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मेरे प्रियतम,
मैं यह तो नहीं कह सकती कि तुम्हारी याद आती है, क्यूंकि सच तो यही है कि कभी भूलने का प्रयास ही न कर सकी तुम्हें....
फिर तुम हमेशा सामने ही तो रहे हो, किसी न किसी तरह से.... कहीं न कहीं खोजकर तुम्हे पढ़ती ही रही हमेशा.... तुम्हें इस ब्लॉग की हाईटेक दुनिया में देखकर ख़ुशी हुई थी मन में....
अक्सर खुद को खोजने का प्रयास करती थी तुम्हारे शब्दों में, कि शायद कहीं मैं दिख ही जाऊं किसी बेबात की बात में, मगर निराश ही रही.....
लगने लगा कि शायद तुम अब वो नहीं रहे. शायद बाजार अब तुम पर असर नहीं करता होगा, ऐसा लगा मुझे. लेकिन नहीं, तुम्हारे भीतर का बाजार मरा नहीं.......
आश्चर्य हो रहा है ना इस बात पर......!!! बोलना तो मैं भी नहीं चाहती थी कभी ये सब, लेकिन आज तुम्हारा ये पत्र देखकर बरबस ही मन की टीस बाहर आ गई....
मेरे मसीहा, तुमने हमेशा ही प्रेम को जाने-अनजाने बाजार ही तो दिखाया...... मैं जब भी तुम्हारे पहलू में आने का प्रयास करती, तुम मुझे दुनिया में उतार देते..... कभी परिचय कराने के बहाने, तो कभी परिचय निभाने के बहाने......
और आज तो तुमने प्रेम के साथ-साथ प्रेम-पत्र को भी आखिर कर ही दिया दुनिया के सामने..... मेरी तारीफ भी की तो बाजार की भावनाओं से तुलना करके....."जेवर भी मुझे जंजीर लगते थे" क्या जरूरत थी इस तारीफ को दुनिया से कहने की....?
मैं भी आखिरकार इस बाजार में आकर तुम्हारे प्रेम-पत्र का जवाब दे ही बैठी.... बिना आधार के रिश्ते से बेहतर, बाजार का ही आधार मिल जाए....
तुम कहते हो न, कि तुम मेरी अमानत नहीं रहे .....रंग बदल गया है, जिंदगी के साथ-साथ बालों का भी..... मैं भी तो अब वैसी नहीं ही रही....दुनिया की धूल जम गयी है चेहरे पर....
ट्रेन के पास खड़े होकर, हाथ हिलाते हुए तुम्हारे धुंधलाते चेहरे को भूल पाने का प्रयास कर ही रही थी आज तक, कि तुमने फिर से हरा कर दिया सब कुछ.....
अभी माफ़ी चाहूंगी...क्योंकि हाथ और साथ नहीं दे रहे हैं....आँखों में भी कुछ यादों का पानी सा उतर आया है...कुछ देर उन्हें संजो लेती हूँ...
शेष फिर....


तुम्हारे पत्र के इंतजार में..
एक पुजारन..

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प्रस्तुति:- Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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1 Response to "नाराजगी तो है तुम्हारे प्रेम-पत्र से......"

  1. भावपूर्ण. अच्छा लगा पढ़कर!!

     


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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