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दुनिया खत्म हो जाएगी, फिर से सृष्टि का निर्माण होगा, शुरू से जीव-जन्तु पनपेंगे... और भी जाने क्या-क्या ?? यह मेरा कहना नहीं है, बल्कि पिछले दिनों कई समाचार चैनल पृथ्वी के खत्म होने की बात करने में लगे थे। कहा जा रहा है कि 21 दिसम्बर 2012 से समस्त पृथ्वी का विनाश होगा। घोर तबाही होगी, प्रलय होगा। यह कोई हम आप की बुद्धि से उभरने वाला भय मात्र नहीं। बल्कि जानकारों का मानना भी है कि जितनी बार भी पृथ्वी का निर्माण हुआ है। उनमें से अभी तक की होने वाली खोजों मे 2012 से आगे की तिथि के कोई अवशेष नहीं मिले हैं तथा माया सभ्यता कैलेंडर इसी तिथि को ही आकर समाप्त हुआ है। माना जाता है कि अब से पहले तीन बार पृथ्वी का निर्माण हो चुका है और हर बार इसी तारीख को पृथ्वी का अंतिम समय था।
क्या यह सच है ? अथवा कुछ अवषेश मिलने के कारण आगे के समय के बारे में अनुमान लगाया गया है। पृथ्वी की उम्र कितनी हो चुकी है इस सवाल पर वैज्ञानिक कभी एक मत तो नहीं हुए लेकिन वर्तमान दौर में तकनीकी विकास ने दुनिया के अंत की अटकलें लगाने में सहूलियत जरूर पैदा कर दी हैं। एक ब्रिटिश सॉफ्टवेयर जो किवेब-बॉटके नाम से जाना जाता है, का आकलन है कि 21 दिसम्बर 2012 इस दुनिया का अंतिम दिन होगा या विश्व में इस दिन कोई घनघोर तबाही होगी जैसा अभी तक के इतिहास में नहीं हुआ। इस तारीख तक पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र पूरी तरह बदल जाएगा जो जीवन के अस्तित्व के लिए खतरा होगा। कुछ खोजकर्ता इस बात का दावा कर रहे हैं कि माया सभ्यता के कैलेंडर में इस बात का जिक्र है कि पृथ्वी का विनाश हो जाएगा, लेकिन विनाश कब होगा इसका कोई निश्चित आकलन नहीं है। विनाश अगर होगा भी तो अचानक नहीं। विनाश की प्रक्रिया धीरे-धीरे होती है, जैसे पहले हुई थी। जब से पृथ्वी बनी हैं, विनाश के कई चरण हुए हैं, कई प्रजातियां विलुप्त हुई तथा नई आई हैं। भूगर्भीय साक्ष्य भी पृथ्वी पर कई प्राचीन विनाशकारी हलचल को दर्शाते हैं। चाहे वे भूकम्प के रूप में हो या ज्वालामुखी के रूप में या ग्लोबल वार्मिंग या हिमयुग के रूप में।
एक विचारणीय पहलू यह भी है कि विश्व के सभी धर्मो में जल को ही महाप्रलय का कारण माना गया है। इसी क्रम में दो महाद्वीपों का नाम उभर कर आता है जो आज महासागर के नीचे है। इनका नाम है ‘‘लेमुरिया एवं मु’’ विश्व के खोजकर्ताओं का दावा है कि इन दोनों महाद्वीपों की सभ्यता काफी विकसित थी। प्रश्न ये है कि अगर यह दोनों महाद्वीप विकसित थे, तो ये समुद्र में कैसे समा गए ? क्या समुद्र के बढ़ते जलस्तर ने इनको अपने अन्दर समा लिया या किसी भूगर्भीय हलचल के चलते यह महासागर के अन्दर चले गए। सवाल यह है कि अगर पृथ्वी का ताममान यूं ही बढ़ता रहा तो आने वाले समय में कोई दूसरी ‘‘लेमुरिया या मु’’ जैसी घटना होने से कैसे इंकार किया जा सकता है ?
यदिवेब-बॉटकी बात की जाए तो 1990 में वेब बॉट का खासतौर पर शेयर बाजार की भविष्यवाणी करने के लिए विकास किया गया था। जिसने 2001 में वशिंगटन डीटी मे आई महामारी की भी चिन्ता जताई थी, 2004 में हुए भूकंप, 2009 में अमेरिका मे आए कैटरीना तूफान की भविष्यवाणी भी की थी, ये घटनाएं घटित भी हुई। अब सोचना यह है कि क्या 21 दिसम्बर 2012 की कहानी भी सच होगी?
यदि बाईबल की ओर नजर की जाए तो उसमें यह लिखा गया है कि कोई बड़ा प्रलय निश्चित है, लेकिन किसी भी तरह की तिथि की बात नहीं की गई है।
अब तो समाचार चैनलों के साथ-साथ डिस्कवरी चैनल और हिस्ट्री चैनल जैसे चैनल भी पूरी तरह से खुल कर जनता को डरा रहे हैं। हो सकता है यह विश्व को सतर्क करने की पहल हो, परंतु ऐसी भी सर्तकता क्या जो किसी के मन मे भय ही बैठा जाए ? मैंने जब यह सुना कि 2012 में पृथ्वी नष्ट हो जाएगी, तो मन मे विचार आया, अब पढ़ने का क्या फायदा ? छोड़ो, दो साल बाद तो मरना ही है। मुझ जैसे ऐसे कितने ही लोग होंगे जिन्हें भय ने ऐसा सोचने पर मजबूर कर दिया होगा। लेकिन फिर भी जिन्दगी धड़ल्ले से चल रही है। जनता को आकर्षक खबरों का बड़ा शौक होता है। इसी के चलते जो नहीं भी है उसे भी बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है। हद तो तब होती है जब समाधान बताकर यह कहा जाए कि अब कुछ नहीं किया जा सकता। पृथ्वी का विनाश और जीवन का अंत निश्चित है। और अब तो इस विषय को लेकर ‘2012’ के नाम से एक हॉलिवुड फिल्म भी गई है। फिल्म के बाद से यह विषय और भी अधिक चर्चा में है।
हमने स्कूल, कॉलेज में पढ़ा है कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने से वह रुष्ट हो जाएगी और सर्वनाश होगा। क्या हमने सोचा है कि यह 2012 की कहानी क्यों गढ़ी जा रही है ? इन सभी बातों के पीछे क्या कारण है ? इसका जवाब यह है कि हम बिना सोचे समझे प्राकृतिक संसाधनों को बरबाद कर रहे हैं, उसके प्रतिकूल व्यवहार का प्रदर्शन कर रहे हैं। प्लास्टिक बैग्स का प्रयोग, रसायनों का अत्यधिक उपयोग, कूड़ा फेंकना, प्रगति के नाम पर वनों का विनाश करना, खूब शोर मचाना, पूजा पाठ के नाम पर नदियों को गन्दा करना, ये सब हमारी गलतियां हैं। क्या कभी सोचा है कि वह सब कूड़ा जिसे हम कहीं भी फैंक आते हैं, वह कहां जाता होगा ? क्या वह नष्ट होगा ? या कहीं जाकर इकट्ठा हो जाएगा ? जिससे धरती की गोद बंजर होगी या पानी का प्रवाह रूकेगा। गन्दे रसायन जो फैक्ट्रीयों से निकलते हैं वह नदियों के स्तर पर जाकर इकट्ठा होते हैं और जल के जीव-जन्तुओं को सांस लेने में परेशानी होती है। सूर्य की किरणें उन तक नहीं पहुंच पाती। क्या यह सब दोष हमारा नहीं है, जो ये पृथ्वी का अंतिम समय नजदीक बताया जा रहा है। हम प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहे हैं। यह सब वो आम बातें हैं जो हर जगह कही जाती हैं, लेकिन अगले ही पल, सभी चेतावनियां भूल कर हम वही भूल दोहराते हैं, जो खतरनाक है। विनाश तो होगा ही। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। सर्दी समय से नहीं बढ़ती। वर्षा ऋतु समय से नहीं आती गर्मी के प्रकोप से जंगल जल रहे हैं। मछलियां अपने आप मर रहीं है, किनारे ढेरों मछलियां बहकर लग जाती हैं। साफ पानी पीने को नहीं है, हम बेधड़क .सी, फ्रिज का प्रयोग कर रहे हैं। रोज जाने कितनी गाड़ियों, फैक्ट्रीयों से निकले धुएं प्रकृति पर गहरा असर छोड़ रहे हैं। ओजोन परत में छिद्र बढ़ता जा रहा है। रोज़ बैठकें होती हैं। इतने सारे एनजीओ सुधार कार्य में लगे हैं। कोपनहेगन में भी लड़ने मरने के अलावा कुछ नहीं हुआ। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, लेकिन हमारा हाल वही है। हम अब भी यही सोचते हैं कि मैं ही क्यूं करूं ? सब गन्दगी फैला रहे हैं, तो एक मेरे प्रयास से क्या होगा ? हमें शायद यह मालूम नहीं कि हमारी देखा-देखी ही दूसरे भी करेंगे और दो से चार लोग साथ आयेंगे, जिससे यह गिनती बढ़ती जाएगी। नहीं तो फिर वही होगा, फिर कोई नया चैनल तोड़-मरोड़ कर कुछ नया पेश करेगा और हम एक दूसरे पर उंगलियां उठाते रह जायेंगे। लेकिन यहां यह बात बताने वाली है कि 2012 में होने वाला विनाश जो शायद हम रोक भी सकते हैं, हमारे ही कारण स्वरूप लेगा। कहा जाता है कि ड्रैगन्स, जो कई करोड़ वर्षों तक पृथ्वी पर रहे, मानव जाति उसके पलक झपकाने जितने समय तक भी पृथ्वी का साथ नहीं दे पाई। इतने कम समय में मनुष्य ने पृथ्वी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है।
सवाल माया सभ्यता की आहट से आतंकित होने या होने से नहीं है, सवाल है मानवीय सभ्यता के उतावलेपन का। यह उतावलापन अनियंत्रित उपभोग का है। उपनिषद की यह पंक्ति ‘‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथाः’’ यानीत्याग पूर्वक भोग करोके जीवन-सूत्र को हम भुला बैठे हैं। असीमित भोग की चाहत से कुदरत की बनाई यह खूबसूरत दुनिया जिस तरह से तबाह हो रही है, वह सब हम लोग सिर्फ सुन ही नहीं रहे हैं, बल्कि प्रत्यक्ष भोग भी रहे हैं। दुनिया के वैज्ञानिक लगातार चिन्ता जाहिर कर रहे हैं कि धरती के बढ़ते तापमान से यह दुनिया धरती में समा जाएगी। बांग्लादेश के तटवर्ती इलाकों के निवासियों का पलायन अभी से ही शुरू हो गया है। भय इस कदर से व्याप्त है कि लोग ऊंचे टीलों की तलाश अभी से करने लग गए हंै। सुनामी, का झटका हम झेल चुके हैं। दुनिया के निज़ामों के पास इस धरती को बचा लेने का कोई इंतजाम शेष नहीं है। तमाम संधियों और कोपनहेगन के बकवास का परिणाम हमारे सामने है। संसार की सियासत जिस बेलगाम उपभोक्तावाद के आगोश में समाई हुई है, वह सबके सामने है। परिणामोत्पादक पहल का इंतजार बेसब्री से किया जा रहा है। इस आलोक में माया सभ्यता की आशंकाओं पर अविश्वास भी कैसे किया जा सकता है ?


Suman Kumari


Nirman Samvad

2 Response to "सृष्टि विनाश की ओर.. क्या माया सभ्यता की भविष्यवाणी सत्य होगी?"

  1. ऐसा कुछ नहीं होगा हाँ आप माया की
    बात करते हैं सूरदास जी ने ही कह
    दिया था कि हाहाकार जैसी स्थिति
    तो अवश्य होगी काल का ताण्डव अवश्य
    होगा पर सम्पूर्ण सृष्टि खत्म नहीं होगी
    आप लोग (आम लोग ) क्योंकि
    धार्मिक अध्ययन को यहा तो श्रद्धा से
    अथवा भय से अथवा संस्कार वश करते
    हैं इसलिये ये भ्रान्तियां पैदा हो जाती हैं
    अगर खोजी तरीके से अध्ययन करें तो
    सारे उत्तर यहीं मौजूद हैं सत्य यहीं हैं
    परमात्मा यहीं हैं
    हरि व्यापक सर्वत्र समाना प्रेम से प्रकट होत
    मैं जाना . जाहिर है मनुष्य के पास प्रेम
    नहीं हैं अथवा वो करना नहीं चाहता
    शुभकामनाएं
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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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