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प्रख्यात चिन्तक बेकन का मत है, कि 'इतिहास मनुष्य को बुद्धिमान बनाता है.'

इतिहास का छात्र होने के नाते मैं भी इससे सहमत हूँ. जिस प्रकार प्रकृति में अमृत (गाय) और विष (सांप) दोनों निहित हैं, एवं उसकी मात्रात्मक गडबडी अपने गुणों के विपरीत अवगुण में बदल जाती है. यानि कि अधिक घी का सेवन जानलेवा साबित होता है, और विष की उचित मात्रा औषधि में परिवर्तित होकर कई जीवन बचा लेती है.

कहने का तात्पर्य यही है, कि जैसे सागर-मंथन से निकले अमृत-विष की मात्रात्मक गडबडियां तुंरत विरोधाभाषी गुण में परिवर्तित हो जाती हैं; उसी प्रकार व्यक्तित्व के 'इतिहास सागर' में जब भी 'विवेक की मथानी' चलायी जाए, तो इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि जिन्हें हम महापुरुष कहते हैं और उनकी पूजा करने को आतुर रहते हैं तथा जिन्हें हम खलनायक मानकर सर्वत्र निंदा का पात्र बना देते हैं, के बारे में भारतीय/वैश्विक बुद्धिजीवियों को अतिप्रशंसा और अतिनिन्दा की प्रवृति से बचना चाहिए. क्योंकि कुछ भी पूर्ण सत्य नहीं होता.

जयचंद एक ऐतिहासिक पात्र है. तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में उसने खलनायक की भूमिका निभाई और विदेशी आक्रान्ताओं से मिल गया, जिससे भारतीयता कमजोर हुई. हम गुलाम हुए, और वह अब तक निंदा का पात्र है.

वस्तुतः, जयचंद कोई पात्र नहीं, अपितु एक प्रवृत्ति है. यह प्रवृत्ति देश के अन्दर भी हाथ मिलाती है और देश के बाहर भी. हम सबको जयचंद के बारे में यह समझना चाहिए कि वह सत्ता प्रतिष्ठान के अधिक करीब था, इसीलिए उसने राजा के साथ विश्वासघात किया. क्या ब्रिटिश कालीन भारत में या आजादी के बाद के भारत में यह प्रवृत्ति नष्ट हो गयी?
कदापि नहीं..

केंद्रीय राजनीति हो, सूबाई राजनीति हो या त्रिस्तरीय पंचायती राज वाली राजनीति, क्रमशः प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और जिला परिषद् अध्यक्ष-प्रखंड प्रमुख-मुखिया जी से पूछें कि जहाँ दलगत सत्ता है, वहां पार्टी को आधार बनाकर और जहाँ दलगत सत्ता नहीं है, वहां व्यक्ति को आधार बनाकर कितनी बार तख्ता-पलट की सफल या विफल कोशिश हुई है...

क्या हम लोग इन देशी जयचंदों को माफ़ कर पाएंगे; क्योंकि हालिया 'जिन्ना-जसवंत' प्रकरण से तो यही लगता है कि हमने इन्हें माफ़ करना भी सीख लिया है.
जयचंद की ही अगली कड़ी विभीषण है. सिर्फ अर्थ की गंभीरता दोनों को अलग करती है...

क्रमशः...
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-Kamlesh Pande, Spl. Correspondent, Swaraj T.V.

(तस्वीर गूगल इमेज सर्च से साभार)

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मैं देखता था ये ख्वाब.......

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 8/27/2009 05:00:00 pm 1 comments


मैं देखता था ये ख्वाब,
इस आजकल से पहले,
अपनी जिंदगी में तेरी,
इस हलचल से पहले.

ये ख्वाब, कि कोई
इतना भी हंसी होगा,
खुशियों का भी कोई
तो हमनशीं होगा..

आँखें कोई तो होंगी,
मुझे पढ़ने में कामयाब,
सितारों की इस जमीं
पर वो होगा माहताब.

कोई तो होंठ मेरी
भी आवाज बनेंगे,
जिसके मुस्कुराने से
नए साज बनेंगे..

कोई तो दिल धड़केगा,
मेरे दिल की तरह से.
कोई तो होगा मेरी राह
में, मंजिल की तरह से..

कोई तो मेरे जैसे
जज्बात लिए होगा,
कोई तो मेरे जैसी
हर बात लिए होगा.

अब सच हुआ ये ख्वाब मेरा,
खिल गया दिल गुलाब मेरा.

मिल गयी मुझको ख़ुशी
एक ख़ुशी के रूप में.
बादलों के छाँव जैसी
इस दहकती धूप में,

'संघर्ष' ने जब ख़ुशी
पाई, ख़ुशी से रो पड़ा..
जिंदगी जैसे मिली हो
मौत के जंगल से पहले..



दिग्विजय सिंह ने कभी इन नेताओं को वह सम्मान नहीं दिया, जो कि लालू को रघुवंश प्रसाद सिंह, नीतीश को राजीव रंजन-प्रभुनाथ सिंह, रामविलास को सूरज सिंह-रामा सिंह, मायावती को सतीश चन्द्र मिश्र आदि देकर सत्ता सुख भोगते रहे और तथाकथित सवर्ण हितों की उपेक्षा कर, अपनी व्यक्तिगत और दलगत राजनीति को चमकाते रहे. लिहाजा सवर्ण समाजवादी जमात अब दिग्विजय के लोकमोर्चा में अपना भविष्य देखने लगे हैं.

इतिहास साक्षी है कि १९७७ में जनता पार्टी; १९८९ में जनता दल और १९९६-१९९८-१९९९ में भाजपा को तथा २००४
और २००९ में कांग्रेस को सवर्णों ने जमकर वोट दिया, लेकिन किसी भी दल को गरीब सवर्ण के हितों का ख्याल नहीं आया. सच तो यह है कि नीतीश सरकार के द्वारा त्रिस्तरीय पंचायत में आरक्षण आदि से भी सवर्ण जनमानस नाराज है. भले ही हाल के लोकसभा चुनाव में जनता ने लालू-पासवान को सत्ता में आने से रोकने के लिए, तथाकथित सुशासन यानि कि 'अफसरशाही शासन' के नाम पर राजग की झोली में काफी सीटें डाल दीं. लेकिन प्रभुनाथ की हार और दिग्विजय की जीत के गहरे निहितार्थ हैं और इसी से दिग्विजय का हौसला बुलंद है.

लोकमोर्चा के बहाने वे फिर से अपनी वही औकात पाना चाहते हैं, जो राजग सरकार में रहते हुए पूर्व उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत के सानिध्य में थी. यह सही है कि २००४ के बाद से दोनों बार केंद्र में कांग्रेस नित सरकार बनी, इससे दिग्विजय की राह थोडी आसन हो गयी. यदि २००९ में केंद्र में राजग सरकार बनती तो नीतीश के हाथ मजबूत हो जाते. संभवतः अपने धुर विरोधी और लोकसभा चुनाव में जदयू प्रत्याशी से पराजित 'शातिर समाजवादी नेता' जॉर्ज फर्नांडिस को बतौर जदयू प्रत्याशी राज्यसभा में भेजकर नीतीश ने दिग्विजय को ही कमजोर करने का पासा फेंका था, जिसका जवाब दिग्विजय ने लोकमोर्चा का गठन करके दिया है. यही नहीं सांसद इंदर सिंह नामधारी, वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी, समाजसेवी विजय प्रताप, पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी, प्रख्यात चिन्तक शिवखेडा, मशहूर गायक अनूप जलोटा आदि की उपस्थिति से जाहिर होता है कि 'बांका विजय' के गहरे निहितार्थ हैं.

इन सबों की उपस्थिति में जिस लोकतान्त्रिक समाजवाद की उन्होंने वकालत की है तथा जिस तरह से जातिवादी, धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय ताकतों से समान दूरी बनाये रखने की प्रतिबद्धता जताई है, यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता को दर्शाता है. यही नहीं मौजूदा आर्थिक नीतियों और विदेश नीति में अमेरिका के पिछलग्गू बनने के रुझान के खिलाफ जो संघर्ष करने का ऐलान किया है, उससे साफ़ जाहिर है कि उनके निशाने पर 'पटना की सल्तनत' के साथ-साथ दिल्ली की सल्तनत भी है. क्योंकि प्रख्यात समाजवादी नेता, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और मंडल मसीहा पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के निधन तथा भाजपा द्वारा पूर्व उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत को साइड करने एवं पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह को पार्टी से हटाने तथा कांग्रेस द्वारा पूर्व मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह को साइड करने की परिस्थितियां, उससे उन्होंने केंद्रीय राजनीति में अपने लिए एक माकूल अवसर भांप लिया है. वह यह भी समझते हैं कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की वर्तमान चलती, हमेशा नहीं रहेगी. ऐसे में सत्ता के शागिर्दों पर अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले दिग्विजय सिंह, जो 'राजनीतिक जुगाड़वाद' के स्रोत भी माने जाते हैं, का लोकमोर्चा क्या गुल खिलायेगा, प्रतीक्षा करना दिलचस्प होगा..........

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-Kamlesh Pande, Spl. Correspondent, Swaraj T.V.

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रेडियो-दूरदर्शन पर 'हरियाणा नंबर वन' का धुआंधार प्रचार जारी है. देखते-सुनते आजिज हो गया हूँ. विकास की जो तस्वीर पेश की जा रही है, वह बहुत ही फूहड़ और खोखली प्रतीत होती है.

भाजपा का अपना अन्तर्विरोध है, नाकारापन है, पर कांग्रेस भारत के मौजूदा चीखते सवालों से बचकर भाग नहीं सकती. अपने सौ दिनों के ही शासन काल में देश की जो दुर्गति की है, वह कहने और गिनाने की जरूरत नहीं है.

महंगाई, पार्टी पूछकर घर नहीं घुसती...चाहे कांग्रेसी हों या भाजपाई, हर का जीवन जंजाल बन गया है. महंगाई स्थायी मुसीबत के रूप में स्थापित हो चुकी है. सूखे की मार अलग है. देश महामारी को झेलने को विवश है..
झूठ को हज़ार बार दुहराओ कि वह सत्य बन जाए. क्या हरियाणा भारत राष्ट्र से अलग है? क्या हरियाणा की भूमि अचानक उर्वरा हो गयी है? क्या हरियाणा के भूजल स्तर में सुधार आ गया है? उत्पाद, बाज़ार और विपणन पर क्या हरियाणा के किसानो का अधिकार हो गया है? खेती योग्य जमीन से क्या किसानो की बेदखली रुक गयी है?

हरियाणा भ्रूण-हत्या के मामले में 'नंबर वन' रहा है. क्या यह छवि सुधर गयी है? जातीय समरसता जार-जार नहीं हुई है, क्या हरियाणा में? झज्जर की तालिबानी पंचायतो का क्या फैलाव नहीं हुआ है?

दरअसल मनमोहन सिंह के सिपाही जिस विकास की बात कर रहे हैं, उस विकास की पोल खुल चुकी है.'हरियाणा नंबर वन' जिस विकास की कसौटी पर 'नंबर वन' बना है, उसकी परिणति देश देख रहा है.
किसानों के हाथ से बीज छिन गए, बाज़ार निकल गया. खाद ख़त्म हो गए. कृषि के तमाम साधन आज बाज़ार के हवाले हो चुके हैं. खेती बाज़ार का नहीं, आजीविका का साधन है.

हरियाणा में भूमि का कम्पनीकरण किया गया. बड़े पैमाने पर किसानों की भूमि छीनी गई. उपजाऊ भूमि पर मॉल बन रहे हैं या फैक्ट्रियां खुल रही हैं. ऊंची अट्टालिका हरियाणा की बर्बादी को बयां कर रही हैं. सड़क, बिजली और पीने के पानी को पूरे सामाजिक जीवन से अलग कर विकास के लक्ष्य के रूप में विकसित किया गया.
हरियाणा का जो विज्ञापन टी.वी. और रेडियो पर चल रहा है, उसका सम्बन्ध केवल हरियाणा से नहीं है. उसे पूरा देश देख रहा है. अरबों रुपया खर्च करके कांग्रेस देश को क्या दिखाना चाहती है, कि वह तीस मारखां है...

'हरियाणा नंबर वन' बना सकते हैं, तो देश को भी नंबर वन बना सकते हैं. कांग्रेस लाज बचा रही है. महंगाई का जवाब नहीं है कांग्रेस के पास.

कांग्रेस मायावती को घेरती है कि वह मूर्ति क्यों बनावती फिर रही हैं? कांग्रेस बताये कि वह देश का पैसा क्यों पानी की तरह बहा रही है?
देश की दारुण स्थिति को देखते हुए, कांग्रेस को तुंरत इस प्रकार की फिजूलखर्ची पर रोक लगाना चाहिए. हरियाणा में विकास के नाम पर हुए विनाश की चर्चा जारी रहेगी.......

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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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ऐसा पहली बार हुआ है, नम्बर वन हरियाणा। क्या वाकई हरियाणा देश के अन्य राज्यों के मुकाबले नम्बर वन का खिताब जीत चुका है? यह खिताब किसकी तरफ से और किस तरह से दिया गया है? राष्ट्रीय स्तर की संस्था द्वारा, सरकार द्वारा, खुद कांग्रेस द्वारा या फिर इसे पैसे से खरीदा गया है। इस तरह से कई सवाल कौंध रहे है, लोगों के मन में। अब तक तो हमने सुना था कि गुजरात अन्य राज्यों के मुकाबले में ज्यादा विकसित, प्रशासनिक रूप से कुशल, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से काफी सराहनीय कार्य कर अपनी जगह नम्बर वन के खिताब पर पक्की किए हुए है।

लेकिन कुछ दिनों से हरियाणा सरकार, एफएम, सरकारी और गैर सरकारी चैनलों के अलावा अखबार अर्थात बाजारू हो चुकी पत्रकारिता के माध्यम द्वारा प्रसारित अपनी चंद चुनावी घोषणाओं के आधार पर नम्बर वन कहलाने की जुगत में लगी हुई है। एफएम 92.7 (बिग एफएम) ने तो अपने हर गानों के बाद ही हरियाणा के हुड्‌डा सरकार का गुणगान कर चुनावी वोट बटोरने का खासा इंतजाम कर रखा है।
ये सब तो ठीक है भैईया कीमत उसे मिली है, आखिर चंद वोटरों को भी तो वोट डालने के लिए कीमत दी जाती रही है। लेकिन तब जब पूरे साढ़े चार साल बाद चुनाव की बारी आई। इससे पहले तक शायद हरियाणा की हुड्डा सरकार को इन बेहतरीन योजनाओं पर नजर नहीं पड़ी होगी। दरअसल ये केवल हुड्डा की बात नहीं है. बल्कि ऐसा काम कांग्रेस अनेकों बार कर चुकी है और तो और ये उनकी अब आदत सी हो गई है। वे अपने शासन के कार्यकाल के चार वर्षों तक जनता को मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से शोषण करती है। और चुनाव आते ही जनता को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा देती है। हालांकि इसका लाभ जनता को चुनाव तक ही लोगों को मिलता है, फिर वही ढाक के तीन पात। सरकार के दोबारा सत्ता में आते ही मंहगाई चरम पर, थाल से दाल गायब, चीनी की मिठास में फीकापन, बेरोजगारी से जुझते नौजवानों का अंबार, आंतकवाद के आगे घुटने टेकते भारतीय प्रधानमंत्री। क्या ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है, दोबारा चुनी गई इस कांग्रेस सरकार में।
लेकिन ये सब कुछ भी ठीक है, क्योंकि जो जैसा करता है, वह वैसा ही पाता है। जनता ने चुनावी घोषणा को देखकर अपना मत दिया, ना कि पूरे पांच वर्ष के कामकाज को देखकर। दरअसल कांग्रेस ही क्या, सभी सरकार जानती हैं कि जनता की स्मरण शक्ति बेहद कमजोर है. वह अपने घरेलु परेशानियों से इस कदर जुझती रहती है कि उसे अन्य राजनीति में अपनी बुद्धि खर्च करना नागवार गुजरता है। और वह पुरानी बातों को आसानी से भूल जाती है। आज देश में न जाने कितनी समस्याएं है और इस परेशानियों से जनता त्राहिमाम्-त्राहिमाम्‌ करती दिखाई दे रही है। लेकिन हमें यह भी पता है कि लोग ४ सालों बाद इसे अवश्य भूल जाएंगे; क्योंकि उस वक्त भी कांग्रेस सरकार कुछ नया तोहफा, प्रसाद के तौर पर अवश्य बांटेगी। जिसका गुणगान करने में मीडिया बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेगा। क्योंकि मीडिया मैनेज भी बड़ी चीज होती है, जिससे भी चुनाव में जीत होती है। पर अफसोस की बात है कि मीडिया, एफएम फिर भी भारत को नम्बर वन नहीं बना पाएगा। क्योंकि जो काम ६३ सालों में नहीं हो पाया भला ५ सालों में क्या संभव होगा! हरियाणा की हुड्डा सरकार ने हाउस टैक्स, किसानों को कर में छुट, कृषि उत्पाद दरों में बढ़ोत्तरी, अनुसुचित जाति के युवतियों की शादी के लिए १५ हजार का मदद के साथ पेंशन देने का प्रावधान जैसे कई आकर्षक घोषणाएं कर हरियाणा के लोगों को आकर्षित करने का अवश्य काम किया है। यह अच्छी बात है, लेकिन यह सबकुछ दो-तीन वर्ष पहले ही हो जाता, तो शायद और भी लाभ लोगों को मिलता।
सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि जितनी भी चुनावी घोषणाए परियोजनाओं के तौर पर हुई वह या तो राजीव गांधी के नाम पर शुरू हुई या इंदिरा गांधी के नाम पर। फिर सवाल यह जेहन में उठता है, कि क्या हरियाणा की माटी ने किसी ऐसे महापुरूष या सपूत को जन्म नहीं दिया, जिसके नाम से यह सारी परियोजनाएं शुरू की जा सकती थी। इतना ही नहीं कम से कम हमारे देश भक्तों के नाम से भी कुछ परियोजनाएं होनी चाहिए थी, जिसके बहाने ही सही, लोगों के जेहन और जुबान में ऐसे सपूतों के नाम तो आते, जिन्होंने देश की आजादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। इतना नही तो कम से कम फिरोज गांधी के नाम से भी कुछ शिलान्यास कार्य कर डालते, जिससे लोगों को भी पता तो चलता कि नेहरू खानदान में गांधी उपनाम जुड़ने का अभिप्राय महात्मा गांधी से नहीं बल्कि
फिरोज गांधी से है। लेकिन आज जहां भी देखे और कुछ भी देखे तो किसी भी मुख्य स्थान, लगभग समस्त संस्थान या परियोजनाओं के नाम में नेहरू परिवारों का जिक्र होता रहा है। यहीं वजह है कि लोग सच्चे देश भक्तों को भूलने लगे है। और चिंता तब होती है, जब आने वाली हमारी नस्ले इन्हें पूरी तरह भूल चुकी होगी। इसके लिए राजनीतिक तौर पर कांग्रेस और नेहरू परिवार जिम्मेदार होंगे।
देश की आजादी के लिए मर मिटे शहीदों को भी नेहरू परिवार और कांग्रेस से अब घिन्न अवश्य आने लगी होगी और वे मरणोपरांत अफसोस भी जताने लगे होंगे की हमने देश के लिए क्या कुछ नहीं किया। परिवार गवाया, प्यार गवाया, जिंदगी गवाई, हमने सिर्फ खोया और जिसने केवल देश में राजनीति की, पैसों के दम पर, वह न केवल पा रहे है, बल्कि अपनी पहचान बनाए रखने के लिए हमारा नामों निशान तक मिटा रहे है।
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-Narendra Nirmal

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प्रेम क्या है?
एक प्रश्न, जिसका उत्तर सबके पास है, अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार.

क्या वास्तव में सबकी अपनी भावनाओं के अनुरूप ही प्रेम का रूप भी बदलता रहता है? क्या प्रेम एक नहीं है? क्या प्रेम इतना ही संकीर्ण है, कि व्यक्ति-वस्तु के अनुरूप ही रूप ग्रहण कर ले? क्या प्रेम का अपना कोई चरित्र नहीं है? क्या प्रेम वस्तुगत या व्यग्तिगत हो सकता है?
क्या विपरीतलिंगी के प्रति मन में उठ रही भावना ही प्रेम है?

कदापि नहीं!!!
यह जो कुछ भी है, वह प्रेम नहीं हो सकता. वह प्रेम है ही नहीं, जो की भावनाओं के अनुरूप, रूप ले लेता हो. प्रेम स्वयं में एक संपूर्ण भावना है. प्रेम मात्र प्रेम ही है. व्यक्ति-वस्तु के अनुरूप विचलित हो रही भावनाएं, प्रेम नहीं हैं.

प्रेम स्वयं में एक चरित्र है.
प्रेम कृष्ण है; वह कृष्ण जिसके पाश में बंधकर गायें-गोपी-ग्वाल सबके-सब खिंचे चले आते हैं.
प्रेम, बुद्ध हैं; वह बुद्ध जिसकी सैकडों वर्ष पुरानी प्रतिमा भी करूणा बरसाती सी लगती है.
प्रेम, राम है; वह राम जिसके दुःख में कोल-किरात-भील सबकी आँखें नाम हैं.
प्रेम, ईसा है; वह ईसा जो अपने अपराधियों के कल्याण की प्रार्थना ईश्वर से करता हुआ, प्राण छोड़ देता है.
प्रेम, बस प्रेम है.

प्रेम, पुष्प की वह सुगंध है, जो बिना भेद किये सबको आह्लादित कर दे. प्रेम की गति सरल-रेखीय नहीं है, प्रेम का पथ वर्तुल है. वह उस परिधि में आने वाले कण-कण को सुगन्धित कर देता है.
प्रेम, व्यक्ति केन्द्रित भाव नहीं है. यह कहना कि "मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करता/करती हूँ"; इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता.

लेकिन अब यह भ्रम भी होता है, कि तब फिर वैयक्तिक रूप से अपने निकटवर्ती सम्बन्धी, साथी, पारिवारिक सदस्य या फिर किसी के भी प्रति मन में उठने वाली भावना क्या है?
निश्चय ही वह प्रेम नहीं है. यह प्रेम से निम्न स्तर की भावनाएं हैं. प्रेम की बात करते हुए हमें कुछ शब्दों के विभेद को भी ध्यान में रखना होगा.
प्रेम, प्यार, मोह(मोहब्बत) और अनुराग(इश्क) परस्पर समानार्थी शब्द नहीं हैं. इन सबके अपने अर्थ और अपनी मूल भावनाएं हैं.

प्रेम शक्ति चाहता है, (Prem seeks Power)
प्यार, काया चाहता है, (Pyar seeks Body)
मोह(मोहब्बत), माधुर्य चाहता है, ( Moh seeks Madhurya)
अनुराग (इश्क), आकर्षण चाहता है, (Anurag seeks Akarshan)

प्रेम, शक्ति चाहता है. यह शरीर की नहीं, वरन मन की शक्ति है. एक कमजोर प्राणी सब कुछ तो कर सकता है, वह विश्वविजयी हो सकता है, वह प्रकांड विद्वान हो सकता है, परन्तु वह प्रेम नहीं कर सकता.
प्रेम के लिए निर्मोह की शक्ति चाहिए. प्रेम, प्राप्ति का माध्यम नहीं है. प्रेम, बंधन नहीं है, प्रेम मुक्त करता है. प्रेम करने से पूर्व स्वयं को प्राणिमात्र के लिए समर्पित कर देने की शक्ति चाहिए.

किसी की माता को गाली देने वाला, अपनी माँ को भी प्रेम नहीं कर सकता. किसी स्त्री का अपमान करने वाला, अपने परिवार की स्त्रियों से प्रेम नहीं कर सकता. किसी छोटे बच्चे पर हाथ उठा रही स्त्री, अपने पुत्र से प्रेम नहीं कर सकती.

प्रेम जब होता है, तब सिर्फ प्रेम ही होता है. प्रेम किसी से नहीं होता, प्रेम किसी में होता है. जैसे की पुष्प की सुगंध, आपसे या हमसे नहीं है, वह पुष्प में है, जो कि सबके लिए है...

बस यही प्रेम है...

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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'जिन्ना का जिन्न' लगातार विकराल रूप धारण करता जा रहा है. आडवाणी को अध्यक्ष पद गंवाना पड़ा, क्योंकि उन्होंने जिन्ना को सेकुलर कह दिया और उनकी मजार पर चादर चढाया. जसवंत को तो दल से ही बाहर कर दिया गया. रामनामियों ने अपने हनुमान का ही कत्ल कर दिया. भाजपा का तोप शांत हो गया. सुधीन्द्र कुलकर्णी ने अपनी शहादत दे दी.

'वर्शिपिन्ग फाल्स गोड' लिखने वाले अरुण शौरी ने भाजपा को 'ब्लंडर लैंड' तथा 'कटी पतंग' कह डाला. न्यूज लिखने तक भाजपा ने शौरी की शरारत को संगीन मान लिया, शायद उनकी विदाई हो रही होगी.

यह 'जिन्ना फ्लू' भाजपा से निकलकर एनडीए के अन्य घटक दलों को भी अपनी जद में लेने लग गया है. जसवंत से जिन्ना-फ्लू जद(यू) तक पहुँच गया है. जद(यू) नेता शरद यादव ने कह दिया कि जसवंत की किताब पर बैन नहीं लगाया जा सकता है. इधर हरियाणा का पुराना गठबंधन टूटकर बिखर गया है. भाजपा हरियाणा में अलग-थलग पड़ गयी है. महाराष्ट्र में शिवसेना अलग ही ताल ठोंक रहा है.

संघ के पूर्व संघचालक के.सी. सुदर्शन ने जिन्ना को राष्ट्रवादी घोषित कर दिया है. हो.वे. शेषाद्री ने अपने चर्चित पुस्तक 'यों देश बंट गया' में जिन्ना को लगभग क्लीन चिट ही दिया है. सुदर्शन के बयान आने के बाद देश भौंचक हो गया है. आखिर सुदर्शन ने जलती-पकती भाजपाई आग में इतना घी क्यों डाल दिया?
सुदर्शन के बयान के बाद जिन्ना विवाद की दिशा बदल गयी है. दशकों से जो स्वयंसेवक जीवन लगाया, अखंड भारत का सपना संजोया, आज वह सपना टूट-टूटकर बिखर रहा है.
मोहन भगवत क्या करना चाहते हैं? क्या अन्दर की रणनीति है, वह विचारणीय है. क्योंकि संघ कभी भी लूज गेम नहीं खेलता....

संभव है कि जैसा कि गोविन्दाचार्य ने पार्टी को भंग कर नयी वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत की बात की है, उस दिशा में संघ आगे बढे या फिर इस ड्रामेबाजी से भाजपा को मीडिया में बनाये रखने का खेल हो....!
अगर जिन्ना को लेकर निकालने की ही बात है, तो सुदर्शन को भी संघ से निकालना चाहिए.

महंगाई, मुद्रा स्फीति, भुखमरी चरम पर है. गरीबों का जीना मुहाल हो गया है, इस वक़्त में भाजपा को मजबूत प्रतिपक्ष की भूमिका निभाना चाहिए, ना कि इस नकली मुद्दों में देश को फंसाकर रखना चाहिए.
देश को इतिहास की जरूरत अभी नहीं है. अभी इतिहास नहीं, रोटी चाहिए. इतिहास-इतिहास कर के भाजपा देश की आम जनता का उपहास कर रही है.

अगर इतिहास की ही बात करनी है तो जिन्ना के जीवन चरित्र पर एक श्वेत-पात्र ही जारी कर दे भाजपा. सत्य पर कितना रॉब दिखायेंगे भागवत..

एक नज़र जिन्ना पर.
(१) गाँधी ने जिन्ना को कायदे-आजम (महान नेता) कहा.
(२) पिता का नाम पूंजी भाई झीना भाई और माँ का नाम रत्ना बाई था तथा बेटी का नाम दीना बाई...
(३) ना दाढ़ी ना टंगा पायजामा...
(४) जिन्ना को मुसलमानों से बदबू आती थी..
(५) १९२५ में संविधान सभा में जिन्ना ने कहा कि मैं भारतीय हूँ..
(६) पृथक मतदान का विरोधी..
(७) तिलक के अपमान का बदला जिन्ना ने वेलिंग्टन से लिया..
(८) १९३३ में जिन्ना ने 'रहमत अली' के 'पाकिस्तान' शब्द का मजाक उड़ाया. उन्हें काफिर कहा..
(९) १९३८ तक जिन्ना का रसोइया हिन्दू, ड्राइवर सिख, क्लर्क ब्राह्मण, गार्ड हिन्दू(गोरखा), संपादक ईसाई, डॉक्टर पारसी था.

उपर्युक्त बिन्दुओं से न्यूनतम चरित्र तो झलकता ही है, जिन्ना का..
'कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, वरना यूं ही कोई बेवफा नहीं होता........'


आखिर संघ को गुस्सा किस बात को लेकर है. पटेल के अपमान को लेकर नाराजगी है, कि जिन्ना की प्रशस्ति पर, यह अब तक स्पष्ट नहीं हो पा रहा है. सुदर्शन के बयान के बाद देश चिंतित है, जानने के लिए कि इसके पीछे का खेल क्या है? करोडों स्वयंसेवक भी तो हमारे देश के हैं. इन स्वयंसेवकों के साथ होने वाले छल से भी तो देश की ही क्षति है.
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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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बोलो क्या उपहार दूं....

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 8/25/2009 04:59:00 pm 5 comments



दूं तुम्हे अपनी ख़ुशी,
या संसार की हर इक ख़ुशी,
या तुम्हे खुशियों का ही संसार दूं...
बोलो क्या उपहार दूं..

चाँद मांगो चाँद दूं,
हर ख़ुशी आबाद दूं,
या गगन से तोड़कर,
तारे हजार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..

यूं ही हंसी खिलती रहे,
हर ख़ुशी मिलती रहे..
मुस्कान पर हर इक तुम्हारी,
जां निसार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..

गम तो बीते वक़्त की हों दास्ताँ,
दर ख़ुशी पर ही रुके हर रास्ता,
दिल कहे दिल का ही
तुमको हार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..

Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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बोलो क्या उपहार दूं....

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 8/25/2009 04:55:00 pm 1 comments


दूं तुम्हे अपनी ख़ुशी,
या संसार की हर इक ख़ुशी,
या तुम्हे खुशियों का ही संसार दूं...
बोलो क्या उपहार दूं..

चाँद मांगो चाँद दूं,
हर ख़ुशी आबाद दूं,
या गगन से तोड़कर,
तारे हजार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..

यूं ही हंसी खिलती रहे,
हर ख़ुशी मिलती रहे..
मुस्कान पर हर इक तुम्हारी,
जां निसार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..

गम तो बीते वक़्त की हों दास्ताँ,
दर ख़ुशी पर ही रुके हर रास्ता,
दिल कहे दिल का ही
तुमको हार दूं..
बोलो क्या उपहार दूं..
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Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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भारतीयों-पाकिस्तानियों को जिन्ना और नेहरु के विषय में अधिक बताने की आवश्यकता नहीं है. यह भी कहने की जरूरत नहीं है कि दोनों महापुरुषों के सपनों का उनके द्वारा निर्मित देशों में क्या हश्र हुआ, अंतर सिर्फ उन्नीस या बीस का हो सकता है? नेतागण हिंदुत्व की दुहाई देकर, हमारे मासूम जनता का रक्त-तिलक लगाकर केंद्र और सूबाई सत्ता का उपभोग करते ही किस प्रकार गिरगिटिया रंग बदलने लगे. सिर्फ नरेन्द्र मोदी जैसे बिरले ही उसका अपवाद हो सकते हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, पूर्व रक्षामंत्री जसवंत सिंह, आर. एस. एस. के सरसंघचालक कुप्पा हल्ली सीता रमैय्या सुदर्शन जैसे लोग जिन्ना और हिंदुत्व की कसौटी पर कितना खरा उतरते हैं- जनता महसूस कर रही है.


भारतीय समाज 'वसुधैव कुटुम्बकम' और 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया' के सिद्धांत पर अमल करता आया है और हमारे लिए 'ग्लोबल विलेज' की अवधारणा नई नहीं है. हमने विदेशी प्रहार झेले हैं तथा प्रतिरक्षात्मक रणनीति ही अपनाई है, कभी आक्रामक प्रतिशोधी रणनीति पर नहीं चले. एक आम भारतीय होने के नाते मैं धर्मनिरपेक्ष पार्टी कांग्रेस से अपेक्षा करता हूँ कि, चूँकि आप पर तुष्टिकरण का आरोप लगता रहा है एवं सच्चर कमिटी की रिपोर्ट से साबित होता है, कि अकलियत के भाइयों के प्रति आपकी पार्टीगत सोच प्रगतिशील है. कांग्रेस के नेतृत्व में हमारे मुसलमान भाई राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति, लोकसभाध्यक्ष, मुख्यमंत्री, राज्यपाल आदि अहम् पदों को सुशोभित कर चुके हैं.

अक्सर कहा जाता है कि नेहरु ने विभाजन स्वीकार कर लिया, लेकिन जिन्ना को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया... हम इतिहास को तो बदल नहीं सकते, लेकिन नेहरु जी के नाती-वधुओं अर्थात सोनिया गाँधी और मेनका गाँधी तथा परनाती राहुल गाँधी और वरुण गाँधी एवं परनातिन प्रियंका से अपील करता हूँ, कि वे ऐसी राजनीतिक परिस्थितिया तैयार करें, ताकि किसी मुस्लिम नेता को प्रधानमंत्री बनाकर उक्त ऐतिहासिक कलंक को धोया जा सके. इससे भारत-चीन संबंधों को भी बल मिलेगा.

कोरा सच है, कि भविष्य में सत्तापक्ष और विपक्ष की राजनीति राहुल-वरुण के आसपास ही घूमेगी. कांग्रेस पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन के नाती एवं अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री, सलमान खुर्शीद या भाजपा भागलपुर के सांसद शहनवाज हुसैन को प्रधानमंत्री बनाने का साहस दिखाए तो २१ वीं सदी का इतिहास बदल सकता है. यह सांप्रदायिक सौहार्द का सबसे बड़ा नमूना होगा....और वोट बैंक की राजनीति......?
ऐसा करने के बाद पश्चाताप भी व्यक्त हो जायेगा..

-Kamlesh Pandey, Spl. Correspondent, Swaraj T.V.


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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