की छवि धूमिल हो रही है, बल्कि इसके कारण गरीबों को सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. मनमोहन सिंह ने साफतौर पर यह कहा है, कि लोग यह मानते हैं कि हमारे देश में सिर्फ कमजोर लोगों के खिलाफ ही तुंरत कार्रवाई होती है, उच्च पदों पर बैठे और सबल लोग बच जाते हैं. उन्होंने उम्मीद जतायी कि इस धारणा और हालात को बदलने के लिए सम्बंधित एजेसियों को उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से आक्रामकता के साथ निपटना चाहिए. प्रधानमंत्री के मुताबिक, दुनिया हमारे लोकतंत्र का सम्मान करती है, पर यहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार हमारी छवि को धूमिल करता है. इससे निवेशक हतोत्साहित होते हैं, क्योंकि वे सौदों में पारदर्शिता चाहते हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि देश का विकास हो रहा है और हम वैश्विक अर्थव्यवस्था में शामिल हो रहे हैं, पर भ्रष्टाचार के कारण सर्वश्रेष्ठ प्रौद्योगिकी संसाधन हासिल नहीं हो पा रहे हैं. उन्होंने फिर दुहराया कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा और ज्यादा खामियाजा गरीबों को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि उनके लिए शुरू की गयी योजनायें भ्रष्टाचार में ही ख़त्म हो जाती हैं, और वे उनके लाभ से वंचित रह जाते हैं.

प्रधानमंत्री को यह याद दिलाना जरूरी है, कि दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी अपने समय में ऐसी चिंता व्यक्त कर चुके हैं. उन्होंने तो आंकडे भी दिए थे. वर्तमान पार्टी महासचिव राहुल गाँधी भी इस बात को कई बार कह चुके हैं.
समस्या बीस पैसा, दस पैसा पहुँचने का नहीं, बल्कि जो मातहत ठेकेदार या सरकारी, गैर सरकारी एजेंसियां क्रमबद्ध रूप से ८०-८५ पैसा खा रही हैं, उनके विरुद्ध अब तक क्या कार्रवाई हुई, पीएमओ को इस पर श्वेतपत्र लाना चाहिए.

प्रधानमंत्री को याद दिलाना होगा कि देश में मौजूदा नौकरशाही और उसकी विभिन्न लाबियों, समाज में सक्रिय दबाव समूहों, अर्थजगत में छाई विभिन्न लाबियों को जनोन्मुखी बनाने, तथा इसमें बाधक व्यक्तियों को न्यायिक जांच के दायरे में लाने में, और समय रहते देश में प्रचलित ठेकेदारी की व्यवस्था की भी समीक्षा करने में, यदि वे विफल रहते हैं, तो फिर यही समझा जायेगा कि मतदाताओं ने दलित व पिछड़ी मानसिकता से बाहर निकलकर कांग्रेस को जो जनाधार दिया है, उसका मकसद अधूरा रह गया.

राजनीतिक इतिहास फिर अपने आप को दुहराए, तो देश में सबसे लम्बे समय तक राज करने वाली कांग्रेस को हतप्रभ नहीं होना चाहिए. सवाल देश की आर्थिक सेहत का तो है ही, आम जनता के आर्थिक सेहत की उपेक्षा भी घातक हो सकती है.....

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-Kamlesh pande, Spl. Correspondent, Swaraj T.V.

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दुनिया बीमार हो गयी है. धीरे-धीरे यह एक अस्पताल में तब्दील हो रही है. हर कोई बीमार और लाचार नज़र आ रहा है.
'रोपे पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय....!!'

मौजूदा संसार हमारे ही अतीत के चिंतन का परिणाम मात्र है.
सृष्टि की इस अनमोल दुनिया को हमने अपनी असीम भोग की कामना के चलते बर्बाद एवं बदरंग कर दिया है.
पश्चिम के विचारकों ने कहा कि मनुष्य 'वासनाओं का एक पुंज है'. वासना की पूर्ति ही जीवन का लक्ष्य है. इस अवधारणा ने बेलगाम भोग को जन्म दिया. जंगल उजड़ गए,पहाड़ टूट गए. नदियाँ विषैली ही नहीं, सूख भी गयी. धरती बंजर हो गयी. दर्द एक हो, तब तो कहें, यहाँ तो चारों ओर विनाशलीला..........

जीवन की तमाम जरूरी चीजें अर्थहीन हो गयी हैं. आज हम जहरीली दुनिया में जीने को अभिशप्त हैं.
आज 'स्वाइन-फ्लू' से हड़कंप मचा है. कल 'बर्ड-फ्लू' का हौव्वा था. क्या मुर्गी और निरीह सूअर ही जिम्मेदार हैं इसके लिए?

दरअसल यह 'मानव-फ्लू' है. मनुष्य ही जिम्मेदार है इसके फैलाव के लिए.
१९१८ में फ्लू ने एक लाख लोगों की जान ली. १९५७ में चार लाख मौतें हुई. १९६८ में हांगकांग फ्लू ने सात लाख लोगों की जान ले ली. मौसमी बुखार से प्रतिवर्ष ३६००० की मौत केवल भारत में होती है.

अमेरिका में 'स्पिथफिल्ड फ़ूड कारपोरेशन' एक साल में १० लाख सूअर को काटता है. आज दुनिया की सबसे बड़ी मांस विक्रेता कम्पनी यही है. १० लाख सूअरों को जिस तरह रखा जाता है, वह भयानक बीमारी का कारण है. 'बर्ड-फ्लू' का भी यही कारण था, कि छोटी सी खोली में मुर्गियों को ठूंसकर रखा जाता है. स्वाभाविक जीवन नहीं जीने के कारण इससे वायरस का जन्म होता है, जो मनुष्य तक पहुँच जाता है.

मामला केवल सूअर और मुर्गी का ही नहीं है. सवाल है मनुष्य की लगातार कम होती जा रही प्रतिरोधी शक्तियों का.
मनुष्य जिस भयानक माहौल में जी रहा है, वह जानलेवा है. जहरीली हवा और पानी के साथ-साथ जहरीला भोजन भी अब प्रभाव दिखाने लग गया है.

भारत के खेतों में बोए जाने वाले बीज के बारे में आप जान लें. आज भारत के बीज बाज़ार पर 'मोनसेंटो' कम्पनी का एकाधिकार हो चुका है. यह वही 'मोनसेंटो' कम्पनी है, जो जहर बनाती है. पोटाशियम सायनाइड भी यहीं बनता है. इस कम्पनी ने जो बीज, बाज़ार में उतारा है, वह है 'जेनेटिक मोडिफाइड (जी.एम्.) सीड'. इस बीज में भी सूअर का जीन मिला है. इस बीज से उगी फसल जानलेवा है. कैंसर जैसी घातक बिमारियों का होना निश्चित है. शरीर की प्रतिरोधी शक्तियां भी क्षीण हो जाती हैं. इस बीज के पौधे का पराग, झड़कर जमीन को भी बंजर बनाता है. लगभग खाद्य सामग्री पर इसका प्रभाव है.

भारतीय समाज लाखों वर्षों से खेती से जुड़ा हुआ है. आज तक इन्होने जल, जमीन और वायु को प्रदूषण से बचाए रखा. हम जब पीपल की पूजा करते थे, गंगा और गाय को माँ कहकर पूजते थे, तो दुनिया हमारा मजाक उड़ाती थी, 'बैकवर्ड कंट्री' कहकर.

आज दुनिया उजाड़ की ओर बढ़ रही है, तो भारत की याद आ रही है. जैविक खेती, जैविक खाद, जैव उत्पाद, भू-संरक्षण, गोधन की रक्षा, वन और जल संरक्षण के लिए दुनिया भारत की ओर लौट रही है. विश्व के चिन्तक मानने लगे हैं, कि यह कथित विकास प्रकृति विरोधी है.

मानवी सभ्यता को अगर बचना है, तो भारतीय जीवन पद्धति और भारतीय मूल्यों की ओर लौटना ही होगा.
दुनिया आज मजबूर हो रही है, ' त्येन त्यक्तेन भुंजीथा:' का मन्त्र-जाप करने के लिए....

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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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प्रख्यात चिन्तक बेकन का मत है, कि 'इतिहास मनुष्य को बुद्धिमान बनाता है.'

इतिहास का छात्र होने के नाते मैं भी इससे सहमत हूँ. जिस प्रकार प्रकृति में अमृत (गाय) और विष (सांप) दोनों निहित हैं, एवं उसकी मात्रात्मक गडबडी अपने गुणों के विपरीत अवगुण में बदल जाती है. यानि कि अधिक घी का सेवन जानलेवा साबित होता है, और विष की उचित मात्रा औषधि में परिवर्तित होकर कई जीवन बचा लेती है.

कहने का तात्पर्य यही है, कि जैसे सागर-मंथन से निकले अमृत-विष की मात्रात्मक गडबडियां तुंरत विरोधाभाषी गुण में परिवर्तित हो जाती हैं; उसी प्रकार व्यक्तित्व के 'इतिहास सागर' में जब भी 'विवेक की मथानी' चलायी जाए, तो इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि जिन्हें हम महापुरुष कहते हैं और उनकी पूजा करने को आतुर रहते हैं तथा जिन्हें हम खलनायक मानकर सर्वत्र निंदा का पात्र बना देते हैं, के बारे में भारतीय/वैश्विक बुद्धिजीवियों को अतिप्रशंसा और अतिनिन्दा की प्रवृति से बचना चाहिए. क्योंकि कुछ भी पूर्ण सत्य नहीं होता.

जयचंद एक ऐतिहासिक पात्र है. तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में उसने खलनायक की भूमिका निभाई और विदेशी आक्रान्ताओं से मिल गया, जिससे भारतीयता कमजोर हुई. हम गुलाम हुए, और वह अब तक निंदा का पात्र है.

वस्तुतः, जयचंद कोई पात्र नहीं, अपितु एक प्रवृत्ति है. यह प्रवृत्ति देश के अन्दर भी हाथ मिलाती है और देश के बाहर भी. हम सबको जयचंद के बारे में यह समझना चाहिए कि वह सत्ता प्रतिष्ठान के अधिक करीब था, इसीलिए उसने राजा के साथ विश्वासघात किया. क्या ब्रिटिश कालीन भारत में या आजादी के बाद के भारत में यह प्रवृत्ति नष्ट हो गयी?
कदापि नहीं..

केंद्रीय राजनीति हो, सूबाई राजनीति हो या त्रिस्तरीय पंचायती राज वाली राजनीति, क्रमशः प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और जिला परिषद् अध्यक्ष-प्रखंड प्रमुख-मुखिया जी से पूछें कि जहाँ दलगत सत्ता है, वहां पार्टी को आधार बनाकर और जहाँ दलगत सत्ता नहीं है, वहां व्यक्ति को आधार बनाकर कितनी बार तख्ता-पलट की सफल या विफल कोशिश हुई है...

क्या हम लोग इन देशी जयचंदों को माफ़ कर पाएंगे; क्योंकि हालिया 'जिन्ना-जसवंत' प्रकरण से तो यही लगता है कि हमने इन्हें माफ़ करना भी सीख लिया है.
जयचंद की ही अगली कड़ी विभीषण है. सिर्फ अर्थ की गंभीरता दोनों को अलग करती है...

क्रमशः...
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-Kamlesh Pande, Spl. Correspondent, Swaraj T.V.

(तस्वीर गूगल इमेज सर्च से साभार)

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मैं देखता था ये ख्वाब.......

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 8/27/2009 05:00:00 pm 1 comments


मैं देखता था ये ख्वाब,
इस आजकल से पहले,
अपनी जिंदगी में तेरी,
इस हलचल से पहले.

ये ख्वाब, कि कोई
इतना भी हंसी होगा,
खुशियों का भी कोई
तो हमनशीं होगा..

आँखें कोई तो होंगी,
मुझे पढ़ने में कामयाब,
सितारों की इस जमीं
पर वो होगा माहताब.

कोई तो होंठ मेरी
भी आवाज बनेंगे,
जिसके मुस्कुराने से
नए साज बनेंगे..

कोई तो दिल धड़केगा,
मेरे दिल की तरह से.
कोई तो होगा मेरी राह
में, मंजिल की तरह से..

कोई तो मेरे जैसे
जज्बात लिए होगा,
कोई तो मेरे जैसी
हर बात लिए होगा.

अब सच हुआ ये ख्वाब मेरा,
खिल गया दिल गुलाब मेरा.

मिल गयी मुझको ख़ुशी
एक ख़ुशी के रूप में.
बादलों के छाँव जैसी
इस दहकती धूप में,

'संघर्ष' ने जब ख़ुशी
पाई, ख़ुशी से रो पड़ा..
जिंदगी जैसे मिली हो
मौत के जंगल से पहले..



दिग्विजय सिंह ने कभी इन नेताओं को वह सम्मान नहीं दिया, जो कि लालू को रघुवंश प्रसाद सिंह, नीतीश को राजीव रंजन-प्रभुनाथ सिंह, रामविलास को सूरज सिंह-रामा सिंह, मायावती को सतीश चन्द्र मिश्र आदि देकर सत्ता सुख भोगते रहे और तथाकथित सवर्ण हितों की उपेक्षा कर, अपनी व्यक्तिगत और दलगत राजनीति को चमकाते रहे. लिहाजा सवर्ण समाजवादी जमात अब दिग्विजय के लोकमोर्चा में अपना भविष्य देखने लगे हैं.

इतिहास साक्षी है कि १९७७ में जनता पार्टी; १९८९ में जनता दल और १९९६-१९९८-१९९९ में भाजपा को तथा २००४
और २००९ में कांग्रेस को सवर्णों ने जमकर वोट दिया, लेकिन किसी भी दल को गरीब सवर्ण के हितों का ख्याल नहीं आया. सच तो यह है कि नीतीश सरकार के द्वारा त्रिस्तरीय पंचायत में आरक्षण आदि से भी सवर्ण जनमानस नाराज है. भले ही हाल के लोकसभा चुनाव में जनता ने लालू-पासवान को सत्ता में आने से रोकने के लिए, तथाकथित सुशासन यानि कि 'अफसरशाही शासन' के नाम पर राजग की झोली में काफी सीटें डाल दीं. लेकिन प्रभुनाथ की हार और दिग्विजय की जीत के गहरे निहितार्थ हैं और इसी से दिग्विजय का हौसला बुलंद है.

लोकमोर्चा के बहाने वे फिर से अपनी वही औकात पाना चाहते हैं, जो राजग सरकार में रहते हुए पूर्व उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत के सानिध्य में थी. यह सही है कि २००४ के बाद से दोनों बार केंद्र में कांग्रेस नित सरकार बनी, इससे दिग्विजय की राह थोडी आसन हो गयी. यदि २००९ में केंद्र में राजग सरकार बनती तो नीतीश के हाथ मजबूत हो जाते. संभवतः अपने धुर विरोधी और लोकसभा चुनाव में जदयू प्रत्याशी से पराजित 'शातिर समाजवादी नेता' जॉर्ज फर्नांडिस को बतौर जदयू प्रत्याशी राज्यसभा में भेजकर नीतीश ने दिग्विजय को ही कमजोर करने का पासा फेंका था, जिसका जवाब दिग्विजय ने लोकमोर्चा का गठन करके दिया है. यही नहीं सांसद इंदर सिंह नामधारी, वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी, समाजसेवी विजय प्रताप, पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी, प्रख्यात चिन्तक शिवखेडा, मशहूर गायक अनूप जलोटा आदि की उपस्थिति से जाहिर होता है कि 'बांका विजय' के गहरे निहितार्थ हैं.

इन सबों की उपस्थिति में जिस लोकतान्त्रिक समाजवाद की उन्होंने वकालत की है तथा जिस तरह से जातिवादी, धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय ताकतों से समान दूरी बनाये रखने की प्रतिबद्धता जताई है, यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता को दर्शाता है. यही नहीं मौजूदा आर्थिक नीतियों और विदेश नीति में अमेरिका के पिछलग्गू बनने के रुझान के खिलाफ जो संघर्ष करने का ऐलान किया है, उससे साफ़ जाहिर है कि उनके निशाने पर 'पटना की सल्तनत' के साथ-साथ दिल्ली की सल्तनत भी है. क्योंकि प्रख्यात समाजवादी नेता, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और मंडल मसीहा पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के निधन तथा भाजपा द्वारा पूर्व उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत को साइड करने एवं पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह को पार्टी से हटाने तथा कांग्रेस द्वारा पूर्व मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह को साइड करने की परिस्थितियां, उससे उन्होंने केंद्रीय राजनीति में अपने लिए एक माकूल अवसर भांप लिया है. वह यह भी समझते हैं कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की वर्तमान चलती, हमेशा नहीं रहेगी. ऐसे में सत्ता के शागिर्दों पर अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले दिग्विजय सिंह, जो 'राजनीतिक जुगाड़वाद' के स्रोत भी माने जाते हैं, का लोकमोर्चा क्या गुल खिलायेगा, प्रतीक्षा करना दिलचस्प होगा..........

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रेडियो-दूरदर्शन पर 'हरियाणा नंबर वन' का धुआंधार प्रचार जारी है. देखते-सुनते आजिज हो गया हूँ. विकास की जो तस्वीर पेश की जा रही है, वह बहुत ही फूहड़ और खोखली प्रतीत होती है.

भाजपा का अपना अन्तर्विरोध है, नाकारापन है, पर कांग्रेस भारत के मौजूदा चीखते सवालों से बचकर भाग नहीं सकती. अपने सौ दिनों के ही शासन काल में देश की जो दुर्गति की है, वह कहने और गिनाने की जरूरत नहीं है.

महंगाई, पार्टी पूछकर घर नहीं घुसती...चाहे कांग्रेसी हों या भाजपाई, हर का जीवन जंजाल बन गया है. महंगाई स्थायी मुसीबत के रूप में स्थापित हो चुकी है. सूखे की मार अलग है. देश महामारी को झेलने को विवश है..
झूठ को हज़ार बार दुहराओ कि वह सत्य बन जाए. क्या हरियाणा भारत राष्ट्र से अलग है? क्या हरियाणा की भूमि अचानक उर्वरा हो गयी है? क्या हरियाणा के भूजल स्तर में सुधार आ गया है? उत्पाद, बाज़ार और विपणन पर क्या हरियाणा के किसानो का अधिकार हो गया है? खेती योग्य जमीन से क्या किसानो की बेदखली रुक गयी है?

हरियाणा भ्रूण-हत्या के मामले में 'नंबर वन' रहा है. क्या यह छवि सुधर गयी है? जातीय समरसता जार-जार नहीं हुई है, क्या हरियाणा में? झज्जर की तालिबानी पंचायतो का क्या फैलाव नहीं हुआ है?

दरअसल मनमोहन सिंह के सिपाही जिस विकास की बात कर रहे हैं, उस विकास की पोल खुल चुकी है.'हरियाणा नंबर वन' जिस विकास की कसौटी पर 'नंबर वन' बना है, उसकी परिणति देश देख रहा है.
किसानों के हाथ से बीज छिन गए, बाज़ार निकल गया. खाद ख़त्म हो गए. कृषि के तमाम साधन आज बाज़ार के हवाले हो चुके हैं. खेती बाज़ार का नहीं, आजीविका का साधन है.

हरियाणा में भूमि का कम्पनीकरण किया गया. बड़े पैमाने पर किसानों की भूमि छीनी गई. उपजाऊ भूमि पर मॉल बन रहे हैं या फैक्ट्रियां खुल रही हैं. ऊंची अट्टालिका हरियाणा की बर्बादी को बयां कर रही हैं. सड़क, बिजली और पीने के पानी को पूरे सामाजिक जीवन से अलग कर विकास के लक्ष्य के रूप में विकसित किया गया.
हरियाणा का जो विज्ञापन टी.वी. और रेडियो पर चल रहा है, उसका सम्बन्ध केवल हरियाणा से नहीं है. उसे पूरा देश देख रहा है. अरबों रुपया खर्च करके कांग्रेस देश को क्या दिखाना चाहती है, कि वह तीस मारखां है...

'हरियाणा नंबर वन' बना सकते हैं, तो देश को भी नंबर वन बना सकते हैं. कांग्रेस लाज बचा रही है. महंगाई का जवाब नहीं है कांग्रेस के पास.

कांग्रेस मायावती को घेरती है कि वह मूर्ति क्यों बनावती फिर रही हैं? कांग्रेस बताये कि वह देश का पैसा क्यों पानी की तरह बहा रही है?
देश की दारुण स्थिति को देखते हुए, कांग्रेस को तुंरत इस प्रकार की फिजूलखर्ची पर रोक लगाना चाहिए. हरियाणा में विकास के नाम पर हुए विनाश की चर्चा जारी रहेगी.......

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ऐसा पहली बार हुआ है, नम्बर वन हरियाणा। क्या वाकई हरियाणा देश के अन्य राज्यों के मुकाबले नम्बर वन का खिताब जीत चुका है? यह खिताब किसकी तरफ से और किस तरह से दिया गया है? राष्ट्रीय स्तर की संस्था द्वारा, सरकार द्वारा, खुद कांग्रेस द्वारा या फिर इसे पैसे से खरीदा गया है। इस तरह से कई सवाल कौंध रहे है, लोगों के मन में। अब तक तो हमने सुना था कि गुजरात अन्य राज्यों के मुकाबले में ज्यादा विकसित, प्रशासनिक रूप से कुशल, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से काफी सराहनीय कार्य कर अपनी जगह नम्बर वन के खिताब पर पक्की किए हुए है।

लेकिन कुछ दिनों से हरियाणा सरकार, एफएम, सरकारी और गैर सरकारी चैनलों के अलावा अखबार अर्थात बाजारू हो चुकी पत्रकारिता के माध्यम द्वारा प्रसारित अपनी चंद चुनावी घोषणाओं के आधार पर नम्बर वन कहलाने की जुगत में लगी हुई है। एफएम 92.7 (बिग एफएम) ने तो अपने हर गानों के बाद ही हरियाणा के हुड्‌डा सरकार का गुणगान कर चुनावी वोट बटोरने का खासा इंतजाम कर रखा है।
ये सब तो ठीक है भैईया कीमत उसे मिली है, आखिर चंद वोटरों को भी तो वोट डालने के लिए कीमत दी जाती रही है। लेकिन तब जब पूरे साढ़े चार साल बाद चुनाव की बारी आई। इससे पहले तक शायद हरियाणा की हुड्डा सरकार को इन बेहतरीन योजनाओं पर नजर नहीं पड़ी होगी। दरअसल ये केवल हुड्डा की बात नहीं है. बल्कि ऐसा काम कांग्रेस अनेकों बार कर चुकी है और तो और ये उनकी अब आदत सी हो गई है। वे अपने शासन के कार्यकाल के चार वर्षों तक जनता को मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से शोषण करती है। और चुनाव आते ही जनता को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा देती है। हालांकि इसका लाभ जनता को चुनाव तक ही लोगों को मिलता है, फिर वही ढाक के तीन पात। सरकार के दोबारा सत्ता में आते ही मंहगाई चरम पर, थाल से दाल गायब, चीनी की मिठास में फीकापन, बेरोजगारी से जुझते नौजवानों का अंबार, आंतकवाद के आगे घुटने टेकते भारतीय प्रधानमंत्री। क्या ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है, दोबारा चुनी गई इस कांग्रेस सरकार में।
लेकिन ये सब कुछ भी ठीक है, क्योंकि जो जैसा करता है, वह वैसा ही पाता है। जनता ने चुनावी घोषणा को देखकर अपना मत दिया, ना कि पूरे पांच वर्ष के कामकाज को देखकर। दरअसल कांग्रेस ही क्या, सभी सरकार जानती हैं कि जनता की स्मरण शक्ति बेहद कमजोर है. वह अपने घरेलु परेशानियों से इस कदर जुझती रहती है कि उसे अन्य राजनीति में अपनी बुद्धि खर्च करना नागवार गुजरता है। और वह पुरानी बातों को आसानी से भूल जाती है। आज देश में न जाने कितनी समस्याएं है और इस परेशानियों से जनता त्राहिमाम्-त्राहिमाम्‌ करती दिखाई दे रही है। लेकिन हमें यह भी पता है कि लोग ४ सालों बाद इसे अवश्य भूल जाएंगे; क्योंकि उस वक्त भी कांग्रेस सरकार कुछ नया तोहफा, प्रसाद के तौर पर अवश्य बांटेगी। जिसका गुणगान करने में मीडिया बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेगा। क्योंकि मीडिया मैनेज भी बड़ी चीज होती है, जिससे भी चुनाव में जीत होती है। पर अफसोस की बात है कि मीडिया, एफएम फिर भी भारत को नम्बर वन नहीं बना पाएगा। क्योंकि जो काम ६३ सालों में नहीं हो पाया भला ५ सालों में क्या संभव होगा! हरियाणा की हुड्डा सरकार ने हाउस टैक्स, किसानों को कर में छुट, कृषि उत्पाद दरों में बढ़ोत्तरी, अनुसुचित जाति के युवतियों की शादी के लिए १५ हजार का मदद के साथ पेंशन देने का प्रावधान जैसे कई आकर्षक घोषणाएं कर हरियाणा के लोगों को आकर्षित करने का अवश्य काम किया है। यह अच्छी बात है, लेकिन यह सबकुछ दो-तीन वर्ष पहले ही हो जाता, तो शायद और भी लाभ लोगों को मिलता।
सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि जितनी भी चुनावी घोषणाए परियोजनाओं के तौर पर हुई वह या तो राजीव गांधी के नाम पर शुरू हुई या इंदिरा गांधी के नाम पर। फिर सवाल यह जेहन में उठता है, कि क्या हरियाणा की माटी ने किसी ऐसे महापुरूष या सपूत को जन्म नहीं दिया, जिसके नाम से यह सारी परियोजनाएं शुरू की जा सकती थी। इतना ही नहीं कम से कम हमारे देश भक्तों के नाम से भी कुछ परियोजनाएं होनी चाहिए थी, जिसके बहाने ही सही, लोगों के जेहन और जुबान में ऐसे सपूतों के नाम तो आते, जिन्होंने देश की आजादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। इतना नही तो कम से कम फिरोज गांधी के नाम से भी कुछ शिलान्यास कार्य कर डालते, जिससे लोगों को भी पता तो चलता कि नेहरू खानदान में गांधी उपनाम जुड़ने का अभिप्राय महात्मा गांधी से नहीं बल्कि
फिरोज गांधी से है। लेकिन आज जहां भी देखे और कुछ भी देखे तो किसी भी मुख्य स्थान, लगभग समस्त संस्थान या परियोजनाओं के नाम में नेहरू परिवारों का जिक्र होता रहा है। यहीं वजह है कि लोग सच्चे देश भक्तों को भूलने लगे है। और चिंता तब होती है, जब आने वाली हमारी नस्ले इन्हें पूरी तरह भूल चुकी होगी। इसके लिए राजनीतिक तौर पर कांग्रेस और नेहरू परिवार जिम्मेदार होंगे।
देश की आजादी के लिए मर मिटे शहीदों को भी नेहरू परिवार और कांग्रेस से अब घिन्न अवश्य आने लगी होगी और वे मरणोपरांत अफसोस भी जताने लगे होंगे की हमने देश के लिए क्या कुछ नहीं किया। परिवार गवाया, प्यार गवाया, जिंदगी गवाई, हमने सिर्फ खोया और जिसने केवल देश में राजनीति की, पैसों के दम पर, वह न केवल पा रहे है, बल्कि अपनी पहचान बनाए रखने के लिए हमारा नामों निशान तक मिटा रहे है।
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-Narendra Nirmal

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प्रेम क्या है?
एक प्रश्न, जिसका उत्तर सबके पास है, अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार.

क्या वास्तव में सबकी अपनी भावनाओं के अनुरूप ही प्रेम का रूप भी बदलता रहता है? क्या प्रेम एक नहीं है? क्या प्रेम इतना ही संकीर्ण है, कि व्यक्ति-वस्तु के अनुरूप ही रूप ग्रहण कर ले? क्या प्रेम का अपना कोई चरित्र नहीं है? क्या प्रेम वस्तुगत या व्यग्तिगत हो सकता है?
क्या विपरीतलिंगी के प्रति मन में उठ रही भावना ही प्रेम है?

कदापि नहीं!!!
यह जो कुछ भी है, वह प्रेम नहीं हो सकता. वह प्रेम है ही नहीं, जो की भावनाओं के अनुरूप, रूप ले लेता हो. प्रेम स्वयं में एक संपूर्ण भावना है. प्रेम मात्र प्रेम ही है. व्यक्ति-वस्तु के अनुरूप विचलित हो रही भावनाएं, प्रेम नहीं हैं.

प्रेम स्वयं में एक चरित्र है.
प्रेम कृष्ण है; वह कृष्ण जिसके पाश में बंधकर गायें-गोपी-ग्वाल सबके-सब खिंचे चले आते हैं.
प्रेम, बुद्ध हैं; वह बुद्ध जिसकी सैकडों वर्ष पुरानी प्रतिमा भी करूणा बरसाती सी लगती है.
प्रेम, राम है; वह राम जिसके दुःख में कोल-किरात-भील सबकी आँखें नाम हैं.
प्रेम, ईसा है; वह ईसा जो अपने अपराधियों के कल्याण की प्रार्थना ईश्वर से करता हुआ, प्राण छोड़ देता है.
प्रेम, बस प्रेम है.

प्रेम, पुष्प की वह सुगंध है, जो बिना भेद किये सबको आह्लादित कर दे. प्रेम की गति सरल-रेखीय नहीं है, प्रेम का पथ वर्तुल है. वह उस परिधि में आने वाले कण-कण को सुगन्धित कर देता है.
प्रेम, व्यक्ति केन्द्रित भाव नहीं है. यह कहना कि "मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करता/करती हूँ"; इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता.

लेकिन अब यह भ्रम भी होता है, कि तब फिर वैयक्तिक रूप से अपने निकटवर्ती सम्बन्धी, साथी, पारिवारिक सदस्य या फिर किसी के भी प्रति मन में उठने वाली भावना क्या है?
निश्चय ही वह प्रेम नहीं है. यह प्रेम से निम्न स्तर की भावनाएं हैं. प्रेम की बात करते हुए हमें कुछ शब्दों के विभेद को भी ध्यान में रखना होगा.
प्रेम, प्यार, मोह(मोहब्बत) और अनुराग(इश्क) परस्पर समानार्थी शब्द नहीं हैं. इन सबके अपने अर्थ और अपनी मूल भावनाएं हैं.

प्रेम शक्ति चाहता है, (Prem seeks Power)
प्यार, काया चाहता है, (Pyar seeks Body)
मोह(मोहब्बत), माधुर्य चाहता है, ( Moh seeks Madhurya)
अनुराग (इश्क), आकर्षण चाहता है, (Anurag seeks Akarshan)

प्रेम, शक्ति चाहता है. यह शरीर की नहीं, वरन मन की शक्ति है. एक कमजोर प्राणी सब कुछ तो कर सकता है, वह विश्वविजयी हो सकता है, वह प्रकांड विद्वान हो सकता है, परन्तु वह प्रेम नहीं कर सकता.
प्रेम के लिए निर्मोह की शक्ति चाहिए. प्रेम, प्राप्ति का माध्यम नहीं है. प्रेम, बंधन नहीं है, प्रेम मुक्त करता है. प्रेम करने से पूर्व स्वयं को प्राणिमात्र के लिए समर्पित कर देने की शक्ति चाहिए.

किसी की माता को गाली देने वाला, अपनी माँ को भी प्रेम नहीं कर सकता. किसी स्त्री का अपमान करने वाला, अपने परिवार की स्त्रियों से प्रेम नहीं कर सकता. किसी छोटे बच्चे पर हाथ उठा रही स्त्री, अपने पुत्र से प्रेम नहीं कर सकती.

प्रेम जब होता है, तब सिर्फ प्रेम ही होता है. प्रेम किसी से नहीं होता, प्रेम किसी में होता है. जैसे की पुष्प की सुगंध, आपसे या हमसे नहीं है, वह पुष्प में है, जो कि सबके लिए है...

बस यही प्रेम है...

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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'जिन्ना का जिन्न' लगातार विकराल रूप धारण करता जा रहा है. आडवाणी को अध्यक्ष पद गंवाना पड़ा, क्योंकि उन्होंने जिन्ना को सेकुलर कह दिया और उनकी मजार पर चादर चढाया. जसवंत को तो दल से ही बाहर कर दिया गया. रामनामियों ने अपने हनुमान का ही कत्ल कर दिया. भाजपा का तोप शांत हो गया. सुधीन्द्र कुलकर्णी ने अपनी शहादत दे दी.

'वर्शिपिन्ग फाल्स गोड' लिखने वाले अरुण शौरी ने भाजपा को 'ब्लंडर लैंड' तथा 'कटी पतंग' कह डाला. न्यूज लिखने तक भाजपा ने शौरी की शरारत को संगीन मान लिया, शायद उनकी विदाई हो रही होगी.

यह 'जिन्ना फ्लू' भाजपा से निकलकर एनडीए के अन्य घटक दलों को भी अपनी जद में लेने लग गया है. जसवंत से जिन्ना-फ्लू जद(यू) तक पहुँच गया है. जद(यू) नेता शरद यादव ने कह दिया कि जसवंत की किताब पर बैन नहीं लगाया जा सकता है. इधर हरियाणा का पुराना गठबंधन टूटकर बिखर गया है. भाजपा हरियाणा में अलग-थलग पड़ गयी है. महाराष्ट्र में शिवसेना अलग ही ताल ठोंक रहा है.

संघ के पूर्व संघचालक के.सी. सुदर्शन ने जिन्ना को राष्ट्रवादी घोषित कर दिया है. हो.वे. शेषाद्री ने अपने चर्चित पुस्तक 'यों देश बंट गया' में जिन्ना को लगभग क्लीन चिट ही दिया है. सुदर्शन के बयान आने के बाद देश भौंचक हो गया है. आखिर सुदर्शन ने जलती-पकती भाजपाई आग में इतना घी क्यों डाल दिया?
सुदर्शन के बयान के बाद जिन्ना विवाद की दिशा बदल गयी है. दशकों से जो स्वयंसेवक जीवन लगाया, अखंड भारत का सपना संजोया, आज वह सपना टूट-टूटकर बिखर रहा है.
मोहन भगवत क्या करना चाहते हैं? क्या अन्दर की रणनीति है, वह विचारणीय है. क्योंकि संघ कभी भी लूज गेम नहीं खेलता....

संभव है कि जैसा कि गोविन्दाचार्य ने पार्टी को भंग कर नयी वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत की बात की है, उस दिशा में संघ आगे बढे या फिर इस ड्रामेबाजी से भाजपा को मीडिया में बनाये रखने का खेल हो....!
अगर जिन्ना को लेकर निकालने की ही बात है, तो सुदर्शन को भी संघ से निकालना चाहिए.

महंगाई, मुद्रा स्फीति, भुखमरी चरम पर है. गरीबों का जीना मुहाल हो गया है, इस वक़्त में भाजपा को मजबूत प्रतिपक्ष की भूमिका निभाना चाहिए, ना कि इस नकली मुद्दों में देश को फंसाकर रखना चाहिए.
देश को इतिहास की जरूरत अभी नहीं है. अभी इतिहास नहीं, रोटी चाहिए. इतिहास-इतिहास कर के भाजपा देश की आम जनता का उपहास कर रही है.

अगर इतिहास की ही बात करनी है तो जिन्ना के जीवन चरित्र पर एक श्वेत-पात्र ही जारी कर दे भाजपा. सत्य पर कितना रॉब दिखायेंगे भागवत..

एक नज़र जिन्ना पर.
(१) गाँधी ने जिन्ना को कायदे-आजम (महान नेता) कहा.
(२) पिता का नाम पूंजी भाई झीना भाई और माँ का नाम रत्ना बाई था तथा बेटी का नाम दीना बाई...
(३) ना दाढ़ी ना टंगा पायजामा...
(४) जिन्ना को मुसलमानों से बदबू आती थी..
(५) १९२५ में संविधान सभा में जिन्ना ने कहा कि मैं भारतीय हूँ..
(६) पृथक मतदान का विरोधी..
(७) तिलक के अपमान का बदला जिन्ना ने वेलिंग्टन से लिया..
(८) १९३३ में जिन्ना ने 'रहमत अली' के 'पाकिस्तान' शब्द का मजाक उड़ाया. उन्हें काफिर कहा..
(९) १९३८ तक जिन्ना का रसोइया हिन्दू, ड्राइवर सिख, क्लर्क ब्राह्मण, गार्ड हिन्दू(गोरखा), संपादक ईसाई, डॉक्टर पारसी था.

उपर्युक्त बिन्दुओं से न्यूनतम चरित्र तो झलकता ही है, जिन्ना का..
'कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, वरना यूं ही कोई बेवफा नहीं होता........'


आखिर संघ को गुस्सा किस बात को लेकर है. पटेल के अपमान को लेकर नाराजगी है, कि जिन्ना की प्रशस्ति पर, यह अब तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है. सुदर्शन के बयान के बाद देश चिंतित है, जानने के लिए कि इसके पीछे का खेल क्या है? करोडों स्वयंसेवक भी तो हमारे देश के हैं. इन स्वयंसेवकों के साथ होने वाले छल से भी तो देश की ही क्षति है.
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बोलो क्या उपहार दूं....

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 8/25/2009 04:59:00 pm 5 comments



दूं तुम्हे अपनी ख़ुशी,
या संसार की हर इक ख़ुशी,
या तुम्हे खुशियों का ही संसार दूं...
बोलो क्या उपहार दूं..

चाँद मांगो चाँद दूं,
हर ख़ुशी आबाद दूं,
या गगन से तोड़कर,
तारे हजार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..

यूं ही हंसी खिलती रहे,
हर ख़ुशी मिलती रहे..
मुस्कान पर हर इक तुम्हारी,
जां निसार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..

गम तो बीते वक़्त की हों दास्ताँ,
दर ख़ुशी पर ही रुके हर रास्ता,
दिल कहे दिल का ही
तुमको हार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..

Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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