शाम ढलते ही शमा जल उठती. परवाना शनैः-शनैः महफिल की ओर सरकता. घुंघरूं की बोलों में आमंत्रण होता. शमा-ए- महफिल के कद्रदानों की कमी नहीं होती. कोठों पर कद्र भी खूब था. ना लूट, ना खसोट.. बख्शिशों का सिलसिला थमता नहीं जब तक बलखाती वारांगना की कमर लचकती. अदा और अदावत का संगम बेहतरीन बनता. इन नाजनीनों का नखरा, श्रृंगार में तब्दील होता. सुरों में शाश्त्रीय संगीत का रस होता. सत्य था कि संगीत कंठों से निकलकर कोठों पर पहुँच गया. बावजूद सामवेद की ऋचाएं यूँ ही समझ की हद में आती.
पर आज सब कुछ बदला-बदला सा नजर आता है. कोठों से अब घुंघरू की आवाज सुनाई नहीं पड़ती. अब वहां से चीखें सुनाई पड़ती हैं.. लहूलुहान जिंदगी का आर्तनाद.. बदनाम गली की इस अँधेरी गुफा में मासूमों और बेसहारों को क्या-क्या नहीं करना पड़ता...
मैं जी.बी. रोड पर इफ्तखार खान की चाय पी रहा हूँ. सामने खड़ी होती है सकीना. आगंतुक के इंतजार में थकी-थकी सी. जबरदस्ती प्रश्न करने के लिए मैं खड़ा था. . जी. बी. रोड के चहल पहल और कमाई के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा,‘‘यह भीड़ मेरे लिए नहीं है. इतनी दुकानें खुल गयी हैं. यहाँ मैं ही नहीं बिकती हूँ, यहाँ मोटर पार्ट्स और मशीनें भी बिकती हैं और जो ये तक-झांक वाले हैं, ये बिल्कुल ही छिछोरे हैं.
बेरोजगारी की स्थिति में ऐयाशी के लिए पैसा कहाँ? और जिनके पास पैसा है, वह यहाँ क्यों आयेंगे? हर गली-मोहल्ले में देह हाजिर है. घर ही कोठा हो गया. प्रोफेशनल को अब शारीरिक रिश्ते बनाने से परहेज कहाँ.
घरों में भी घुँघरू बजेंगे तो यहाँ कोई क्यों बीमारी खरीदे..’’
कोठा नं. 38 से 71 तक बासी जिंदगी पसरी हुई है. पहले पहाड़गंज के लक्कर बाजार में यह सब होता था. वहां का रेडलाईट एरिया अब कार्पोरेट एरिया में तब्दील हो गया है. जी. बी. रोड भी धीरे-धीरे बदनाम हुआ. शुरुआत में शहतारा गली के दादाओं की दादागिरी थी. उनकी मनमानी चलती थी. बगल में एक कॉलेज भी था. वहां के लड़के बहुत बदमाशी करते.
राजस्थान से लायी गयी पूनम बड़ी मुश्किल से बात करने के लिए तैयार होती है. वह बताती है कि,‘मात्र 10कोठों के पास लाइसेंस है, वो भी सिर्फ मुजरा के लिए. मुजरा तो केवल बहाना है. यहाँ वही होता है, जो अवैध है. कोई भी संगीत प्रेमी नहीं, सब शरीर प्रेमी हैं. मजबूरी में संगीत को साइड करके शरीर को सेल पर लगाती हूँ..’
हरिश्चंद्र कोठा की पहचान छीना-झपटी की नहीं है. वहां हाई प्रोफाइल लड़कियां हैं. आज यहाँ दलालों का मेला है. ग्राहक कम, दलाल ज्यादा है. पहले ग्राहक दलाल को खोजते थे, अब दलाल ग्राहक को खोजते हैं. कोई रिक्शा या अनजान आदमी जी.बी. रोड पर आया कि सब घेर लेते हैं.
यही रोज का किस्सा है.
-Vijayendra
Editor
Nirman Samvad
अब कोठों से घुंघरू की आवाज नहीं, चीखें सुनाई देती हैं
Posted by
AMIT TIWARI 'Sangharsh'
On
4/21/2010 03:08:00 pm
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