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'सर्दी, खांसी न मलेरिया........लवेरिया..' वाला गाना अब बंद करो भैया... सर्दी, खांसी से अब लवेरिया का नहीं....स्वाइन-फ्लू का रिश्ता हो गया है. सूअर कहीं का....और फ्लू कहीं और..
इस बीमारी से 'मैन' तो तबाह है ही, मार्केट भी तबाह हो गया है. गालों पर क्रीम अब कौन लगाये? लिपस्टिक लगाकर भी क्या होगा? भाड़ में जाए यह रंग-बिरंगी लिपस्टिक.....कौन देखने वाला है अब लाल-लाल होंठ को...
अब तो बस गोरे-गोरे चेहरे पर उजला-उजला मास्क....मास्क के भीतर से आवाज भी स्पष्ट नहीं आती. लड़कियां बोलती हैं आम, तो लगता है इमली....
स्वाइन-फ्लू ने युवाओं को बेचैन बना दिया है. नहीं चाहिए किसी के साँसों की ताजगी....क्या ठिकाना ताजगी के चक्कर में कोई ताज़ा खबर न बन जाए....
खांसने के बाद कोई बालिका उलटकर देखती तक नहीं, बल्कि मुंह फेर लेती है..
थियेटर भी बंद और शोपिंग मॉल भी बंद.... बस केवल चैटिंग ही शेष है चुम्मा-चाटी के सहारे के तौर पर....
वैसे हंसते वक़्त मैं कभी मुंह का ख्याल नहीं रखता था. खैर लड़कियां तो पहले से ही मुंह पर रुमाल रखकर खांसती रही हैं. अब उबड़-खाबड़ दांत वालों को बहुत राहत हो गयी है. पान-गुटखा खा-खाकर मैंने भी कई दांतों की शहादत दी है. इस सूअर-फ्लू से मुझे भी काफी राहत है.
सरकार भी मसखराबाज हो गयी है. वह कभी कुछ बोलती है तो कभी कुछ.. कभी कहती है कि इसका इलाज संभव है, तो कभी असंभव..
दवा उद्योग की चांदी हो गयी है. बाजार को तो बिक्री चाहिए. बर्बादी से इसे क्या वास्ता..
ई ससुरा मास्क भी महंगा हो गया है. १५ रुपये का मास्क सौ रूपये में बिकने लगा है. डरी-सहमी जनता का लाभ न उठाओ भाई, नहीं तो आपका भी गंगा-लाभ हो जायेगा. गंगा से बहुत लाभ होता है, पर गंगा-लाभ ठीक नहीं. बहती गंगा में बाजार हाथ ना धोये, हाथ साबुन से धोये.. गंगा की तरह परिवेश को निर्मल बनाये रखें.
जिंदगी इकलौती है. सबों को जीने का मौका दें. लिप ही नहीं जिन्दा रहेंगा, तो लिपस्टिक कैसे बिकेगा? पहले व्यक्ति को बचा ले, फिर बाजार भी जिन्दा रहेगा. बस सबों के बेहतर स्वास्थ्य की कामना के साथ...

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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
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2 Response to "स्वाइन-फ्लू में कैसे हो इलू-इलू..."

  1. Amit Said,

    "लिप ही जिन्दा नहीं रहेगा तो लिपस्टिक का कैसे बिकेगा?"

    सही प्रश्न है इस बाजारू दुनिया से,
    जो सबको सिर्फ ग्राहक समझती है...
    और उनकी मुश्किलों को कमाई का जरिया

     

  2. बहुत रोचक लेकिन सच बयां करती पोस्ट...आप के लेखन में व्यंग और रवानी दोनों हैं...वाह...लिखते रहिये...
    नीरज

     


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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