क्या लिखें, क्या ना लिखें, हर किस्सा छल लगता है;
जो बरसों पहले बीत गया, वो अब बीता कल लगता है.
रास्ता तो सीधा-सादा था अपने दिल तक आने का;
पर दुनियावी राहों से कुछ ज्यादा पल लगता है.
हर इक घर पर नाम लिखा था, उनके आगे ओहदे थे,
जब पूछा -'इन्सान कहाँ हैं?' वो बोले- 'पागल लगता है!'
चुप बैठे हैं हम भी लेकिन ये मत समझो पत्थर हैं,
आपका हर आघात हमारे दिल पर आकर लगता है.
सबके अंदर छुपकर कई जानवर बैठे रहते हैं;
ये शहर भी कभी-कभी कोई जंगल लगता है.
--Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraaj T.V.
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