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शायद ही कोई दूसरा देश होगा जहां राजनीतिक और प्रशासनिक महकमा भारत जितना भ्रष्ट हो। हमारा सारा सिस्टम धोखेबाजी पर टिका है। और जो जितना बड़ा धोखेबाज है, वह न सिर्फ सबसे बढ़िया कुर्सी पा जाता है, बल्कि मालामाल भी हो जाता है। राजनीतिक और प्रशासनिक सत्ता पाने के बाद एक ही मकसद रह जाता है। सरकारी पैसे और सुविधा को अपने करीबी लोगों के बीच बांटना।
आज दुनिया भर में आवाजें उठ रही हैं भ्रष्टाचार के खात्मे के लिये। वल्र्ड बैंक जैसी संस्था भी इस पर जोर देती है लेकिन भ्रष्टाचार ने अपना पांव ऐसे फैला रखा है कि वह खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। इस भ्रष्टाचार की शुरूआत ही राजनीति से हुई। हर छोटा बड़ा नेता घूस ले-देकर ही अपनी जीत का रास्ता तैयार करता है। इस लिस्ट में उ.प्र. और बिहार जैसे राज्य सबसे पहले है। उ.प्र. के आई. ए. एस. अफसरों का एक संगठन एक गुप्त मतदान के जरिए यह काम करता था कि कौन सबसे ज्यादा भ्रष्ट है, पर बाद मे उ.प्र. की सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी और भ्रष्टाचार को खुली छुट दे दी। राजनीति एक महंगा सौदा है। अगर कोई राजनेता पैसा नहीं बना सकता तो सत्ता में वापसी नहीं हो सकती। एमएलए के चुनाव में 5-6 करोड़ रुपये लग जाते हैं। और लोकसभा चुनाव के लिए जितना खर्च करो, उतना कम है। जहां तक भ्रष्ट लोगों की बात है, इज्जत और ईमानदारी की बात करने का जमाना गया। सरकार ने ऐसे कानून बनाए हैं जिससे भ्रष्ट का भ्रष्टाचार साबित करने में ना जाने कितने साल लग जाते हैं। राजनीति में पहले उतना भ्रष्टाचार नहीं था जितना के 80 के दशक के बाद हुआ है। धीरे-धीरे राजनीति अपराधियों के लिए एक ऐसा गढ़ बन गया है, जिसमें आकर सभी अपराधी साफ - सुथरे हो जाते हैं। यहां हर राजनीतिक पार्टी भ्रष्टाचार में लिप्त हो गई है। लोग राजनीति में आते हैं देश का विकास करने के लिए लेकिन जीतने के बाद ये अपना और अपने परिवार का ही विकास करते हैं। देश का विकास पीछे छूट जाता है। लालू यादव, मधु कोड़ा, मायावती, शिबू सोरेन और न जाने कितने नेताओं के नाम भ्रष्ट नेताओं की सूची में शामिल हैं। सरकार ने इनके खिलाफ एक जांच कमेटी का गठन तो किया, परन्तु जैसे-जैसे सरकारें बदलती गईं, जांच की प्रक्रिया भी बदलती चली गई। जितने पैसे का घोटाला नहीं हुआ उससे कहीं ज्यादा पैसा जांच के नाम पर खर्च हो गया। परन्तु इस जांच का नतीजा क्या निकला यह किसी से छिपा नहीं है। मायावती का नाम ताज कॅरिडोर घोटाले में शामिल है। और सरकार ने बडे पैमाने पर इसकी जांच के लिए कमेटी का गठन किया, परन्तु घोटालों से ज्यादा पैसा जांच करने मे लग गया और जांच भी पूरी नहीं हो पाई। इसके अलावा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का चारा घोटाला जो लगभग 50-60 लाख का था, घोटाले का पैसा तो नहीं मिला पर करोड़ों रुपये जांच के नाम पर खर्च हो गए। इसी तरह झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रहे मधु कोड़ा पर भी 8 हजार करोड़ से भी ज्यादा का धोखाधड़ी का आरोप है, जांच चल रही है, पर नतीजा आने में न जाने कितने साल लग जाएंगे।
एक सर्वे के मुताबिक भारत में हर साल 20,068 करोड़ रुपये की रिश्वतखोरी होती है। माना कि भ्रष्टाचार सारी दुनिया में है, लेकिन हम शायद इस मामले में भी अव्वल होना चाहते हैं।

शहनाज़ अंसारी

0 Response to "गबन से ज्यादा जाँच पर खर्च, शिष्टाचार का रूप लेता भ्रष्टाचार"


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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