रामविलास पासवान यानि मंत्री या फिर सांसद. पासवान कभी सत्ता से बेदखल नहीं हुए. उन्होंने वाजपेयी के साथ भी समय गुजरा और सेकुलरिज्म के नाम पर सोनिया का भी पल्लू थमा.
न तो इन्हें सेकुलरिज्म से लगाव है ना ही साम्प्रदायिकता से परहेज. रामविलास पासवान सत्ता से बाहर नहीं रह सकते. इनका प्राण कुर्सी में बसता है. कुर्सी खींच लो, ये जमीन पर आ जाते हैं.
दुर्भाग्य से इस वक़्त ना तो वह सांसद हैं, न ही मंत्री. ग्लैमर जाते ही सारे संगी साथी छोड़कर भागने भी लगे हैं. कार्यकर्ताओं को टिकाये रखना बहुत मुश्किल होता जा रहा है. खिसकती जमीन को बचाने के लिए उन्होंने बिहार में दलित आन्दोलन की शुरुआत की है.
बिहार में नीतीश की सरकार है. कम से कम यह सरकार निठल्ली तो नहीं है, अन्य सरकारों की बनिस्पत. पिछले पंद्रह सालों में जो नंगा नाच बिहार में हुआ, वह किसी से छिपा नहीं है. उस पर चर्चा करना कागज ख़राब करना है.
कर्पूरी ठाकुर हमारी प्रेणना के स्रोत रहे. उनकी सादगी, सदाशयता और ईमानदारी आज भी राजनीति का मानक है.
कर्पूरी का नाम बेचकर लालू, रामविलास और नीतीश ने अपना कद चमकाया. स्वर्गीय जगदेव, कर्पूरी और लोहिया की विरासत को सम्हालने की जिम्मेदारी बारी-बारी से सबों को मिली.
लालू को पंद्रह वर्षों का मौका मिला. एक गरीब घर का लड़का बिहार का नेतृत्व सम्हालेगा, यह सूचना सुखद थी. पर जो हुआ वह किसी ब्राह्मणवादी और कथित मनुवादी अत्याचार से कम नहीं था. बिहार को जागीर समझ, जागीरदारी को पत्नी, साले, ससुरों के बीच बांटा. बिहार में जिनकी बहू-बेटी इन पंद्रह वर्षों में सुरक्षित रह गयी, वह ईश्वर को धन्यवाद देते होंगे. अपहरण को उद्योग का दर्जा मिल गया था. भ्रष्टाचार, शिष्टाचार में तब्दील हो गया था.
लालू के खिलाफ रामविलास सड़क पर उतरे. १५ वर्षों के लालू के शासन को इन्होने जंगलराज घोषित किया. बिहार ने रामविलास के अभियान को सम्मान दिया, और सरकार बनाने का भी मौका मिला. पर 'मुख्यमंत्री मुसलमान ही हो', की जिद में बिहार को दुबारा चुनाव झेलना पड़ा. जिस जंगलराज के खिलाफ रामविलास ने अभियान चलाया था, वह उसी को दुहराने लग गए. समाज के तमाम अवांछित लोगों को टिकट दिया और जिताया भी. उन शातिर अपराधियों को रामविलास ने क्रन्तिकारी नेता कहा. कथनी और करनी में कोई समन्वय नहीं रहा. तब भी इनको बिहार से कोई लेना देना नहीं था, इन्हें केवल सत्ता चाहिए.
आज पुनः उन्होंने बिहार में अपनी गतिविधियों को तेज़ किया है. लालू ने अपने साले को नहीं छोडा, रामविलास अपने भाई को नहीं छोड़ रहे हैं. इन दोनों नेताओं की पार्टी किसी "प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी" के सिवा और क्या है? लालू जी परिवारवाद से थोडा मुक्त भी हुए, "पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत...." जबकि आज भी राबड़ी से योग्य नेता राजद में लालू को कोई सूझता ही नहीं है. इनके राजनीतिक रतौंधी का इलाज नीतीश ने अच्छा किया है.
इन दोनों रहनुमाओं ने अगर नीतीश से बेहतर काम किया है, तो बिहार की जनता को अवश्य ही इनका साथ देना चाहिए. रामविलास नीतीश प्लस की बात क्यों नहीं सोचते? विकास का प्रश्न क्यों नहीं है इनके पास? जब इनकी पार्टी में लोकतंत्र नहीं है तो बिहार में लोकतंत्र की बहाली कैसे करेंगे? आज भी इनको जातीय समीकरण को मजबूत करने की चिंता है. सूबा बचे या न बचे, समीकरण बचना चाहिए.
लालू से दोस्ती का राज भी तो यही है. कोई बिहार बनाने के लिए दोस्त थोड़े ही बनाये हैं. मिलजुल कर माल कैसे भोगा जाये, जुगाड़ तो इसका है. "यादव, पासवान और मुसलमान; यही होगी इनकी पहचान." रामविलास पासवान की जय हो.
रामविलास पासवान आन्दोलन करें इससे किसी को क्या परहेज होगा? बिहार में विपक्ष का होना भी तो जरूरी है. मजबूत विपक्ष के बिना आखिर सरकार भी तो निरंकुश हो सकती है, इस हिसाब से यह काम अच्छा है. लगे रहो रामविलास भाई!!!
अरे भाई! अगर नीतीश दलितों के बीच फूट डाल रहे हैं तो आप इसकी एकता का ही क्या इस्तेमाल करने वाले हैं, बिहार को बताएं तो!!!!
-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
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