हम आज 'फाइंड फ्रेंडशिप' के दौर में जी रहे हैं. फ्रेंडशिप तो हो भी जा रहा है, पर फ्रेंड का मिलना मुश्किल हो गया है. मित्रता जैसे भाववाचक को, संज्ञा प्रदान करना कठिन हो गया है.
भारत राष्ट्र का विकास, एक जैविक विकास है. समाज, संबंधों का संकलन है, एक समुच्चय है. हर व्यक्ति एक साथ अनेकों संबंधों को जीता है. हम किसी के पिता है, तो किसी के पुत्र हैं. किसी के चाचा हैं, तो किसी के भतीजा हैं. हम साला भी हैं और बहनोई भी. बिना सम्बन्ध और संबोधनों के हमारी सामाजिक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती.
हमारे सम्बन्ध किसी औपचारिकता की कहानी नहीं बयां करते. जीवन-पर्यंत हम इन संबंधों को जीते थे. सहकार, सद्भाव, सहयोग का सन्देश देता रहा है, हमारा सम्बन्ध. तमाम अभावों के बावजूद यहाँ जीवन जीने का अवसर था. 'कम से कम असुरक्षा' थी. संबंधों का यह संसार हमारे जीवन को संतुलन प्रदान करता था. नीति-अनीति, अच्छा-बुरा व्यव्हार एवं विचार प्रमाणित होता था, इन रिश्तों से. किसी कानून, संविधान व राज्यादेश की जरूरत ही नहीं थी.
परिवार, हमारे जीवन की प्रथम पाठशाला था. परदादा-परदादी, दादा-दादी, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, विधवा एवं परित्यक्ता के जीवन का सहारा परिवार था.
आज परिवार बिखर रहा है. बारी-बारी से परदादा-परदादी, दादा-दादी, माता-पिता परिवार से बेदखल हुए हैं. विधवा, परित्यक्ता तथा बहन-बुआ के लिए जगह समाप्त होती जा रही है.
अब सांस्कृतिक आक्रमण इतना तेज़ है, कि पति अलग, पत्नी अलग...... बच्चे क्रेच या होस्टल में... बच्चों को पढाया भी जाने लगा, कि संयुक्त परिवार बुरे परिवार होते हैं, इसे ख़त्म हो जाना चाहिए.
पाश्चात्य चिंतन में परिवार की परिभाषा यह है - "मेरे बच्चे, तुम्हारे बच्चे, हम दोनों के बच्चों से झगडा करते हैं." यानि पति भी पत्नी को तलाक देकर बच्चा बांटकर लाया है और पत्नी भी पति को तलाक देकर बच्चा साथ लायी है, और अब नयी शादी हुई है. इस नयी शादी से जो बच्चा पैदा हुआ, वह बच्चा, उन दोनों के बच्चों से झगड़ता है.
यही हम परिवार का मानक खडा करना चाहते हैं. भौगोलिक साम्राज्यवाद से जितना खतरा भारतीय समाज को नहीं हुआ था, उससे ज्यादा खतरा सांस्कृतिक आक्रमण से है.
दूरदर्शन और विभिन्न चैनलों पर आने वाले कार्यक्रम भारतीय समाज पर एक 'साइलेंट एनविजन' (silent invasion) है. हमें पता ही नहीं चल पाया कि कब हमने अपनी विरासत को खो दिया. वैध-अवैध संतति और संबंधों की भरमार है, चलने वाले धारावाहिकों में. नकली पात्र, नकली सम्बन्ध और उसका नकली संसार. सब कुछ औपचारिक. बासी फूल. कोई जीवन का सुगंध नहीं, कोई सुरभि नहीं. प्लास्टिक का पैसा, प्लास्टिक का दिल और प्लास्टिक का घर....
अगर यह परिवार बिखर गया, तो क्या होगा? बुजुर्ग अगर पूरे तौर पर बेगाने हो गए, तो रहेंगे कहाँ? कितने वृद्धाश्रम, कितने अनाथालय, कितने परित्य्क्ताश्रम एवं विधवाश्रम बनेंगे?
वृद्ध-पेंशन देने की व्यवस्था तो सरकार कर नहीं पाती, आखिर इतने बेगाने लोगों की जिंदगी का क्या होगा?
भारत का बचपन तो दादा-दादी, नाना-नानी की गोद में ही खिलता रहा है. बच्चों के भीतर का सम्बन्धबोध तो यहीं से जगता था.
रिश्ते, अर्थ खोते जा रहे हैं. पर, आज भी इनकी उपयोगिता दिख रही है.
बचपन बाहर से ज्यादा, तो घर में असुरक्षित हो गया है. बच्चों की किडनैपिंग भी ज्यादातर रिश्तेदार ही कर रहे हैं. बलात्कार की ज्यादातर घटनाओं में रिश्तेदार के ही नाम आ रहे हैं.
परिवार को हम बाजार के हवाले करते जा रहे हैं.
बाज़ार में रिश्तों का कोई मायने नहीं होता. बाज़ार को लाभ चाहिए.....शुद्ध लाभ..
माता-पिता अगर परिवार में हैं भी, तो केवल इसलिए कि नौकर और दाई का पैसा बचाना है, या बच्चों की रखवाली करवानी है.
पितृ देवो भव, मातृ देवो भव..........ये अब दया के पात्र हैं.
पश्चिम में 'कूड़े हटाओ और बूढे हटाओ' का आन्दोलन चल रहा है. हम इस वाहियात संस्कृति की नक़ल नहीं कर सकते. अर्थहीन होते रिश्तों का केवल पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष ही नहीं, आर्थिक पक्ष भी है.
भारत को एक भीड़ में तब्दील करने की गहरी सांस्कृतिक साजिश चल रही है. देश को अगर बचाना है, तो इन पारिवारिक मूल्यों को बचाना ही होगा. अन्यथा यह पीढी अराजक होगी, संज्ञाहीन होगी. संबोधन मुक्त होगी..
यह भी संभव है कि इस अराजकता में कोई बेटा 'माँ' को 'वाइफ ऑफ़ फादर' कहने लग जाए. जब 'माँ' ही 'वाइफ ऑफ़ फादर' हो जायेगी, तब फिर इस गौमाता, गंगा माता और भारतमाता का क्या होगा? क्या मातृऋण और राष्ट्र-ऋण चुकाए बिना ही यह पीढी गुजर जायेगी.
आइये! संबंधों के इस संसार को बाजार बनाने से रोकें...
-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
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wakai paschaty sanskriti aur niji chainalo me dikhai ja rahi paschatya dharawahiko jise bhartiya samaj ka aaina sabit kiya ja raha hai, ne na kewal parivar ko toda hai, balki samaj ko bhi puri tarah todne ka kam kiya hai, isliye to ham apne hi pariwar me antar sambandho ko lekar, sanshay me rehte hai, yaha tak ki hamari sanskriti thi ki pados me rahne wala, chacha, chachi, fua-fufa, mama-mami, ewam unke bachche bhai-behan hua karte the, lekin aaj halat haise hai ki ve parivar se aage samaj ke sambandho ko swikarna hi nahi chahte, jiska khamiyaja ye hota hai, ki log ek dusre se katne lage hai. vijyendra ji aapne is chinta par apna vichar rakha iske liye aapko dhanyawad.
nithalla chintan.....
badhai ho...aap kewal likhte ho ya kuchh karte bhi ho...desh ke liye???
प्रश्न गंभीर है..
समाज में हो रहे इस सांस्कृतिक पतन पर विमर्श जरूरी है...
हम लाख इस पीढी को कोस लें ...चिंतन का विषय यह है की हमने उन्हें दिया क्या है ...संस्कारों के रूप में ..!!
वाकई इस पतन के बारे में समाज की आँखें खुलनी चाहिए