प्रिय ,
तुम्हारी धुँआधार यादें ....आज मैं तुम्हें लिखने को विवश हूँ . मेरे भीतर का एकतारा झंकृत हो रहा है. मन के सागर में हिलोर मारती स्मृतियों को तीर पर कैसे लाऊं , समझ में नहीं आ रहा है ...
वर्षों गुजर गए तुम्हे देखे .. शायद ही अब कभी तुम्हे देख पाऊं .. पर आज भी साँसों में, अहसासों में तुम्हारी मौजूदगी को महसूसता रहता हूँ .. सारे बीते हुए लम्हे एक-एक कर मेरे मानस पटल पर चित्रित हो रहे है ..
तुम जुदा नहीं होने के आत्मगत यथार्थ से इस प्रकार गूंथी हुई थी कि वस्तुगत यथार्थ के बोध पर बरबस तुम बिलख उठती थी . उबलते आंसुओं से जीवन की प्यास बुझाने की असफल कोशिश तुम्हारी जारी रही . जब कभी हम साथ होते तो हरसिंगार के फूलों की तरह जीवन झरता नजर आता ... जीवन एक उत्सव की तरह होता ... एक गीत .. एक नृत्य ..पूरी जिंदगी लय में होती ..हाँ ! बिखरती होती थी केवल वर्जनाएं...... ना मिलन की चाह होती ना चेष्टा....तुम इस तरह मिलती मानो कोई नदी, सागर से मिलते वक़्त अलसाती हो या प्रयासहीन होती हो....
न तुम्हे बसी-बसाई दुनिया पसंद थी, न ही दुनिया बसाने का प्रयास...बस बादलों की आवारगी ही तो अभीष्ट थी. फूलों की ताजगी....तुम कहती थी न कि फूल इसलिए अच्छा है कि रोज़ खिलता है और झर जाता है. बासी फूल तो बाज़ार जाने के लिए होता है. तुम्हारा प्रेम बाजार के लिए नहीं था. ......!!
परिस्थितियाँ अक्सर प्रतिकूल रहीं. जिंदगी मेरी, केवल 'आर्थिक अभिव्यक्ति' बनकर रह गयी थी. जज्बात हावी थे तुम पर. जेवर भी तुम्हे जंजीर लगते थे.....निरंतर तुम हारती थीं. सच तो यह है कि कभी जीतने की कोशिश की ही नहीं तुमने....! जानबूझकर होने वाली उस हार को आज समझ पा रहा हूँ. वही हार तो मुझे मेरी मोहब्बत के मायने सिखा रही है....
किसी रंगीन शून्य में देर तक टिके रहना आदमी के लिए आसान नहीं...पर प्रेम में पड़ा व्यक्ति रिश्तेदार क्या खुदा को भी भूल जाता है.
तुम मुझे कमजोर होते नहीं देखना चाहतीं थीं. तुम्हे तो हमेशा ही मेरा लक्ष्य याद रहा था, लेकिन मैं ही भटक गया था. लाखों नौजवानों के सपने मुझसे जुड़े हुए थे. अपेक्षा भरी असंख्य आँखें मेरी ओर खुली थी. जब भी कोई मेरे पास आता तो मैं तुम्हे सफाई देने लग जाता था. पर तुम कहती-" मुझे गर्व है कि जिसे मैं प्यार करूँ उसे पूरी दुनिया प्यार करे. प्रेम तो मुक्त करता है. जो बांधता है वो मोह होता है, प्रेम नहीं....."
वह वक़्त आखिर आ ही गया. तुमने मुझे मुक्त करने की हर जुगत लगाई. मुश्किल था मोह-पाश को तोड़ना.....तुम मुझसे बहुत छोटी थी उम्र में, पर बच्चों की तरह मुझे दुलारना, माँ से अधिक नहीं, पर कम भी नहीं था....
अंतिम मुलाकात स्टेशन पर हुई थी, जब तुम्हे मैं ब्रह्मपुत्र मेल में छोड़ने आया था. आँखों से ओझल होता वह चेहरा......
बस माफ़ी के साथ कलम बंद करूँगा कि जिस बड़े उद्देश्य के लिए तुमने मुझे अलग किया, उसे मैं आज तक पूरा नहीं कर पाया हूँ.
राग, द्वेष, घात-प्रतिघात, लेन-देन, लाभ-हानि में इस कदर फंस गया हूँ कि भाव और संवेदना का जो पौध तुमने लगाया था, वह मुरझा सा गया है...
चारों ओर बाज़ार ही बाजार है. जीवन का रंग बदल गया है और साथ ही बालों का भी....
शायद मिल भी जाओ तो तुम मुझे नहीं पहचानोगी. तुम्हारी अमानत नहीं रह सका. बस, एक रेत का कमल...
बहुत कुछ शेष हो चुका है, जो बचा है वह है, बार्धक्य की धुंधली आँखों में तेरी यादों की चमक..
फिर कभी..
तुम्हारा-
पागल मसीहा
प्रस्तुति:-
Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
sundar bhavnayein.....
yah premi kaun hai??
utsukta hai jaan ne ki...
prem patra likhna sikhenge hum bhi..