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भगवाधारियों का बढ़ता भोग-बाज़ार

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 3/15/2010 05:33:00 pm


इच्छाधारी नाग को फिल्मों में अक्सर देखा। इस इच्छाधारी नाग के फांस में अभिनेत्रियों को फंसते देखा। फिल्मी इच्छाधारी उस नाग के सुख-भोग को देखकर मेरा मन अक्सर उद्वेलित होता। रंग रसिया, मन बसिया.....।
खैर, इच्छाधारी नाग की चर्चा करने यहां मैं नहीं बैठा हूं। मैं इस इच्छाधारी भीमांनद की बात कर रहा हूं। जिसके कई नाम होते हैं, उसके कई चेहरे होते हैं। शिवमूरत द्विवेदी उर्फ इच्छाधारी संत उर्फ चित्रकूट वाले बाबा उर्फ भीमानंद अब जाकर फंसे हैं। मकोका लग गया है। ऐसे शातिर व्यक्ति को धर्म जगत से अधर्म जगत (जेल) भेज दिया गया है। पर बात कुछ ऐसी है कि भीमानंद मुझे बहुत पंसद है। बंदा नाचता बढ़िया है। डान्स का स्टेप जबर्दस्त। मीडिया लगातार उसके डांस फुटेज को दिखा रहा है। भीमानंद जैसे बाबाओं को लेकर एक ‘रियलिटी शो’ करने की मेरी भी इच्छा बलवती हो गयी है। ‘‘डांस बाबा डांस’’, ‘‘डांस इंडिया डांस’’ का बेहतर मुकाबला करेगा। ऐसे कई नथुनियों पर गोली मारने वाले बाबाओं की सूची तैयार करने में लगा हूं।
भीमानंद! क्या गुनाह किया कि लुट गये? भीमानंद का इतना ही अपराध है कि वह पकड़ा गया। काबुल में गधे ही नहीं, कुछ अच्छे भी होते हैं। पर यहां तो अधिकांश बाबा भीमानंद के बाप हैं।
ये अभी तक अच्छे इसलिए बने है कि पकड़े नहीं गए हैं।
39 वर्षीय इच्छाधारी संत स्वामी भीमानंद जी महाराज पर मकोका लगाया गया। एक ने कहा कि इन्हें जेल-योग लिखा था। जितने दिनों का मिलन-योग था, पूरा हुआ..........। यह भी मेरा लंगोटिया बाबा है, यार है। भीमानंद को अब बेल नहीं मिलेगा। भीमानंद पर आरोप है- सैक्स-रैकेट चलाने का, सम्पत्ति जमा करने का, अपहरण करने का, आस्था से खिलवाड़ करने आदि का......।
कानून यह न समझे कि उसने अपना काम पूरा कर दिया। तेरह-चैदह वर्षों से यह धंधा लगातार चल रहा था। इन वर्षों में बनी हुई भीमानंद की उन तमाम सहयोगी ताकतों को भी चिन्हित करना चाहिये, जिन्होंने इस ‘द्विवेदी’ को देवता बनाया। क्यों बना रहा वह इतने वर्षों तक समाज का देवता? क्या समाज अंधा था? क्या इनके शार्गिदों का अपराध कुछ भी नहीं हैं? समाज की मोक्ष पाने की भूख इतनी क्यों बढ़ गई? उभरता मध्यवर्ग अपनी बहाल सुविधा को बरकरार रखने के लिए बैचेन जो है। समाज की यही बेचैनी तो भीमानंद जैसों को जन्म देती रही है।
अस्तेय, अपरिग्रह की बात करने वाला न तो संत रहा, न ही समाज। कबीर, सूत कातते, कपड़ा बीनते संत कबीर हो गये। पर आज के इन बाबाओं को पसीना बहाने की जरूरत ही क्या है? संत की परिभाषा....

विजयेन्द्र
संपादक
(निर्माण संवाद)

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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