बिहार में भूमि समस्या को लेकर बार-बार सवाल खड़े होते हैं और जातीय चेतना उसे भूमिहार समस्या बनाकर अंतहीन मुकाम पर पटक देती है। इस काम में राजनेताओं, अधिकारियों और सम्प्रभु वर्ग के लोगों की खास रुचि रहती है। भूमि समस्या को लेकर फिर बवाल जारी है। वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ‘बन्दोपाध्याय आयोग’ का गठन किया। उसकी अनुशंसाओं को लेकर ताजा विवाद जारी है। ‘जमीन किसकी-जोते उसकी’ के नारों ने बिहार में विगत साठ साल की राजनीति, समाज, संस्कृति और अर्थशास्त्र को खासा प्रभावित किया है।
सर्वोदय, सामाजवादी साम्यवादी, नक्सल, सम्पूर्ण क्रांतिवादियों का इस सवाल पर खासा दखल रहा है। भूदान, जमीन हड़पो, भूशोषण का अंत होगा आदि कई प्रतिनिधि आन्दोलन भी हुए। कांग्रेस ने भी आजादी के जमाने में जमीन, जोतने वाले के हाथ देने की बात कही थी। आजादी के बाद बिहार में बटाईदारी कानून, सिलिंग एक्ट, चकबंदी जैसे कई कानूनों के बावजूद जमीन को लेकर गर्मी कायम है। निश्चय ही इस परिस्थिति के पीछे नीति, नीयत और नेतृत्व के स्तर पर विरोधाभास कायम है। भूमि को लेकर गहरे स्तर तक कुछ खास बात है। इसे समझे बगैर इस समस्या को लेकर पक्ष या विपक्ष की बयानबाजी के निहितार्थ कुछ और हो सकते हैं और पटरी पर आ रहे बिहार को पीछे ढकेला जा सकता है। कानून बने हैं। लागू करने की नीयत नहीं है। इसे लागू करने वाला नेतृत्व नहीं है।
भूमि समस्या को लेकर आप तब तक समाधान नहीं निकाल सकते हैं, जब तक कि खेती के सवालों पर विचार नहीं करेंगे। इसके लिए भूमि की अवधारणा और वितरण को चिन्हित करना आवश्यक होगा। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के समय में स्वामी सहजानन्द सरस्वती के दबाव में जमीन्दारी उन्मूलन कानून बना और लागू हुआ। बड़े पैमाने पर जमीन के फर्जी बंदोबस्ती के मामले उभरकर आये। कांग्रेस के समय में ही आचार्य बिनोबा के नेतृत्व एवं लोकनायक जयप्रकाश के सहकार से भूदान में जमीन प्राप्त किया गया। बिहार भूदान यज्ञ कमिटी का गठन कर इसे भूमि वितरण करने की जिम्मेदारी दी गई। जो आज तक पूरा नहीं हुआ। आजादी के बाद समाजवादी और साम्यवादी आन्दोलनों के दबाव में बटाईदारी एवं सिलिंग के कानून बने। जो ईमानदारी से आजतक लागू नहीं हो सके। आनेवाली सरकारें समय-समय पर जमीन वितरण का पाखंड भी करती रहीं। यहां तक कि पोखर, तालाब और चरागाह तक भी बाँट दिये गये। जिसका दुष्परिणाम यह भी निकला कि परम्परागत जल संरक्षण और सिंचाई तंत्र खत्म हो गया। मछली, मखाना उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ा। आज के बिहार में भूदान और सरकारी पर्चाधारियों की एक बड़ी जमात ऐसी खड़ी है कि जिसे पर्चा तो मिला है, दखल कब्जा नहीं है। उनका दाखिल खारिज नहीं है। सच तो यह है कि बिहार सरकार के पास जमीन का रिकार्ड भी नहीं है। मुंशी पटवारी के हेराफेरी का नाप है बिहार राजस्व विमाग। आज का सच यह है कि बटाईदारी का स्थान अब ठेकेदारों ने ले लिया है। जमीन का कागजी मालिक (दो बीघे वाला भी हो सकता है) घाटे की खेती, पूंजी के अभाव तथा मजदूरों के पलायन के कारण चपरासी की नौकरी करना पसन्द करता है, खेती नहीं। जमीन छोटे-छोटे जोतों मे बदल चुकी है।
बिहार में खेती अब सभ्यता और संस्कृति नहीं है। संस्कार भी नहीं है। मजबूरी है। अतिरिक्त आमदनी का जरिया है। दूसरी तरफ सबसे उन्नत भूमि, अकूत जल और शरीर-श्रम तो बिहार के पास है। कृषि आधारित उद्योग तो खड़े ही नहीं हुए। परम्परागत उद्योग भी खत्म हो गये तो, एक मात्र प्रवाह का नाम पलायन है। राजनेता खुश हैं कि पलायन से राज्य में पैसा भी आता है और विरोध का स्वर भी कमजोर पड़ता है।
दरअसल भूमि समस्या को लेकर सरकार के स्तर पर घोर बेईमानी और नीयत खोटी है। भूमि अगर सम्पत्ति है तो फिर शहरी भूमि हदबंदी कानून को समाप्त करने के पीछे क्या है ? हदबंदी की बात कृषि-भूमि को लेकर ही क्यों ? एक तरफ बटाईदारी कानून, सिलिंग एक्ट तो दूसरी तरफ भूमि अधिग्रहण कानून का विरोधाभास, नीयत में खोट का प्रमाण है । बिहार में भी चीनी मिलों के पास उद्योग के नाम पर हजारों एकड़ भूमि का होना क्या प्रमाणित करता है? अगर सम्पत्ति है तो फिर सम्पत्ति हदबंदी कानून क्यों नहीं है ? एक सवाल और है कि आजादी के बाद पूंजीवाद से जिस मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है, उसके हाथ बड़े पैमाने पर भूमि का हस्तांतरण हुआ है। दुर्भाग्य से स्वनामधन्य भूमिहार जाति के नेताओं को अपने ही समाज का सच नहीं मालूम है।
असली प्रश्न तो है नीयत का, नेतृत्व का। उसे ईमानदारी से अपनी नीतियों को लागू करना चाहिए। जो राजनीतिक कारणों से वह नहीं कर सकती है। परम्परागत रोजगार के खात्मे के कारण खेती पर आबादी का जो दबाव बढ़ा है उसे रोजगार सृजन कर ही हल किया जा सकता है, जिसकी तैयारी सरकार की नहीं है। परम्परागत हुनरों को संरक्षित कर, कृषि-आधारित उद्योग खड़ा कर, गाँवो का पुनः औद्योगीकरण कर ही हम उस आक्रोश को दिशा दे सकते हैं जो मजबूरी में जमीन तक ही सिमट आता है।
आज बिहार की खेती अलाभकारी, अनउपजाऊ और मजबूरी हो गयी है। इसका इलाज अब वह नहीं है जो हमारे राजनेता कह रहे हैं। खेती,पशुपालन, मत्स्यपालन, कृषि-उद्योग, ग्रामीण-उद्योग की अपार संभावनाओं का बिहार हिंसा की तरफ बढ़ेगा तो राष्ट्र भी कमजोर होगा। हरित क्रांति के रोडमैप में विगत साठ साल में बिहार क्यों नहीं आया ? दरअसल सोच समझकर बिहार के बहार को जहरीला एवं कंटीला बनाया गया । इस पर समग्रता से विचार करना चाहिए।
कम से कम आज की सरकार में बैठे लोगों को तो पता है कि समाज के प्रत्येक नागरिक को रोटी और इज्जत चाहिए। जिसका समाधान- ‘‘एक आदमी एक रोजगार- खेती, नौकरी, उद्योग या व्यापार’’, इन लोगों ने कई बार सुझाया है। इसकी तैयारी क्यों नहीं है ? दरअसल ‘बन्दोपाध्याय कमिटी’ की सभी अनुशंसाओं पर विचार करने, लागू करने का मन और हिम्मत भी बिहार के नेताओं में नहीं है। विपक्ष और पक्ष दोनों ‘चूहा-बिल्ली का खेल’ खेल रहे हैं।
अंततः यह कहना सही होगा कि बिहार का वर्तमान पक्ष और विपक्ष दोनों की वैचारिक प्रेरणा, अंग्रेजों द्वारा बनाये गये स्थायी बन्दोबस्ती कानून को गलत मानने वाले लोग रहे हैं। क्या बिहार सरकार, बिहारी समाज व्यापक बहस और मंथन द्वारा भूमि स्वामित्व को सामाजिक स्वामित्व (गाँव) में बदलने को तैयार होगा ? अगर नहीं ? तो भूमि समस्या का एक सिरा अगर जमीन वितरण से जुड़ा है तो दूसरा सिरा भूमि को बचाने से जुड़ा है । पूंजीवाद के इस खेल से बचना ही बुद्धिमानी है।
Dr. Vijay
Bihar
Nirman Samvad (वर्ष 3, अंक 42)
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