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बहुत दिनों से मैंने शायद

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 10/08/2009 11:37:00 pm


बहुत दिनों से मैंने शायद, नहीं कही है दिल की बात...
बहुत दिनों से दिल में शायद, दबा रखे हैं हर ज़ज्बात..
बहुत दिनों से मैंने शायद, रिश्ते नहीं सहेजे हैं....
बहुत दिनों से यूँ ही शायद, बीत गयी बिन सोये रात...
-लेकिन इसका अर्थ नहीं मैं...रिश्ते छोड़ गया हूँ....

अपने दिल की धड़कन से ही, मैं मुंह मोड़ गया हूँ..

मेरा जीवन अब भी बसता है, प्यारे रिश्तों में,

बिन रिश्तों के जीवन सारा, जीते थे किश्तों में,.,,

मेरी जीत अभी भी तुम हो,

मेरी प्रीत अभी भी तुम हो..

पूज्य अभी भी है ये रिश्ता ..

दिल का गीत अभी भी तुम हो...

नहीं भूल सकता हूँ, मेरा, जीवन बसता है तुम में..

चाहे जहाँ भी तुम हो लेकिन, बसते हो अब भी हम में..


- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्‍वराज टी.वी.
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
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9 Response to "बहुत दिनों से मैंने शायद"

  1. रिश्ते मन की सन्दूक में सम्हालकर रखे हुए हैं

     

  2. बहुत सुन्दर...चाहे जहाँ भी तुम हो, बसते हो अब भी हम में.....क्या बात है!!

     

  3. Unknown Said,

    बहुत अच्छी भावना..........
    बहुत उम्दा कविता.........

    आपको हार्दिक बधाई !

     

  4. mehek Said,

    dil ke sunder ehsaas,waah

     

  5. अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं। बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

     

  6. Sapna sood Said,

    I m waiting your post
    when i read it its really nice
    super................

     

  7. Udayesh Ravi Said,

    किसी भी दिन सूरज का उगना काफी सहज है मगर इन पंक्तियों की सहजता का अनुमान -वो भी अमित से- कुछ असहज सा लगता है। कभी आपको पढ़ा नहीं था इस स्‍वरूप में। आज पढ़कर प्रसन्‍नता हुई। अच्‍छा लिखते हैं, और भी अच्‍छी रचना की आशा है।

     

  8. Nidhi Sharma Said,

    मैं भी बहुत दिनों से प्रतीक्षा में थी 'निर्माण संवाद' पर कुछ पढने के लिए...
    अच्छी वापसी.
    बधाई और शुभकामनाएं.

     

  9. mansha Said,

    ati sundar rachna
    jitni tarif ki jaye shayad kam rahegi iskey liey

     


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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