एक प्रेम कहानी लिखने बैठा था. विचार सहज रूप से शब्दों में परिवर्तित होकर कहानी का रूप लेने लगे थे, परन्तु जैसे ही कलम को कागज पर रख रहा हूँ, सब कुछ परिवर्तित होता जा रहा है. मन में प्रेम की परिभाषा ही स्पष्ट नहीं हो पा रही है, तो फिर प्रेम कहानी कैसे तैयार होगी?
प्रश्न उठ रहा है कि प्रेम क्या है? मैं प्रेम कहूँ किसे? क्या उस भावना को जो मेरे मन में किसी 'एक' को लेकर पैदा हुई और उस एक के साथ ही समाप्त हो गयी. या फिर मैं प्रेम कहूँ उस भावना को जो यूँ ही किसी बच्चे की एक बिलकुल निर्दोष सी हंसी देखकर मन में उमड़ पड़ती है? या कि प्रेम कहूँ उस भावना को जो किसी का कष्ट देखते ही मन में पैदा हो जाती है और सहज ही मन उसके कष्ट में डूब सा जाता है?
कभी-कभी लगता है कि प्रेम तो मैंने किया ही नहीं कभी; जब सुनता हूँ मैं किस्से उन प्रेमियों के जिन्हें जिद थी, प्रतिस्पर्धा तो थी परन्तु एक दुसरे से अधिक त्याग कर देने की. जो झगड़ते तो थे परन्तु कुछ पाने के लिए नहीं, वरण कुछ देने के लिए. जिन्हें प्रेम था सच्चा अपनी मातृभूमि से, अपने देश से. और एक हम हैं; प्रेम खोज रहे हैं किसी प्राणी में. कभी उस अलौकिक प्रेम का आनंद ही नहीं लिया. राष्ट्र के बारे में कुछ सोचने-करने का सुख प्राप्त ही नहीं किया, और अपने आप को प्रेमी समझ बैठे . एक वो थे कि राष्ट्र को कष्ट हुआ तो मरने चल पड़े, और एक हम हैं, राष्ट्र तड़प रहा है लेकिन सोचने की फुर्सत नहीं है.
आर्श्चय है! हम प्रेमी होने का दंभ तो पाले हुए हैं मगर हमें प्रेम का अर्थ ही पता नहीं चला.
काश हमें प्रेम की सच्ची अनुभूति हो सके!!--Amit Tiwari 'Sangharsh', SwarajT.V.
SAHI KAHA AAPNE HUM PREM KHOJ RAHEN HAIN PRANI MAIN
bahut hi sundar bhaw liye huye post ....
aap ka article wakai kabile tariif hai
desh ke liye prem ush ke liye kuch kar gujarne ka jajba hi kuch aur hota hai ush mai diloo mai nafrat nai kuch aisa karne ki chahat hote hai jo apne desh ke dhuk ko dhek kar apne aap ko pirit mahsus karte hai
pyr wo jasba hai jo sirf dusaro ki khusi dhudta hai chahe shke liye ushe kurbaan hi kyo na hona pade