मैं रिश्तों की मृग-तृष्णा में,
भटका शावक, बेचैन हिरन,
कारे-पानी सी जग-कारा,
दो बूँद नहीं आशा की किरण.
तृष्णा ने मुझको पी डाला,
मैंने हर रिश्ता जी डाला,
झूठा बन जीने से अच्छा,
मैंने होंठों को सी डाला.
हर रिश्ता मैंने भ्रम पाया,
छलते जाने का क्रम पाया.
जब भी जीवन जीना चाहा,
गम औरों का पीना चाहा,
अपनों से जो सौगात आई,
उन जख्मों को सीना चाहा.
तब नया घाव पाया मैंने,
रोता देखा साया मैंने,
मैंने हर आंसू पी डाला,
सांसों से छल पाया मैंने.
कब तक मरुथल छलता जाए,
और मैं प्यासा फिरता जाऊं,
कब तक ख्वाबों को थामे मैं,
उड़ता-उड़ता गिरता जाऊं.
कोई तो मन-मृगशावक को,
खुशियों की दो बूँद तो दे,
सरिता, आशा की ना ही दे,
आशाओं की दो बूँद तो दे.
कोई तो मन-मृगशावक को,
खुशियों की दो बूँद तो दे,
सरिता, आशा की ना ही दे,
आशाओं की दो बूँद तो दे.
बहुत सुन्दर रचना. मन को छू गए भाव.साथ ही फोटो भी अच्छी लगाई है.मै भी इस फोटो को अपने ब्लॉग पर लगा रही हूँ.
स्नेह सहित,
मीनू खरे
kya likha hai likhen wale ne bhee,,ekdum arthpurna baatein likhi hain
कोई तो मन-मृगशावक को,
खुशियों की दो बूँद तो दे,
सरिता, आशा की ना ही दे,
आशाओं की दो बूँद तो दे.
क्या बात है ,उम्मीद की जिजीविषा ऐसी भी हो सकती है ?ईश्वर आप का विश्वास बनाये रखे .बहुत बधाई.
सुन्दर भाव लिए हुए एक अच्छी कविता.....
सराहनीय......
मृग-तृष्णा का सच ही ऐसा है....
अच्छी रचना के लिए बधाई...