सोना-चांदी, हीरे-मोती को हम जमीन में गाड़कर रखते थे. इससे जुडी कई किस्से कहानियां माँ सुनाती थी. दूध की नदियाँ बहती थी......! दाल को कौन पूछता था..
जिस दिन घर में अच्छी सब्जी नहीं बनती थी, दाल-रोटी से संतोष करना पड़ता था. रोटी से ज्यादा दाल उपलब्ध थी. माँ पुचकारती और कहती कि 'दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ.' बहुत बेचैन हूँ आजकल मैं, कि जिस तरह थाली से दाल गायब हो रही है, प्रभु का गुण कैसे गाया जायेगा? इस साली दाल के बिना मेरे दीनानाथ का क्या होगा? धर्म विरोधी सरकार को तनिक भी चिंता है इस बात की?!
घर की मुर्गी भी नानी बहुत हैसियत बघारती थी. दाल को तो दो कौडी का समझा जाता था. मुर्गियां उदास हो गयी हैं. दाल आज उसे मुंह चिढा रही है. कोई कह के देखे कि 'घर की मुर्गी दाल बराबर.!'
एक आशिक मित्र डॉ. पवन बहुत ही रंगीन मिजाज के हैं. मेल, ईमेल पर चिपके रहते हैं. मैंने पूछा कि भाई शादीशुदा होकर क्यों इधर-उधर मुंह मारते हो? तपाक से उन्होंने कहा कि 'यार घर की दाल खाते-खाते ऊब गाया हूँ. एकरसता तोड़ना भी तो जरूरी है.' यानि पत्नी भी दाल बराबर थी. कितना उपहास और अपमान दाल को झेलना पड़ा है, यह हम समझते हैं. दाल इस तरह सर्वसुलभ थी कि दाल पीकर गुजारा कर लेते थे. अब बेटा पवन के घर में ही दाल नहीं है तो बाहर कहाँ जायें.... दाल के बिना दाम्पत्य जीवन दलदल हो गया है.
हमारे खेत में दलहन बहुत होता था. चावल की उपज कम थी. माँ दाल ज्यादा बनाती ताकि चावल की खपत कम हो. भूले भटके अपने कस्बाई शहर में जब कभी भी जाता तो होटल में ५ रूपया प्रति प्लेट भोजन था, जिसमें चावल की मात्रा तो निश्चित थी पर दाल पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता था. एक ही प्लेट में भूख को निपटाना होता था, इसलिए होटल में दाल पीने पर ज्यादा जोर देता.
अभी मैं दिल्ली आ गया हूँ, हिम्मत पस्त हो गयी है. आखिर सौ रूपया दाल मैं कैसे खरीदूं? लगातार बचने का प्रयास कर रहा हूँ कि दाल खरीदना न पड़ जाए..
इधर सरकार ने नया चैनल शुरू किया है, जिसका नाम है दाल-दर्शन. इस चैनल पर एक से एक मोडल और हीरो-हिरोइन दाल के विज्ञापन में जुटेंगे. "चने का खेत हो तो जोरा-जोरी संभव है." दाल की प्रचुरता ही सम्बन्ध और सगाई का आधार होगा. दहेज़ में दाल दिया जायेगा. दाल ही सौगात होगी. दाल, दुल्हन और दहेज़ पर वैचारिक बहसें भी होगी. ट्रक के पीछे लिखा होगा 'दुल्हन ही दाल है.' गाँव में एक नयी भाभी आई थी. चिढाने के लिए हम लोगों ने उनका नाम रखा था- दलसुरकी भौजी. यह सुन भौजी आगबबूला होती. इस मजाक के कारन दाल तब वह बिना आवाज के खाती थी.
आज सारे बिम्ब गायब हैं. दाल से जुड़े ना तो मुहावरे हैं, ना कोई लोकोक्तियाँ. दाल घरों से, थाली से गायब हो गयी है. रोटी-दाल क्या शेष हैं हमारे लिए?
प्रतिव्यक्ति दाल की खपत पर डाटा कहाँ है डाटाबाजों के पास?
सरकार बनते ही दाल की कीमत दुगुनी क्यों हो गयी?
ए.सी. , कम्प्यूटर, मोबाइल सब सस्ता फिर दाल इतना महंगा क्यों? सस्ती दाल बेचने की नारेबाज सरकार की घोषणा नाकारा साबित हो गयी. शीला सरकार दाल नहीं प्रसाद बाँट रही है. कतारबद्ध पत्नियाँ कटोरा लिए इंतजार करती रहती हैं. "दाल के अरमा पसीने में बह गए.." दाल की उम्मीद में खफा-खफा घर लौट रही हैं. 80 केन्द्रों पर दाल बिकना था. कहीं आई नहीं, कहीं आई तो प्रसाद की तरह.
"ऊंट के मुहँ में जीरा का फोरन..."
दाल का गायब होना एक गंभीर त्रासदी है. मंहगाई सर चढ़के बोल रही है. दाल के इस आतंक पर पक्ष-विपक्ष साझा बयां क्यों नहीं दे रहे हैं?
मंहगाई पर रोक के कौन से कारगर कदम उठ रहे हैं?
आम आदमी से जुड़े इस मंहगाई के सवाल पर संसद में प्रभावी बहस क्यों नहीं?
नकली बहस में फंसाकर देश को भरमाने की कोशिश क्यों?
इतनी मंहंगी सरकार को जनता कब तक बर्दाश्त करेगी?
क्या इस स्वतंत्रता दिवस पर हम यही गीत गाना चाहते हैं:-
"जहाँ दाल-दाल पर रोने का दिल करता है मेरा....वो भारत देश नहीं है मेरा.."
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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
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