बहुत दिनों से मैंने शायद, नहीं कही है दिल की बात...बहुत दिनों से दिल में शायद, दबा रखे हैं हर ज़ज्बात..बहुत दिनों से मैंने शायद, रिश्ते नहीं सहेजे हैं....बहुत दिनों से यूँ ही शायद, बीत गयी बिन सोये रात...-लेकिन इसका अर्थ नहीं मैं...रिश्ते छोड़ गया हूँ....अपने दिल की धड़कन से ही, मैं मुंह मोड़ गया हूँ..मेरा जीवन अब भी बसता है, प्यारे रिश्तों में, बिन रिश्तों के जीवन सारा, जीते थे किश्तों में,.,,मेरी जीत अभी भी तुम हो, मेरी प्रीत अभी भी तुम हो.. पूज्य अभी भी है ये रिश्ता ..दिल का गीत अभी भी तुम हो...नहीं भूल सकता हूँ, मेरा, जीवन बसता है तुम में..चाहे जहाँ भी तुम हो लेकिन, बसते हो अब भी हम में..- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्वराज टी.वी. (चित्र गूगल सर्च से साभार)
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रिश्ते मन की सन्दूक में सम्हालकर रखे हुए हैं
बहुत सुन्दर...चाहे जहाँ भी तुम हो, बसते हो अब भी हम में.....क्या बात है!!
बहुत अच्छी भावना..........
बहुत उम्दा कविता.........
आपको हार्दिक बधाई !
dil ke sunder ehsaas,waah
अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं। बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
I m waiting your post
when i read it its really nice
super................
किसी भी दिन सूरज का उगना काफी सहज है मगर इन पंक्तियों की सहजता का अनुमान -वो भी अमित से- कुछ असहज सा लगता है। कभी आपको पढ़ा नहीं था इस स्वरूप में। आज पढ़कर प्रसन्नता हुई। अच्छा लिखते हैं, और भी अच्छी रचना की आशा है।
मैं भी बहुत दिनों से प्रतीक्षा में थी 'निर्माण संवाद' पर कुछ पढने के लिए...
अच्छी वापसी.
बधाई और शुभकामनाएं.
ati sundar rachna
jitni tarif ki jaye shayad kam rahegi iskey liey