आज फिर से आजकल की, बातें याद आने लगी।
आज फिर बातें वही, रह-रह के तड़पाने लगीं।।
सोचता हूँ आज फिर से मैं कहूँ बातें वही।
दर्द हो बातों में, बातें कुछ अधूरी ही सही।।
फिर करूँ स्वीकार मैं, मुझमें है जो भी छल भरा।
है अधूरा सत्य, इतना है यहॉं काजल भरा।।
है मुझे स्वीकार, मेरा प्रेम भी छल ही तो था।
शब्द सारे थे उधारी, हर शब्द दल-दल ही तो था।।
जो भी बातें थी बड़ी, सब शब्द का ही खेल था।
फूल में खुशबू नहीं, बस खुशबुओं का मेल था।।
हाथ्ा जब भी थामता था, दिल में कुछ बासी रहा।
मुस्कुराता था मगर, हंसना मेरा बासी रहा।।
साथ भी चुभता था, लेकिन फिर भी छल करता रहा।
जिन्दगी में साथ के झूठे, पल सदा भरता रहा।।
मैं सभी से ये ही कहता, 'प्रेम मेरा सत्य है',
और सब स्वीकार मेरे सत्य को करते रहे।
मैंने जब चाहा, किया उपहास खुद ही प्रेम का,
कत्ल मैं करता रहा और, सत्य सब मरते रहे।।
सोचता हूँ क्या स्वीकारूँ, सत्य कितना छोड़ दूँ?
मन में जितनी भीतियॉं हैं, भीतियों को तोड़ दूँ।।
वह प्रेम मेरे भाग का था, भोगता जिसको रहा।
सब को ही स्वीकार थे, मैं शब्द जो कहता रहा।।
आज है स्वीकार मुझको, मैं अधूरा सत्य हूँ।
तट पे जो भी है वो छल है, अन्तरा में सत्य हूँ।।
सत्य को स्वीकार शायद, कर सकूं तो मर सकूं।
'संघर्ष' शायद सत्य से ही, सत्य अपने भर सकूं।।
- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्वराज टी. वी.
बहुत बढ़िया.
बहुत अच्छी कविता
जीवन के रंगों की वास्तविक कविता.............
बधाई !
इतनी बेबाकी से स्वीकारोक्ति.....
प्रशंसनीय.
'सत्य को स्वीकार शायद कर सकूँ, तो मर सकूँ'
जीवन के सच की सच्ची पंक्ति.
बहुत बढिया रचना है। मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।
boht hi sundar rachna hai..
सत्य को स्वीकार करने के बाद तो जीवन शुरू होता है डियर।।