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जलवायु परिर्वतन का असर पूरे विश्व में है। कहीं सूखा, कहीं बाढ़ से सभी लोग प्रभावित हैं। अपने देश में इस वक्त कर्नाटक , आंध्र प्रदेश आदि राज्यों को भयंकर बाढ़ का सामना करना पड़ा। तथा अन्य राज्यों में भयंकर सूखा रहा जिसका सीधा असर कृषि क्षेत्र पर पड़ा और देश के कृषि उत्पादन में कमी आई। सरकार ने राष्ट्रीय जल आयोग का गठन किया है जो जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना में से एक है। प्रधान मंत्री का निर्देश है कि कृषि जल प्रबधंन से सम्बंधित पहल करते समय किसानों से परामर्श किया जाना चाहिए। विकसित प्रौद्योगिकी देश के सभी किसानों तक पहुंचनी चाहिए। केन्द्र सरकार की योजनाओं को शत प्रतिशत संचालित करने की जिम्मेवारी राज्य सरकारों की है। राज्य सरकारें इन्हें अपनी योजनाओं के साथ जोड़कर राज्यों में विकास तीव्र कर सकती हैं। मैं उत्तर प्रदेश राज्य का जिक्र करता हूं। उत्तर प्रदेश में पिछले पांच वर्षों से काफी जिलों में भयंकर सूखा रहा। वर्षा के अभाव में खेती प्रभावित रही। प्रदेश की भौगोलिक स्थिति पर नजर डालें तो एक तरफ बड़ी नदियों का क्षेत्र और दूसरी तरफ बुन्देलखण्ड, विंध्याचल, कैमूर के पहाड़ी जिले जहां पर खेती के लिए सिचाई की सुविधा तो दूर, लोग पानी पीने को तरसते हैं। ऐसी भयावह स्थिति जनवरी माह से आरम्भ हो जाती है। कुंए सूख जाते हैं, हैण्ड पम्प जवाब दे देते हैं, गहरे कुंए तथा हैण्ड पम्पों से पानी लेने के लिए घंटों इन्तजार करना पड़ता है। तब कुछ पानी, आधी बाल्टी-एक बाल्टी तक मिल पाता है। केन्द्र सरकार योजनाओं के क्रियान्वयन में लापरवाही बरतती जा रही है। बुन्देलखण्ड से लेकर मिर्जापुर, सोनभद्र पहाड़ी जिलों का कृषि क्षेत्र प्रभावित है। वहां की खेती वर्षा पर आधारित है। कृषि सिंचाई, बिजली उत्पादन, नई विकसित योजनाओं पर कोई ध्यान नहीं है। जो पहले के सिंचाई-बांध बनाए गये है, उनकी स्टोर क्षमता घट गई हैै। सिंचाई के क्षेत्र बढ़ाए गये, बिजली उत्पादन के अनुसार विद्युत क्षेत्र का जो एरिया था उससे अधिक क्षेत्रों में विद्युतिकरण किया गया, परन्तु विद्युत उत्पादन की व्यवस्था नहीं हो पाई। ऐसी स्थिति में सरकार को ठोस कृषि नीति बनानी चाहिए। किसानों के सुझावों को, उनके विचारों को समझने के लिए प्रत्येक जिले-ब्लाकों में किसान-सेल के गठित होने चाहिए, जिसमें जन प्रतिनिधियों के साथ किसानों की भागीदारी हो। किसानों के स्थानीय सुझाव एवं मांगों पर गम्भीरता से विचार हो, तभी देश के विकास में अच्छी भागीदारी हो सकती है। आज अधिकारी कर्मचारी आफिस में बैठे पुराने आंकड़े देख कर अंदाजी आंकड़ा सरकार को भेज देते हैं। वर्तमान समय एवं सही स्थिति का आंकलन किया जाए तो स्थिति स्पष्ट होती है। लेकिन ऐसा कोई नहीं करता। किसी भी अधिकारी को गांव में चैपाल लगाने की फुरसत नहीं है। दो दशक पहले बीडीओ भी साईकिल से गांव में जाया करते थे। तब उनको समय मिलता था। आज जीप, कार की सुविधा है, ब्लाक का छोटा अधिकारी भी मोटर साईकिल रखता है, फिर भी किसी के पास समय नहीं। गांव वाले सेक्रेटरी व लेखपाल को खोजते-खोजते थक जाते हंै। सोचते हंै तहसील दिवस, ब्लाक मीटिंग, थाना दिवस में मुलाकात होगी, लेकिन अधिकारी ऐसे हैं कि वहां भी कभी-कभी ही मुलाकात हो पाती है। ऐसे में काफी समस्याआंे का अम्बार हो जाता है। अश्वासन मिलता है कि आप जाइऐ, देख लेंगे। ऐसे में गांव वाले थक कर बैठ जाते हैं। समस्याएं जस की तस रह जाती हैं। यह है गांव वालांे की जिंदगी। वर्तमान समय में किसानों के पास बहुत सी समस्याएं हैं। किसान खेती में हर समय व्यस्त रहता है। बुआई से लेकर फसल तैयार होने के बाद जब तक अनाज घर में नहीं आ जाता। उसके बाद मार्केटिंग के लिए परेशान रहता है। अनाज का सही दाम न मिलने से मजबूरी में किसान व्यापारियों को उनके मनचाहे कीमत पर बेचने को मजबूर होता है। खाद, बीज, जुताई, बुआई, सिंचाई की व्यवस्था तक सारे कार्य अकेले किसान को देखने होते हैं। गांव की बिजली की स्थिति से किसान परेशान हंै। उसका कोई निश्चित समय नहीं है। किसान हमेशा इंतजार में बैठा रहता है। कब बिजली आए और कब चली जाए कोई गारण्टी नहीं। कभी-कभी दो-दो दिन बिजली की लाइन कटी रहती है। जहां नल कूप हैं वहां के किसान रात की ठण्ड में भी सिंचाई के लिए मजबूर हो जाते हंै। भीषण ठण्ड में किसान खेत की सिंचाई करता है और धूप में खेत की जुताई करता है। अपना खून, पसीना में बदल कर बहा देता है। कठिन परिश्रम से अनाज पैदा करता है। और देश वासियों को खिलाता है। कोई कितना भी पैसा वाला क्यों न हो, खाएगा तो अन्न ही। आज अनाज पैदा करने वाले किसान के पास है क्या? बैंक का कर्ज, बिजली का बिल, खेत का लगान, सिंचाई का संकट, खेती भगवान भरोसे। वर्षा होगी तो अन्न पैदा होगा वर्ना सारी लागत से हाथ धोना पड़ेगा। बकायेदार की लिस्ट में नाम छप जाएगा। सरकार की गलत नीतियों के कारण बैंक से लिये गए कर्ज पर फसल बीमा भी नहीं प्राप्त होता, जबकि सरकार जानती है कि लगातार सूखा पड़ रहा है। और वर्षा मापक यंत्रों द्वारा हर क्षेत्र की रिर्पोटें सरकार के पास आती रहती हैं, फिर भी सरकार ध्यान नहीं देती। ऐसी स्थिति में किसान की हालत बद से बदत्तर होती जा रही है। बकायेदार होने के नाते पंद्रह दिन किसान को जेल की हवा भी खानी पड़ती है। जबकि अन्य बड़े बकायेदार जिनके पास लाखों करोड़ों की फैक्ट्रियां होती हैं, कभी भी फैक्ट्री बंद कर देते हैं और उनको पुनः ऋण राहत दिया जाता है। देश के कितने किसान आत्महत्या कर चुके हैं यह सरकार जानती है। सरकार सूखा राहत देने के लिए तहसीलों द्वारा कुछ पैसे किसानों को बांटती है। वो भी बंदरबांट का शिकार हो जाता है। किसानों के नाम पर तहसील अधिकारियों को राहत मिलती है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री राजीव गांधी ने कहा था कि केन्द्र से जो पैसा जाता है वह गांव के कार्य योजना में 100 रुपये में 10 रुपये ही खर्च हो पाते हैं शेष पैसे रास्ते में सूख जाते हैं यानि बंदरबांट हो जाते है। सारी बातों से अवगत होते हुए भी उपरोक्त बातों पर किसी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। सरकार, सरकारी तंत्रो द्वारा सरकारी पैसों की लूट मची है, ऊपर से नीचे तक लूट मची है, कहां शिकायत करें? यही कारण है कि लोग छोटी से छोटी सरकारी नौकरी की तलाश में लगे रहते हैं। खेती घाटे का धंधा मान कर खेती से कतरा रहे हैं। कहा जाता है ‘‘उत्तम खेती, मध्य वान, निषिध चाकरी, भीख निदान’’ पहले खेती को उत्तम माना जाता था और व्यापार दूसरे नंबर पर, तीसरे नंबर पर नौकरी। आज नौकरी पहले नंबर पर है, क्योंकि वेतन के अलावा ऊपरी कमाई है। स्थिति यह है कि लोग आज नौकरी को प्राथमिकता दे रहे हैं। सरकार इस कृषि प्रधान देश के किसानों की अनदेखी करके देश को समृद्धशाली बनाने में कामयाब नहीं होगी। आज देश के खाद्य पदार्थों की कमी को देखकर सरकार चिंतित है। और होना ही चाहिए। यदि समय रहते सरकार ने किसानों की सिंचाई, बिजली एवं उपकरण के लिए भरपूर व्यवस्था की होती तो आज यह स्थिति नहीं होती। इसके पहले किसानों के गन्ने खेत में जला दिये जाते थे। आज किसान ने गन्ना बोना कम कर दिया, चीनी-गुड़ की स्थिति सबके सामने है। हम समझ सकते हैं कि यदि किसान गेहूं, चावल उत्पादन कम कर देगा तो क्या स्थिति होगी! क्या सरकार फैक्ट्रियों में अनाज पैदा करवा लेगी। आज फैक्ट्रियों में ज्यादा बिजली दी जाती है, किसान को कम। हमारे देश का किसान इतना मेहनती है कि यदि सरकार पानी बिजली एवं उत्पादन-विपणन की व्यवस्था भरपूर कर दे तो किसान हर प्रकार के अन्न उत्पादन में किसी भी देश से पीछे नहीं रहेगा। पिछले साल सरकारी आंकड़ों के अनुसार 23 करोड़ 40 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ था। जबकि कई प्रदेशों के कई जिले सूखे की चपेट में थे। सरकार हर न्याय पंचायत में भण्डारण की व्यवस्था करे जिससे वितरण प्रणाली में सुविधा हो, ढुलाई का खर्च भी बचे, रखरखाव सही ढ्रंग से हो और भण्डारण भी अधिक हो। आज देश का 76 प्रतिशत किसान अपनी कहानी किसे सुनाए? कोई सुनने वाला तो चाहिए।

वंश बहादुर पुजारी
मिर्जापुर
Nirman Samvad (वर्ष 3, अंक 42)


आज फिर से आजकल की, बातें याद आने लगी।
आज फिर बातें वही, रह-रह के तड़पाने लगीं।।

सोचता हूँ आज फिर से मैं कहूँ बातें वही।
दर्द हो बातों में, बातें कुछ अधूरी ही सही।।

फिर करूँ स्‍वीकार मैं, मुझमें है जो भी छल भरा।
है अधूरा सत्‍य, इतना है यहॉं काजल भरा।।

है मुझे स्‍वीकार, मेरा प्रेम भी छल ही तो था।
शब्‍द सारे थे उधारी, हर शब्‍द दल-दल ही तो था।।

जो भी बातें थी बड़ी, सब शब्‍द का ही खेल था।
फूल में खुशबू नहीं, बस खुशबुओं का मेल था।।

हाथ्‍ा जब भी थामता था, दिल में कुछ बासी रहा।
मुस्‍कुराता था मगर, हंसना मेरा बासी रहा।।

साथ भी चुभता था, लेकिन फिर भी छल करता रहा।
जिन्‍दगी में साथ के झूठे, पल सदा भरता रहा।।

मैं सभी से ये ही कहता, 'प्रेम मेरा सत्‍य है',
और सब स्‍वीकार मेरे सत्‍य को करते रहे।
मैंने जब चाहा, किया उपहास खुद ही प्रेम का,
कत्‍ल मैं करता रहा और, सत्‍य सब मरते रहे।।

सोचता हूँ क्‍या स्‍वीकारूँ, सत्‍य कितना छोड़ दूँ?
मन में जितनी भीतियॉं हैं, भीतियों को तोड़ दूँ।।

वह प्रेम मेरे भाग का था, भोगता जिसको रहा।
सब को ही स्‍वीकार थे, मैं शब्‍द जो कहता रहा।।

आज है स्‍वीकार मुझको, मैं अधूरा सत्‍य हूँ।
तट पे जो भी है वो छल है, अन्‍तरा में सत्‍य हूँ।।

सत्‍य को स्‍वीकार शायद, कर सकूं तो मर सकूं।
'संघर्ष' शायद सत्‍य से ही, सत्‍य अपने भर सकूं।।

- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्‍वराज टी. वी.

(चित्र गूगल सर्च से साभार)
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अकारण ही... आज अकारण ही मन अपने अन्‍दर के खालीपन को स्‍वीकारना चाह रहा है। शब्‍द - अर्थ और फिर अर्थ्‍ा के भीतर के अर्थ। कितना ही छल भरा है मन में।
सच को स्‍वीकारने का साहस होता ही कब है। कब स्‍वीकार पाया हूँ अपने अर्थों के भीतर के अर्थ को। कई मर्तबा स्‍वीकार भी किया, तो ऐसी व्‍यंजना के साथ, कि सुनने वालों ने उस स्‍वीकारोक्ति को भी मेरी महानता मानकर मेरे भीतर के उस सत्‍य को धूल की तरह झाड़ दिया।

ऐसा ही एक सत्‍य है, 'स्‍त्री-सम्‍मान और मैं'। स्‍त्री होना ही पूर्णता है। स्‍त्री स्‍वयं में शक्ति का रूप है। स्‍त्री - शक्ति का सम्‍मान करना ही नैतिकता है। स्‍त्री का अपमान करना, निष्‍कृष्‍टतम् पाप है।

इन बातों का ऐसा प्रभाव हुआ, कि मैं भी स्‍त्री-शक्ति को विशेष रूप से खोजकर, उनका सम्‍मान करने लगा। अक्‍सर सड़क किनारे से गुजरते हुये ये ख्‍याल आ जाता था कि काश कोई सुन्‍दर स्‍त्री-शक्ति लड़खड़ाये, और मैं दौड़कर उसकी सहायता और सम्‍मान कर सकूं।

सोच रहा हूँ कि आखिर स्‍त्री-सम्‍मान के लिये इतनी बातों और इतने प्रयासों की आवश्‍यकता ही क्‍यूँ आन पड़ी ?और फिर इनका अपेक्षित परिणाम क्‍यूँ नहीं मिला ? क्‍यूँ स्‍त्री - सम्‍मान की सहज भावना नहीं पैदा हो पाई इस मन में ? क्‍यूँ मुझ जैसे अधिकतर युवाओं में 'सुन्‍दरतम् स्‍त्री-शक्ति का अधिकतम् सम्‍मान' की भावना बनी रही ?
क्‍यूँ शक्तिहीन और सौन्‍दर्यविहिन के प्रति सहज सम्‍मान-भाव नहीं जागृत हो सका मन में ?

इन प्रश्‍नों का उत्‍तर अभी भी अज्ञेय ही है।
भीतर के इस सत्‍य का कारण, समाज से चाहता हूँ।
उत्‍तर अभी प्रतिक्षित है।

- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्‍वराज टी. वी.
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
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बहुत दिनों से मैंने शायद

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 10/08/2009 11:37:00 pm 9 comments


बहुत दिनों से मैंने शायद, नहीं कही है दिल की बात...
बहुत दिनों से दिल में शायद, दबा रखे हैं हर ज़ज्बात..
बहुत दिनों से मैंने शायद, रिश्ते नहीं सहेजे हैं....
बहुत दिनों से यूँ ही शायद, बीत गयी बिन सोये रात...
-लेकिन इसका अर्थ नहीं मैं...रिश्ते छोड़ गया हूँ....

अपने दिल की धड़कन से ही, मैं मुंह मोड़ गया हूँ..

मेरा जीवन अब भी बसता है, प्यारे रिश्तों में,

बिन रिश्तों के जीवन सारा, जीते थे किश्तों में,.,,

मेरी जीत अभी भी तुम हो,

मेरी प्रीत अभी भी तुम हो..

पूज्य अभी भी है ये रिश्ता ..

दिल का गीत अभी भी तुम हो...

नहीं भूल सकता हूँ, मेरा, जीवन बसता है तुम में..

चाहे जहाँ भी तुम हो लेकिन, बसते हो अब भी हम में..


- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्‍वराज टी.वी.
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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