अकारण ही... आज अकारण ही मन अपने अन्दर के खालीपन को स्वीकारना चाह रहा है। शब्द - अर्थ और फिर अर्थ्ा के भीतर के अर्थ। कितना ही छल भरा है मन में।
सच को स्वीकारने का साहस होता ही कब है। कब स्वीकार पाया हूँ अपने अर्थों के भीतर के अर्थ को। कई मर्तबा स्वीकार भी किया, तो ऐसी व्यंजना के साथ, कि सुनने वालों ने उस स्वीकारोक्ति को भी मेरी महानता मानकर मेरे भीतर के उस सत्य को धूल की तरह झाड़ दिया।
ऐसा ही एक सत्य है, 'स्त्री-सम्मान और मैं'। स्त्री होना ही पूर्णता है। स्त्री स्वयं में शक्ति का रूप है। स्त्री - शक्ति का सम्मान करना ही नैतिकता है। स्त्री का अपमान करना, निष्कृष्टतम् पाप है।
इन बातों का ऐसा प्रभाव हुआ, कि मैं भी स्त्री-शक्ति को विशेष रूप से खोजकर, उनका सम्मान करने लगा। अक्सर सड़क किनारे से गुजरते हुये ये ख्याल आ जाता था कि काश कोई सुन्दर स्त्री-शक्ति लड़खड़ाये, और मैं दौड़कर उसकी सहायता और सम्मान कर सकूं।
सोच रहा हूँ कि आखिर स्त्री-सम्मान के लिये इतनी बातों और इतने प्रयासों की आवश्यकता ही क्यूँ आन पड़ी ?और फिर इनका अपेक्षित परिणाम क्यूँ नहीं मिला ? क्यूँ स्त्री - सम्मान की सहज भावना नहीं पैदा हो पाई इस मन में ? क्यूँ मुझ जैसे अधिकतर युवाओं में 'सुन्दरतम् स्त्री-शक्ति का अधिकतम् सम्मान' की भावना बनी रही ?
क्यूँ शक्तिहीन और सौन्दर्यविहिन के प्रति सहज सम्मान-भाव नहीं जागृत हो सका मन में ?
इन प्रश्नों का उत्तर अभी भी अज्ञेय ही है।
भीतर के इस सत्य का कारण, समाज से चाहता हूँ।
उत्तर अभी प्रतिक्षित है।
- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्वराज टी. वी.
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
लेख से सहमति है, तो कृपया यहॉं चटका लगायें
सुन्दरम स्त्री शक्ति का अधिकतम सम्मान ...धारदार व्यंग्य ..!!
बहुत बढ़िया.
acha hai but where r u ?
good really good