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२३ मार्च को सरदार भगतसिंह और उनके साथियों से अंतिम भेंट करने के लिए उनके घर वालों को सूचना तो दी गयी थी, पर वे भेंट नहीं कर सके. उस दिन भगतसिंह अपनी कोठरी में बैठे हुए ऊँचे स्वर से गा रहे थे-
'मेरा रंग दे बसंती चोला, इसी रंग में रंग के शिवा ने माँ का बंधन खोला..'

फांसी कैसे दी गयी..

जब हाईकोर्ट में दी हुई दोनों दरख्वास्तें नामंजूर हो गई, तब लाहौर की सेन्ट्रल जेल में फांसी देने का प्रबंध किया जाने लगा. साधारणतया फांसी प्रातः काल ही हुआ करती है, पर सरदार और साथियों को रात में ही ख़त्म कर डालने का निश्चय कर लिया गया था. चार से छः बजे तक जेल का वह हाल था, कि जेल के जो अफसर बाहर थे, वे बाहर ही रह गए और जो अफसर अन्दर थे, वे अन्दर रह गए.
ठीक ७ बजकर ३५ मिनट पर तीनों देशभक्त कोठरियों से निकाले गए. उनकी आँखों पर टोपी पहनाई गयी. पहले सरदार भगत सिंह के गले में फांसी का फंदा रखा गया. सरदार ने बड़े ऊँचे स्वर में अपने दोनों साथियों से विदा ली. जवाब में उन्होंने 'भगतसिंह जिंदाबाद' का नारा लगाया. इस तरह से उनका नारा लगाना था कि सेन्ट्रल जेल के राजनीतिक तथा साधारण कैदियों को सिग्नल मिल गया. यद्यपि सभी कैदी अपनी-अपनी बैरकों में उस वक़्त बंद किये जा चुके थे, तो भी उन्होनें जोर-जोर से 'भगतसिंह-जिंदाबाद' के गगन-भेदी नारे लगाये. उनके नारे जेल के बाहर भी सुने जा सकते थे.
उसी समय 'डाउन-डाउन विद यूनियन जैक' (ब्रिटिश झंडे का क्षय हो) के नारे लगाए गए, जो एक मिनट तक लगते रहे. फिर आवाजें बंद हो गयीं. सरदार के बाद श्रीयुक्त राजगुरु को और अंत में श्रीयुक्त सुखदेव को फांसी दी गयी. उसके बाद तीनों लाशें स्ट्रेचर पर रखीं गयीं और दीवार के एक छेद से बाहर कर दी गयीं.
शहीदों की भस्म भी नहीं दी गयी.
२४ मार्च को प्रातःकाल नगर के विभिन्न मुहल्लों में जिला मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर से निम्नलिखित पोस्टर चिपके हुए पाए गए:-
"सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है कि कल शाम को भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गयी और उसके बाद जेल के बाहर ले जाकर, लाश सतलज के किनारे भस्म कर दी गयी और राख़ नदी में बहा दी गयी."

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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