'हे लेखकों यदि तुम्हारी कलम बाँझ हो गयी है तो भी कम से कम कागज का गर्भपात तो ना करो!'
यह वर्तमान लेखन स्तर को देखकर उद्विग्न हुए किसी विचारक के मन से भावावेश में निकले हुए शब्द मात्र नहीं हैं. यह आज के लेखन परिदृश्य का एक कटु सत्य है.
हमारे देश में न जाने कितनी ही बार कलम से विचारों और क्रांतियों का जन्म हुआ है, ना जाने कितनी ही बार इस कलम ने सत्ता को हिलाकर रख देने वाले महारथी पैदा किये हैं, और ना जाने कितनी ही बार इस कलम ने बिखरे राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने का पुरुषार्थ दिखाया है.
परन्तु खेद कि आज इस राष्ट्र की कलम की धार भोथरी हो गयी है. अब यहाँ कलम से सार्थक विचारों का नहीं अनर्गल प्रलापों का जन्म होता है. विचारों के नाम पर वही पुराने गोद लिए हुए विचार रह गए हैं.
तो क्या लेखकों का पुरुषार्थ समाप्त हो गया है? या फिर उनकी कलम बाँझ हो गयी है?
लेखक का धर्म है कि वह समाज में दिख रहे हर सच की शल्यक्रिया करके उसके उचित और श्रेष्ठ अंगो का प्रयोग नए और सार्थक विचारों के जन्म के लिए करे. लेखक का धर्म है कि वह राष्ट्र के समक्ष खड़ी गूढ़ समस्यायों को आम जन के सामने रखे.
लेखक यदि व्यवस्था के मोह में या व्यवस्थापिका से डर कर जियेगा तो वह क्रांति नहीं ला सकता. जिस राष्ट्र के लेखक भय या प्रलोभन के वशीभूत हो जायें वह राष्ट्र सदैव पतन की ओर जाता है.
लेखक यदि शासक वर्ग के हित को राष्ट्रहित से उपर रखने लगे तो उसे लेखन छोड़ देना चाहिए.
यदि राजनेता गलत हैं तो प्रश्न खडा करना लेखक का धर्म है. यही नहीं उसका धर्म है कि वह अपने लेखन में वह धार पैदा करे कि उसके खड़े किये प्रश्न से सारा राष्ट्र उद्वेलित हो उठे. और हाँ मात्र प्रश्न ही नहीं, उसे राष्ट्र के समक्ष समाधान के विकल्प भी रखने होंगे.
केवल लिखने के लिख देने से लेखन-धर्म पूरा नहीं हो जाता. जब तक राष्ट्र के लेखक अपना धर्म ना निभाने लग जाए तब तक राष्ट्र की समस्याएं समाप्त नहीं हो सकतीं.
आज वक़्त का आह्वान है-"जागो और राष्ट्र के लिए लिखो.."
-- Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.
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