व्यक्ति कितना बरस जिया, यह महत्वपूर्ण नहीं होता; महत्वपूर्ण है कि कैसे जिया? खुदीराम को लम्बी आयु की चाहत नहीं थी, बस जो जीवन मिला था, उसे उन्होंने जमकर जिया और आने वाली पीढी के लिए जीने की कला सीखा गए......
उम्र के उस पड़ाव में खुदीराम ने कारनामा कर दिखाया कि उसे फांसी भी नहीं दी जा सकती थी. आखिरकार ११ अगस्त, १९०८ को भारत का यह सपूत फांसी का फंदा चूम लिया.
१८८९ को बंगाल के मिदनापुर में जन्मा यह लाल कम उम्र में ही रेवोल्युशनरी पार्टी का सदस्य बन जाता है. खुदीराम का जीवन, सागर की उठती हुई वह लहर था, जो साहिल से टकराकर दम तोड़ देने को बेचैन था. १९०५ का बंगाल विभाजन उसे कतई बर्दाश्त नहीं था. बंग-भंग को वह अखंड भरत के लिए अपशकुन मान रहे थे. उन्होंने जमकर इसका विरोध किया.
१८ फरवरी १९०६ को खुदीराम गिरफ्तार हो गए. जेल से छूटे, पर सपना कहाँ दम तोड़ने वाला था. फिर १९०७ को नारायणगढ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर पर हमला किया, पर वे बच गए. वाटसन और पैम्फायल्ट फुलर पर भी बम गिराया, पर वे भी बच गए.
खुदीराम ने मुजफ्फरपुर के जज किंग्सफोर्ड के भारत विरोधी नृशंस व्यक्तित्व पर भी प्रहार की योजना बनाई. प्रफुल्लचाकी के साथ खुदीराम ने ३० अप्रैल को किंग्सफोर्ड पर बम फेंका. फिर खुदीराम का प्रयास बेकार गया और केनेडी और उसकी बेटी मारी गयी.
सवाल खुदीराम के प्रयास के परिणाम का नहीं है. सवाल ब्रिटिश सल्तनत के खिलाफ उबलता आक्रोश का है.
कुंवर सिंह की बूढी हड्डियों का जलवा अंग्रेज देख चुके थे और बाद में खुदीराम का हहराता कैशौर्य भी...
मेरा शत-शत नमन है खुदीराम की इस शहादत को. ११ अगस्त को अपनी शहादत के जरिये बलिदानी विरासत को आगे बढाने का खुदीराम का प्रयास युगांतकारी है और प्रणम्य भी....
-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
You Would Also Like To Read:
खेद का विषय है कि किसी को भी आज खुदीराम के शहादत दिवस की जानकारी नहीं है..
इस ऐतिहासिक जानकारी भरे लेख के लिए धन्यवाद..
उस चैतन्य युवा को मेरा भी नमन..