जीवन की जंग लड़ते-लड़ते हार गए कृष्ण कुमार..... लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को मजबूती प्रदान करने में कृष्ण कुमार ने जीवन की शहादत दे दी.
मैं नमन करता हूँ उनकी शहादत को. कृष्ण कुमार उपाध्याय जैसे पत्रकार ही हमारे समाज के जमाधन हैं. हम इसी विरासत को नोंच-नोंच कर खाते और जीते रहते हैं. इतनी अराजकता के बाद भी यह समाज जिन्दा हैं, इसके मूल में कृष्ण कुमार उपाध्याय जैसे लोग हैं, जो नींव का पत्थर बनते हैं. एक मौन साधक बनकर राष्ट्र-यज्ञ में अपनी जिंदगी की समिधा लगाने वाले लोग आज भी मौजूद हैं.
मीडिया जगत में जिस तरह से जातिवाद, वर्चस्ववाद, गेटिंग-सेटिंग, दलाली एवं अन्य विकृत व्यवहार हावी हो रहे हैं, वहां बेदाग बना रहना, बड़ा मुश्किल है. प्रिंट-मीडिया हो या टी.आर.पी. के खेल में फंसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया, सबों ने पीत पत्रकारिता को बढ़ावा दिया है.
मीडिया बाज़ार में हम तेल-साबुन की तरह न्यूज बेच रहे हैं. केवल मुनाफा चाहिए..... आदर्श और उद्देश्य से क्या लेना-देना... भूख, बेबसी, बेकारी की जंग में हारी जमात को जुबान तो कृष्ण कुमार उपाध्याय ही दे सकते हैं, जो अब हमारे बीच नहीं रहे. समाज का इलाज करते-करते स्वयं बीमार हो गए और फिर सबको छोड़कर चले गए....
मरना तो दलाल को भी है और खुद्दार को भी... पर कृष्ण कुमार जीते-जी पत्रकारिता की परिभाषा रच गए.
राजकीय संवेदना की अपेक्षा करना ठीक नहीं है. समाज की संवेदनशीलता ज्यादा अपेक्षित है. समाज को संजीदगी दिखानी चाहिए थी. गोरखपुर के पत्रकारों ने अपने हिस्से की भूमिका निभाई, प्रशंसनीय है.
कृष्ण कुमार उपाध्याय जैसे लोग आज भी मीडिया में मौजूद हैं, जो मूल्यों से समझौता नहीं करते. ऐसे विधायी व्यक्तित्व का सम्मान समाज करे, ताकि मीडिया, माफिया बनने से बच सके.
कृष्ण कुमार उपाध्याय के असामयिक निधन पर हमारा निर्माण संवाद परिवार हार्दिक शोक व्यक्त करता है.
-निर्माण संवाद परिवार
उपाध््याय जी की आत््मा को ईश््वर शांति प्रदान करे और उनके परिवार को इस दु:ख को सहने की शक््ति प्रदान करे।