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६३ वें स्वतंत्रता दिवस से दो दिन पहले देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में न केवल 'वर्तमान राजनीतिक संकट और लोकतान्त्रिक समाजवाद का भविष्य' विषय पर परिचर्चा हुई बल्कि गैर कांग्रेसवाद और गैर-भाजपावाद की राजनीतिक सरजमीं पर देश भर के बिखरे समाजवादियों को एक बार फिर से एक सूत्र में पिरोने के लिए एक महत्वपूर्ण पहल भी की गई और इस प्रकार 'लोकमोर्चा' नामक संगठन, जो आने वाले दिनों में समस्त औपचारिकताएं पूरी कर, राजनीतिक दल का आकर ग्रहण करेगा, अस्तित्व में आया.


इस पूरी मुहीम के केंद्र में नवगठित लोकमोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक, बांका(बिहार)सांसद दिग्विजय सिंह हैं. श्री सिंह को पूर्व रेल राज्यमंत्री एवं पूर्व विदेश राज्य मंत्री होने का गौरव भी प्राप्त है. वैसे तो श्री सिंह के इस प्रयास को बिहार के मुख्यमंत्री जदयू नेता नीतीश कुमार को घेरने और उनपर दबाव बढाने के रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन जिस प्रकार से बिहार के जाने-माने समाजवादी नेता और पूर्व सांसद रामजीवन सिंह, पूर्व सांसद अरुण कुमार के अलावा उपेन्द्र कुशवाहा, ब्रहमानंद मंडल, गजेन्द्र हिमांशु, शिवनंदन बाबु आदि नीतीश विरोधी नेता दिग्विजय सिंह के पीछे खड़े दिखाई दे रहे हैं, उससे इतना तो तय है, कि सत्ताधारी जदयू-भाजपा गठबंधन को हालिया विधानसभा उपचुनाव और २०१० में होने वाले विधानसभा चुनाव में राजद, कांग्रेस, लोजपा, वामपंथी पार्टियों के साथ-साथ लोकमोर्चा से भी मिलने वाली राजनीतिक चुनौतियों को भी झेलना पड़ेगा. और परिणाम कुछ भी हो सकता है, क्योंकि निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर दिग्विजय सिंह की जीत से न केवल उनका हौसला बढा है, बल्कि मंडल आन्दोलन और दलित चेतना के प्रमुख नेताओं नीतिश कुमार, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के राजनीतिक बयानबाजियों और प्रशासनिक निर्णयों से क्षुब्ध रहने वाले सवर्ण नेताओं एवं कट्टर सवर्ण मतों के लोकमोर्चा के साथ जुड़ने की संभावनाएं बलवती हुई हैं.

जारी......
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-Kamlesh Pandey, Spl. Correspondent, Swaraj T.V.

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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