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साम्राज्यवाद के प्रतिकार का स्वरूप आधुनिक विकास के रूप में उभरने आया तो सम्भावनाओं का नया सूर्य उदित होता सा लगा था। किन्तु जब वह अपने युवावय के मोड़ पर पहुंचा तो क्लास, क्लासीफिकेशन और स्टेटस सिम्बल जैसी नई साम्राज्यवादी सामाजिक संज्ञाओं के रूप में सीमांकन ही नहीं कर रहा, अपितु साम्राज्यवाद के क्रूरतम हृदयहीन मापदण्डों से भी आगे जाता हुआ दिख रहा है।
कोपेनहेगन या अन्य किसी भी प्रकार के जीवन संभावनाओं की तलाश के प्रयासों की सार्थकता की बात करने से पूर्व ही प्रश्न उठता है कि इसके लिए किस प्रकार की विचारधारा और जीवन-दर्शन को आधार बनाया गया है ? क्या समाज के सभी वर्गों और समाज के समस्त जीवन पहलुओं की वास्तविक मीमांसा के मंच पर नई संभावनाओं की खोज की जा रही है, अथवा किसी विशेष सीमा-रेखा के दायरे में ही कुछ लोग तथाकथित बुद्धिजीविता का प्रदर्शन करते हुए नवयुग के लिए कुछ नई सीमाएं तय करने वाले हैं ?
जीवन और जीवन-दर्शन की गंभीरता तथा गहनता को जाने बिना किसी भी प्रकार से विश्व को बचाने की अवधारणा पर काम करने का प्रयास अंततः एक असफल आयोजन ही सिद्ध होता है। इस दृष्टि से, निश्चय ही भारतीय चिंतन की ज्ञानधारा जीवन के लिए सदैव से सहजीवन, सह-अस्तित्व और परिणाम में शुभकारी विचारधाराओं एवं जीवन पद्धति की पोषक रही है।
ऐसे अनेकों प्रकार के जीवन-दर्शन भारतीय वाड्.मय में उपलब्ध हैं जिन्हें जीवन में अपनाकर विश्व के समस्त भूभागों में मनुष्य जीवन, अन्य जीवों का जीवन, प्रकृति, पर्यावरण, जल, वायु, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, वन तथा जीवन संभावनाओं और जीवन के संसाधनों को न केवल अधिकतम समय तक विश्व में बनाए रखा जा सकता है, अपितु पूर्व में किए गए मनुष्यकृत प्रकृति के नुकसान की भी ठीक-ठीक भरपाई की जा सकती है।
भारतीय जीवन-दर्शन इस संपूर्ण प्रकृति, धरा तथा अन्य जीवों को स्वयं अपना ही अंश मानकर उसे जीने के प्रयासों की पोषकता के सिद्धान्त देते रहे हैं। इनकी अवहेलना करती हुई मनुष्य जाति अपने, प्रकृति के, अन्य जीवों के तथा धरा के समग्र विनाश का कारण बनने की कगार पर आ खड़ी हुई है।
अभी समय है, किन्तु यह अन्तिम क्षण हैं, जहां से यदि वापस लौट लिया जाए और भारतीय जीवन पद्धति को विश्व के लिए अधिकृत जीवन पद्धति घोषित करके उसे शत प्रतिशत लागू किया जा सके, तो निश्चय ही धरा, धरातल, अन्तरिक्ष, वायु, जल, प्रकृति, मनुष्य-जाति, अन्य जीव, वनादिकों को बचाया जा सकता है; अन्यथा समीपस्थ विनाश को रोक पाने का सामथ्र्य किसी में नहीं।

- Dr. Kamlesh Pandey


0 Response to "समीपस्थ विनाश को रोक पाने का सामर्थ्‍य भारत-दर्शन में ही"


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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