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सैनिक का ख़त घरवालो के नाम

Posted by अमिताभ भूषण"अनहद" On 10/17/2009 03:16:00 pm 3 comments

लक्ष्मी की अर्चना

माँ हृदय रूपी दीप में वात्सल्य अपना भर लेना
पितृ प्रेम की बाती रख ,लक्ष्मी की अर्चना करना

भाई अपने हृदय दीप में तू ,राष्ट्र सेवा भाव भरना
कर्म की बाती रख कर ,लक्ष्मी की अर्चना करना

बहन अपने हृदय दीप में ,आँखों का सूनापन भरना
बचपन की अवीस्मर्निये यादो की बाती रखकर
लक्ष्मी की अर्चना करना

बेटा तेरा यह बाप कही , हो सके तुझे न देख सके
पर तू अपनी माँ की आँखों में ,मेरी तस्वीर निहार लेना

तुझसे अब मै क्या कहू सखे .............
दीप की नियति है ,अपने तल में अँधेरा समेटे रखना
तू त्याग साधना की प्रतिमूर्ति ,नित्य कर्म पथ पर
तिल- तिल कर जलती रहना
इस जन्म में मुझे क्षमा करना

प्रिये अपने हृदय दीप में ,सजल नयनों का जल भरना
बिरहा की बाती रखकर ,लक्ष्मी की अर्चना करना
लक्ष्मी की अर्चना करना (//)

अनहद


आज फिर से आजकल की, बातें याद आने लगी।
आज फिर बातें वही, रह-रह के तड़पाने लगीं।।

सोचता हूँ आज फिर से मैं कहूँ बातें वही।
दर्द हो बातों में, बातें कुछ अधूरी ही सही।।

फिर करूँ स्‍वीकार मैं, मुझमें है जो भी छल भरा।
है अधूरा सत्‍य, इतना है यहॉं काजल भरा।।

है मुझे स्‍वीकार, मेरा प्रेम भी छल ही तो था।
शब्‍द सारे थे उधारी, हर शब्‍द दल-दल ही तो था।।

जो भी बातें थी बड़ी, सब शब्‍द का ही खेल था।
फूल में खुशबू नहीं, बस खुशबुओं का मेल था।।

हाथ्‍ा जब भी थामता था, दिल में कुछ बासी रहा।
मुस्‍कुराता था मगर, हंसना मेरा बासी रहा।।

साथ भी चुभता था, लेकिन फिर भी छल करता रहा।
जिन्‍दगी में साथ के झूठे, पल सदा भरता रहा।।

मैं सभी से ये ही कहता, 'प्रेम मेरा सत्‍य है',
और सब स्‍वीकार मेरे सत्‍य को करते रहे।
मैंने जब चाहा, किया उपहास खुद ही प्रेम का,
कत्‍ल मैं करता रहा और, सत्‍य सब मरते रहे।।

सोचता हूँ क्‍या स्‍वीकारूँ, सत्‍य कितना छोड़ दूँ?
मन में जितनी भीतियॉं हैं, भीतियों को तोड़ दूँ।।

वह प्रेम मेरे भाग का था, भोगता जिसको रहा।
सब को ही स्‍वीकार थे, मैं शब्‍द जो कहता रहा।।

आज है स्‍वीकार मुझको, मैं अधूरा सत्‍य हूँ।
तट पे जो भी है वो छल है, अन्‍तरा में सत्‍य हूँ।।

सत्‍य को स्‍वीकार शायद, कर सकूं तो मर सकूं।
'संघर्ष' शायद सत्‍य से ही, सत्‍य अपने भर सकूं।।

- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्‍वराज टी. वी.

(चित्र गूगल सर्च से साभार)
लेख से सहमति है, तो कृपया यहॉं चटका लगायें


अकारण ही... आज अकारण ही मन अपने अन्‍दर के खालीपन को स्‍वीकारना चाह रहा है। शब्‍द - अर्थ और फिर अर्थ्‍ा के भीतर के अर्थ। कितना ही छल भरा है मन में।
सच को स्‍वीकारने का साहस होता ही कब है। कब स्‍वीकार पाया हूँ अपने अर्थों के भीतर के अर्थ को। कई मर्तबा स्‍वीकार भी किया, तो ऐसी व्‍यंजना के साथ, कि सुनने वालों ने उस स्‍वीकारोक्ति को भी मेरी महानता मानकर मेरे भीतर के उस सत्‍य को धूल की तरह झाड़ दिया।

ऐसा ही एक सत्‍य है, 'स्‍त्री-सम्‍मान और मैं'। स्‍त्री होना ही पूर्णता है। स्‍त्री स्‍वयं में शक्ति का रूप है। स्‍त्री - शक्ति का सम्‍मान करना ही नैतिकता है। स्‍त्री का अपमान करना, निष्‍कृष्‍टतम् पाप है।

इन बातों का ऐसा प्रभाव हुआ, कि मैं भी स्‍त्री-शक्ति को विशेष रूप से खोजकर, उनका सम्‍मान करने लगा। अक्‍सर सड़क किनारे से गुजरते हुये ये ख्‍याल आ जाता था कि काश कोई सुन्‍दर स्‍त्री-शक्ति लड़खड़ाये, और मैं दौड़कर उसकी सहायता और सम्‍मान कर सकूं।

सोच रहा हूँ कि आखिर स्‍त्री-सम्‍मान के लिये इतनी बातों और इतने प्रयासों की आवश्‍यकता ही क्‍यूँ आन पड़ी ?और फिर इनका अपेक्षित परिणाम क्‍यूँ नहीं मिला ? क्‍यूँ स्‍त्री - सम्‍मान की सहज भावना नहीं पैदा हो पाई इस मन में ? क्‍यूँ मुझ जैसे अधिकतर युवाओं में 'सुन्‍दरतम् स्‍त्री-शक्ति का अधिकतम् सम्‍मान' की भावना बनी रही ?
क्‍यूँ शक्तिहीन और सौन्‍दर्यविहिन के प्रति सहज सम्‍मान-भाव नहीं जागृत हो सका मन में ?

इन प्रश्‍नों का उत्‍तर अभी भी अज्ञेय ही है।
भीतर के इस सत्‍य का कारण, समाज से चाहता हूँ।
उत्‍तर अभी प्रतिक्षित है।

- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्‍वराज टी. वी.
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
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बहुत दिनों से मैंने शायद

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 10/08/2009 11:37:00 pm 9 comments


बहुत दिनों से मैंने शायद, नहीं कही है दिल की बात...
बहुत दिनों से दिल में शायद, दबा रखे हैं हर ज़ज्बात..
बहुत दिनों से मैंने शायद, रिश्ते नहीं सहेजे हैं....
बहुत दिनों से यूँ ही शायद, बीत गयी बिन सोये रात...
-लेकिन इसका अर्थ नहीं मैं...रिश्ते छोड़ गया हूँ....

अपने दिल की धड़कन से ही, मैं मुंह मोड़ गया हूँ..

मेरा जीवन अब भी बसता है, प्यारे रिश्तों में,

बिन रिश्तों के जीवन सारा, जीते थे किश्तों में,.,,

मेरी जीत अभी भी तुम हो,

मेरी प्रीत अभी भी तुम हो..

पूज्य अभी भी है ये रिश्ता ..

दिल का गीत अभी भी तुम हो...

नहीं भूल सकता हूँ, मेरा, जीवन बसता है तुम में..

चाहे जहाँ भी तुम हो लेकिन, बसते हो अब भी हम में..


- अमित तिवारी 'संघर्ष', स्‍वराज टी.वी.
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
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राह कौन सी जाऊं मैं...!!!

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 9/03/2009 01:32:00 am 7 comments


बातें करुँ देश की, या फिर
ताजमहल बनवाऊं मैं......
होंठ गुलाबी, नयन झील,
या गीत देश के गाऊँ मैं....
यौवन भटक गया देश....
का, जाने किन सपनों में..
प्रेम-राग, सीने में आग....
राह कौन सी जाऊं मैं...!!!!

दिल कहता है, हीर ढूंढ लूं,
जुल्फों में तकदीर ढूंढ लूं..
रांझा मुझको बना दे कोई
ऐसी इक तस्वीर ढूंढ लूं...
देखे नयन ख्वाब में उस-
को, गीत उसी के गाऊँ मैं,
प्रेम राग, सीने में आग......

लेकिन लहू उबल जाता है..
हर सपना, तब जल जाता है.
जब चिता में सीता जलती है,
इन्द्र किसी को छल जाता है..
पलकों की छांवों में झूमूँ.........
या ये आग बुझाऊं मैं........!!!
प्रेम राग, सीने में आग..........

मधुमय-मधुशाल बने जीवन,
ना सुने कान कोई क्रंदन,
घुंघरू की झनक कानों में हो,
हर दिन हर पल महके चन्दन,
क्या ऐसे ही सपनों में
अपनी चिता सजाऊं मैं,
प्रेम राग, सीने में आग..

सोता यौवन, खोता बचपन,
हंसती मृत्यु, रोता जीवन,
ना देश भान, ना स्वाभिमान,
ना जग बाकी, ना जग वंदन,,
कैसे भेद मिटाऊं सारे
कैसे अलख जगाऊं मैं..
प्रेम राग, सीने में आग....

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ज्ञाता, अध्येता, चिन्तक, दार्शनिक........ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के राष्ट्रपति......

५ सितम्बर को शिक्षक दिवस है. राधाकृष्णन के जन्म-दिन को शिक्षक दिवस के रूप में देश मनाता आ रहा है.
हम आखिर क्यों राधाकृष्णन के जन्म-दिवस को शिक्षक-दिवस के रूप में मनाएं? राधाकृष्णन एक शिक्षक थे.. शिक्षक से राष्ट्रपति बन गए. यह राष्ट्रपति-दिवस हो सकता है, शिक्षक-दिवस कैसे हो सकता है? अगर कोई राष्ट्रपति, राष्ट्रपति का पद त्याग कर शिक्षक बनने आ जाये, तो शिक्षक का सम्मान बढेगा, शिक्षण कार्य सम्मानित होगा. राधाकृष्णन राष्ट्रपति का पद ठुकराकर शिक्षक ही बने रहने की बात करते तो, शिक्षकों के लिए गौरव की बात थी, परन्तु राधाकृष्णन ने ऐसा नहीं किया. उनके लिए 'राष्ट्रपति' शब्द, 'शिक्षक' शब्द से ज्यादा मूल्यवान था. राधाकृष्णन का शिक्षण कार्य से पलायन, शिक्षक-जगत के लिए अपमान जैसा ही है.

गाँधी, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बन सकते थे, पर जिन कार्यों के लिय वे प्रतिबद्ध थे, वही कार्य उन्होनें किया. गाँधी मानवता की सेवा के लिए थे, और वे उसी के लिए समर्पित रहे. पता है न! नेहरु जब १५ अगस्त १९४७ को लाल किला से स्वतंत्रता का सन्देश दे रहे थे, तो गांधी नोआखली में बिलखती मानवता के आंसू पोंछ रहे थे. ऐसी प्रतिबद्धता!!!!

गेरीवाल्डी भी कम बड़े मसीहा नहीं थे. राष्ट्रपति बनने का जब मौका आया, तो वे राष्ट्रपति पद को ठुकराकर अपने किसान जीवन और अपने खेत की ओर लौट गए. उस देश के किसानों के लिए कितने गौरव की बात रही होगी... कृषि-कर्म को कितना सम्मान मिला होगा, हम भी गर्व करते हैं..

जे. पी. भी भारत के प्रधानमंत्री बन सकते थे. कहाँ विरोध था उनका? प्रधानमंत्री बनना उनकी प्राथमिकता में नहीं था, तो नहीं बने. .

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री रहते हुए भी अपना पुश्तैनी काम, बाल-दाढ़ी बनाने का, करते रहे.

राधाकृष्णन की असीम विद्वता पर कोई सवाल नहीं है. सवाल है शिक्षक-दिवस का...
हम उलटी दिशा में चल रहे हैं. हमारी खोपडी ही उलटी दिशा में घूमी हुई है. लगातार हम शिक्षक-दिवस मनाते आ रहे हैं, पर शिक्षक के सम्मान और मर्यादा में एक प्रतिशत भी बढोत्तरी नहीं हुई है.

इस शिक्षक दिवस को मनाने वाले शिक्षक ही आज नेता, सांसद, विधायक बनने के लिए बेचैन हैं. अच्छा ऑफर मिल गया तो वे बैंक कर्मचारी, अधिकारी और कंपनियों की ओर भी चले जाते हैं.

जब राधाकृष्णन शिक्षण कार्य से पलायन कर सकते हैं, तो फिर इनके अनुयायी क्यों न भागें?

यह गुरुओं का देश रहा है. स्वयं यह देश भी 'विश्वगुरु' कहलाया. अमेरिका की तरह 'विश्व-सेठ' कहलाने की चाहत नहीं थी देश को.

भारतीय परंपरा में पूरी राजसत्ता गुरु के चरणों में थी. गुरुओं की अवहेलना करना अनर्थ था. समर्थ गुरु रामदास के चरणों में शिवाजी ने अपनी सल्तनत रख दी थी. कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, गुरु वशिष्ठ के गुरु-शिष्य परंपरा को हमने आगे बढाया. चन्द्रगुप्त-चाणक्य, रामकृष्ण-नरेन्द्र........आदि कहानियां भरी पड़ी हैं.......

जिस गुरु के चरणों में राजा झुकते थे, उस गुरूजी के लिए ऑफिस का किरानी भी नहीं झुकता. आचार्य, उपाचार्य, उपाध्याय, प्राचार्य आदि शब्द अब अर्थहीन हो गए हैं. वेतनभोगी, भत्ताभोगी, पैरवीबाज गुरु, अब गुरु नहीं रहे, गुरुघंटाल हो गए हैं. अब तो गुरु, 'शिष्याबाज' भी हो गए हैं. मटुकनाथ ने जूली को शिष्या से संगिनी बना डाला. रोज कोई न कोई गुरु जी शिष्या को लेकर फरार हो रहे हैं.

इन शब्दों को पढिये- लव-गुरु, शेयर-गुरु, मैनेजमेंट-गुरु...... अब तो मुंबई के भाई-लोग भी गुरु 'शब्द' को कब्जाने में लगे हैं.

आज गुरु को प्रणाम भी कौन करता है? बचपन के गुरुओं को पैर छूकर आज भी प्रणाम करते हैं. पर कॉलेज में आज शिक्षकों को हाय मेम, हाय सर ... से ज्यादा कुछ नहीं मिलता. आज के लड़के-लड़कियां गुरुओं के सामने झुकें भी तो कैसे? उनके टाइट कपडे दिक्कत करते हैं.....!!!

खैर, शिक्षक दिवस पर हम विचार करें. वक़्त का पहिया तो हम घुमा नहीं सकते. गुरुकुल परम्परा में लौट नहीं सकते. लेकिन अगर न्यूनतम मर्यादा की बहाली भी हो जाए, तो शिक्षण कार्य सम्मानित होने लग जायेगा. बच्चे पढाई से ज्यादा शिक्षकों के निजी जीवन, व्यवहार और चरित्र से सीखते हैं. `

आज भी आदर्श शिक्षक बचे हैं, जो हमारा रोल-मोडल बन सकते हैं. बची-खुची प्रतिष्ठा भी इन शिक्षकों पर ही है. शिक्षण-कार्य श्रेष्ठ है. इसके सामने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पद भी छोटा है- विचार कीजिये...

-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.


जबसे होश संभाला, गानों को समझना शुरू किया, तभी से ये गाना भी सुनता आ रहा हूँ, 'चाँद सा रोशन चेहरा, जुल्फों........'. कभी-कभी ये भी सुनाई दे जाता,'चाँद सी हो महबूबा मेरी..'.

तब कुछ ख़ास समझ नहीं थी, 'महबूब और चाँद' के संबंधों के बारे में. हाँ कभी-कभी सोचता जरूर था, कि ये 'चंदा मामा' महबूब कैसे हो जाते हैं. उस वक़्त कन्हैया की ये हठ भी पढता था,'मैया मोहे चन्द्र खिलौना लैहो..'.
ये दोनों विरोधाभाषी बातें मन में कभी-कभी ही उठा करती थीं. जब तक छोटे थे 'चन्द्र-खिलौना' चला, फिर धीरे धीरे 'चाँद सी महबूबा' हो गयी....

समय के साथ-साथ ये प्रश्न मन में आने लगा, कि आखिर ये महबूबा चाँद जैसी ही क्यों है?
चाँद में वो कौन सी खासियत है, जिसकी वजह से उसे सुन्दरता के साथ जोड़ा जाने लगा..

चाँद गोल है, लेकिन गोल तो चपाती भी है. फिर चपाती जैसा चेहरा क्यों नहीं है??

फिर सोचा कि शायद चाँद रौशनी करता है, इसलिए ऐसा कहते होंगे, शायद इसीलिए उसे सुन्दरता का प्रतीक बना दिया गया. लेकिन रौशनी तो सूरज उससे बहुत ज्यादा करता है, तब फिर उसे क्यों नहीं माना गया?
और मान लो सूरज जलता है, लेकिन घर में जो CFL ट्यूब लाईट है, वो तो एकदम चाँद के जैसी रौशनी देता है, तब फिर लेटेस्ट वर्जन में सुन्दरता को CFL क्यों ना कहा जाए.??

फिर सोचा कि चाँद की शीतलता की बहुत चर्चा रहती है, क्या पता इसीलिए उसे सुन्दरता से तुलना करते हों! वैसे भी आजकल सुन्दरता भी आँखों को शीतल करने के काम आने लगी है...!! लेकिन 'बर्फ' तो उससे भी कहीं ज्यादा शीतल है, तब फिर बर्फ की तुलना क्यों ना की जाए सुन्दरता से??? फिर बर्फ तो सफ़ेद भी होता है, एकदम उजला-धप्प..

कोई भी तर्क संतुष्टि नहीं दे पाया. सब के सब यही साबित करते रहे, कि चाँद में ऐसा कुछ खास नहीं है. वो तो बस पुराने कवियों ने कहा, तब से सब लकीर के फ़कीर बने उसी लीक पर चलते जा रहे हैं.

लेकिन ऐसा नहीं है. चाँद में ऐसी ही एक बात है, जो उसके चरित्र को सुन्दरता के चरित्र के पास ले आती है.
चाँद जब पूर्ण हो जाता है, तब उसमे ह्रास होने लगता है. चाँद की सम्पूर्णता ही उसके क्षरण का प्रारंभ बिंदु है. जिस दिन चाँद पूरा हो जाता है, बस अगले ही दिन से वह घटने लगता है.

यही चरित्र सुन्दरता का भी है. जब सुन्दरता पूर्ण हो जाती है, तभी उसमे ह्रास शुरू हो जाता है. सुन्दरता भी चाँद की कलाओं की तरह बढती है, और फिर पूर्ण होते ही उसका भी क्षरण शुरू हो जाता है. पूर्ण सौंदर्य स्थिर नहीं होता...और पूर्ण चन्द्र भी स्थिर नहीं रहता.. जैसे चाँद का आकर्षण उसकी अपूर्णता में है, क्योंकि तारीफ भी 'चौदहवी के चाँद' की या फिर 'चौथ के चंदा' की होती है, कोई पूर्णिमा के चाँद सी महबूबा नहीं खोजता... उसी तरह सौंदर्य का आकर्षण भी उसकी अपूर्णता में ही है.

यही चरित्र फूल का भी है, उसका सारा आकर्षण उसके खिलने की प्रक्रिया में है. जिस दिन वह पूरा खिल जाता है, मुरझाना शुरू हो जाता है. इसीलिए 'फूलों सा चेहरा तेरा..' है. वरना खुशबू तो 'ब्रीज' साबुन में 17 सेंटों की है.

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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बहुत अच्छा लगता है, जब टीवी चलाते ही सामने एक सुन्दर सी बाला स्वागत करती हुई दिखाई दे जाती है. मन कोल्ड ड्रिंक पीने को मचल उठता है, जब एक विश्व सुंदरी अपने सुन्दर होठों से लगाये हुए कहती है, 'पियो सर उठा के'. और समाचार और भी आकर्षक लगने लगते हैं, जब उन्हें कोई दमकता चेहरा, सुरीली आवाज में सुना रहा होता है.

साथ ही साथ मैं इस सुखद भ्रम में भी डूब जाता हूँ, कि स्त्री सच में सशक्त हो रही है. आज कोई कोना नहीं बचा, जहाँ स्त्री ने अपनी उपस्थिति ना दर्ज की हो.

ऐसे ही एक सुखद भ्रम में खोया, टीवी पर बोल रही बाला को सुन ही रहा था, कि अचानक ठिठक सा गया. एक अर्धनग्न सी युवती, समंदर किनारे किसी बंद, पानी की बोतल का प्रचार कर रही थी. मैं उसकी अवस्था को देखकर हतप्रभ था. समझ नहीं पा रहा था, कि यह कौन से 'पानी' का प्रचार है..!!? क्या यह सच में उसी 'पानी' का प्रचार है, जो उस बोतल में बंद है, या फिर यह उस 'पानी' का प्रचार है, जो इस 'पानी' की आड़ में 'पानी-पानी' कर दिया गया.

यह कैसी सशक्तता है? क्या स्त्री इसी सशक्तता के लिए बेचैन थी? क्या यही प्राप्ति उसका अंतिम लक्ष्य है?

एक कटु सत्य यही है कि स्त्री आज भी सशक्त नहीं है, बल्कि वह पुरुष के हाथों सशक्तता के भ्रम में पड़कर स्वयं को छल रही है.
'हे विश्वसुन्दरी, तुमने क्या खोया, क्या पाया है...
तन को बाजारों में बेचा, फिर तुमने क्या कमाया है....'

स्त्री देह के छोटे होते वस्त्र और उसकी सुन्दरता को मिलते बड़े पुरस्कार......यह सब एक रणनीति रही है, इस पुरुष समाज की...स्त्री को छलने के लिए....दुर्भाग्य यही है, कि स्त्री स्वयं को उन्ही बड़े पुरस्कारों के आधार पर जांचने लगी. स्त्री को अपनी सुन्दरता का प्रमाण उन पुरस्कारों में दिखाई देने लगा...

जिस स्त्री को अपने आभूषणों में सुन्दरता दिखती थी, उसे अब अपनी अर्धनग्न देह ज्यादा सुन्दर लगने लगी. और रही बात पुरुष समाज की, तो वह तो सदा से यही चाहता रहा है. जो यह समाज तमाम अत्याचारों और बल के बाद भी नहीं कर पाया था, कुछ बुद्धिजीवियों ने इतनी सरलता से उसे कर दिखाया, कि स्त्री स्वयं ही अपने वस्त्र उतार बैठी.

कन्हैया सोच रहे हैं, कि शायद कोई द्रौपदी अपने चीर की रक्षा के लिए आवाज देगी... लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि यहाँ कोई दुशासन चीर हरण कर ही नहीं रहा है, यहाँ तो अब स्वयं द्रौपदी ही अपने चीर को त्याग रही है, तब फिर भला कन्हैया भी क्या करें?

सरकार की दृष्टि में सशक्तता का प्रमाणपत्र अब बार या पब में जाकर ही मिल सकता है. यह सब कुछ मात्र राजनीति का हिस्सा नहीं है. यह एक बहुत बड़ी रणनीति है, समाज के अन्दर से मनुष्यता और संस्कृति को मारने की.

पिछले दशक में अचानक ही हिन्दुस्तानी सुंदरियों को विश्व-सुंदरी और ब्रह्माण्ड-सुंदरी का ताज मिलने के पीछे उनकी सुन्दरता को पुरस्कृत करने का ध्येय कदापि नहीं था. इसके पीछे खेल था, यहाँ से संस्कृति को पुरस्कारों के जरिये ख़त्म कर देने का. और वह इसमें सफल भी रहे. अब हर रोज कहीं न कहीं गली-सुंदरी, मोहल्ला-सुंदरी, और पार्टी-सुंदरी के ताज मिलते रहते हैं.

स्त्री की सुन्दरता के दृष्टिकोण को बदल दिया गया. अब 'न्यूनतम वस्त्र, अधिकतम आधुनिक सुन्दरता' के द्योतक बना दिए गए. चलचित्रों (फिल्मों) का कैमरा अब अभिनेत्री की 'कजरारी आँखों' से उतर कर, उसकी 'बलखाती कमर' पर टिक चुका है. अब अभिनेता-अभिनेत्री की मुलाकात किसी बगीचे में, पेडों की ओट में नहीं, बल्कि समंदर किनारे किसी 'बीच-पार्टी' में होती है. जहाँ स्विमसूट में अभिनेत्री का एक दृश्य आवश्यक हो गया है.

दुर्भाग्य से स्त्री इसे ही अपनी स्वतंत्रता और सशक्तता का पैमाना मानने लगी है.

समय रहते स्त्री को इस अवधारणा से बाहर निकल कर अपनी सर्वोच्चता और पूर्णता की प्राप्ति के लिए प्रयास शुरू करना होगा. जिस दिन हर स्त्री अपनी पूर्णता को स्वीकार कर अपूर्ण पुरुष की समानता के भ्रमजाल से बाहर आ जायेगी, वह पूर्ण स्वतंत्र और सशक्त हो उठेगी. तब कोई दुसाशन ना चीर हरण का प्रयास करेगा, ना ही कृष्ण को चीर बचाने की चिंता होगी......

आखिर कृष्ण के लिए और भी तो काम हैं....

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.


सोचता हूँ क्या लिखूं, कोई बात बाकी नहीं.
यादों के झरोखों में, कोई हालात बाकी नहीं.

मौत की शुरुआत लिखूं,
या जिंदगी का अंत.....
खुशनुमा पतझर लिखूं
या उजड़ा हुआ बसंत....
बहार के कांटे लिखूं.....
या पतझर के फूल.........
झूठ का आईना लिखूं
या चेहरे की धूल........
इतने दर्द झेल लिए हैं, मेरी कलम ने
अब इसके खून में, कोई जज्बात बाक़ी नहीं.
सोचता हूँ क्या लिखूं..................................

दिल का वही दर्द लिखूं
या बेदर्द दुनिया.....
बेगरज आंसू लिखूं
या खुदगर्ज दुनिया.......
वक़्त के थप्पड़ लिखूं
या गाल अपने...........
मायूस आँखें लिखूं
या हलाल सपने........
कैसे करूँ जिंदगी में सवेरे का इंतजार...
अब तो जिंदगी में कोई रात बाकी नहीं...
सोचता हूँ क्या लिखूं.............................

ख्वाबों की दास्ताँ लिखूं,
या कत्ल सपनों के .....
गैरों के हमले लिखूं, या
कातिल शक्ल अपनों के
भीड़ का मातम लिखूं या
खामोशियों का शोर......
मरहमों के जख्म लिखूं
या जख्मों के चोर........
जख्म के फूल भी कैसे खिले चेहरे पर.....
आंसुओं की भी कोई बरसात बाकी नहीं...
सोचता हूँ क्या लिखूं................................

बुझता हुआ चिराग लिखूं
या आंधी का हौसला.....
गुजरती हुई साँसे लिखूं,
या मौत का फैसला.......
खुशियों का जनाजा लिखूं
या ग़मों की बारात...........
सोचता हूँ आज, मैं
लिखूं कौन सी बात........
'संघर्ष' कब्र में कैसी शहनाई की तमन्ना..
अब तो मौत की भी बारात बाकी नहीं.....
सोचता हूँ क्या लिखूं...............................

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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गर्म तपती दोपहर है,
लड़कियों की जिंदगी,
महज पथरीली डगर है,
लड़कियों की जिंदगी.
हर घडी हर पल सताए,
पत्थरों का डर जिसे,
वो चमकता कांचघर है,
लड़कियों की जिंदगी.
रास्तों का है पता, न
मंजिलों की है खबर,
एक अनजाना सफर है,
लड़कियों की जिंदगी.
है बड़ा बेताब पढ़ने
को, जिसे सारा जहाँ,
आज की ताज़ा खबर है,
लड़कियों की जिंदगी.

जी, यह कोई भावावेश में किसी स्त्री-चिन्तक के मन से निकली हुई पंक्तियाँ नहीं हैं, यह विकृत सत्य है, इस समाज का. समाज में आज तक भी यही स्थिति है स्त्री की. स्त्री सशक्तता की तमाम ऊंची-ऊंची बातों के पीछे का सच ऐसा ही विकृत है.

स्त्री सशक्तता के बहाने भी तो स्त्री देह ही चर्चा का विषय है. आज समानता के नाम और छल के पीछे जिस तरह से स्त्री के शील का हरण किया जा रहा है, वह क्या है?

इन्द्र अगर अहिल्या के पास छल से जाकर उसका शीलभंग करने का अपराधी है, तब फिर यह भी एक प्रश्न है, कि अहिल्या को ही भ्रमित करके इन्द्र के पास छले जाने के लिए भेज देने में, क्या किसी का दोष नहीं? और तब क्या अहिल्या का शील-भंग नहीं हो रहा? चाहे इन्द्र, अहिल्या के पास जाए या अहिल्या, इन्द्र के पास....छली तो अहिल्या ही जाती है....!!

आज आधुनिकता और समानता के नाम पर अहिल्या को स्वयं ही छले जाने का आभास नहीं रहा, और शायद इसी का परिणाम है, कि अब हर अहिल्या पत्थर ही होती जा रही है. स्त्री के पत्थर होते जाने का इससे बड़ा कोई प्रमाण नहीं है, जो कि आये दिन समाचार पत्रों और समाचार चैनलों की ताज़ा खबर के माध्यम से जानने को मिल रहा है. आज देह-व्यापार का सञ्चालन करने वाली संचालिका भी तो पत्थर हो चुकी स्त्री ही है...

और समाज का दुर्भाग्य है, कि अब कोई राम अहिल्या को तारने नहीं आने वाले, क्योंकि अब अहिल्या को ही अपने छले जाने का भान नहीं रहा...या यह भी कहा जा सकता है, कि शायद उसे अपने छले जाने का कोई पश्चाताप नहीं रहा.

आज स्त्री यदि ताज़ा खबर बन गयी है, तो इसमें कहीं न कहीं उसका स्वयं का भी योगदान है. उसने स्वयं ही अपने जीवन को एक अनजाने सफ़र में तब्दील कर लिया है.

स्त्री को यह सत्य अपने जीवन में स्वीकारना होगा कि 'स्त्री होना ही पूर्णता है'.
'पूर्ण' की समानता मात्र 'पूर्ण' से ही हो सकती है, उसे किसी अन्य से समानता की आवश्यकता नहीं होती.......
और यदि यह प्रयास किया जाए, तो वह उस 'पूर्ण सत्य' की महत्ता को कम करने जैसा ही होगा.

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

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संघ का राजनीतिक ब्रह्मचर्य...??

Posted by AMIT TIWARI 'Sangharsh' On 8/29/2009 04:36:00 pm 4 comments


भारत ब्रह्मचारियों का देश रहा है. ब्रह्मचर्य की एक से एक कथा यहाँ प्रचलित है. स्त्री-सम्बन्ध, भारतीय ब्रह्मचर्य के समक्ष बड़ी चुनौती के रूप में आती रही है.

ब्रह्मचर्य की आड़ में स्त्री-समागम और संततियों की अनेकों कथाएँ भी मौजूद हैं. अकेले मेनका, विश्वामित्र की वर्षों की साधना को ध्वस्त करने में सक्षम थी. कामिनी से हम लगातार भयभीत होते रहे हैं. कामिनी से बचने और अपने ब्रह्मचर्य को बचाने का उपाय खोजना जरूरी था. हनुमान सबसे बेहतर उदहारण थे. हनुमान हमारे सुरक्षा-कवच बने. अपने-अपने मकसद के अनुसार हमने भगवानों का लिस्ट छांटा. पर, ब्रह्मचारियों के रोल-मॉडल तो हनुमान ही बने.

आप जानते होंगे कि इस ब्रह्मचारी हनुमान को एक बेटा भी था, जिसको बहुत कम भक्त जानते हैं, वह है मकरध्वज....
मकरध्वज को हनुमान जैसा ब्रह्मचारी बाप मिला. हनुमान ने भी कभी इसे छिपाने का प्रयास नहीं किया. ना ही कभी संबंधों को लेकर कबड्डी खेली. मकरध्वज जायज औलाद है कि नाजायज, कभी भी इसके लिए हनुमान को स्पष्टीकरण नहीं देना पड़ा. लोगों ने कभी इसे डिबेट नहीं बनाया.

आज बजरंगबली तो चर्चा में नहीं हैं, पर, हमारे बजरंगी भाई चर्चा में अवश्य हैं.
संघ प्रमुख मोहन जी भगवत, भाजपा से रिश्ते को लेकर परेशान हैं. परेशानी समझ में नहीं आती, कि भाजपा इतनी भी बदसूरत पार्टी नहीं है, जिसे रिश्तेदार कहने में शर्म आवे. हाँ, झारखंडी पार्टी होती तो भागवत भाइयों को बैठने में ख़राब भी लगता, पर यहाँ तो सभी खाए-पिए-अघाए लोग हैं. लाल टुह-टुह गाल और धवल वस्त्र, फिर भी...
...देशभक्त भाजपा बोलती भी है जबरदस्त...?

स्थापना से लेकर आज तक सभी संगठन मंत्री तो संघ से भेजे गए. तपोनिष्ठ दीनदयाल उपाध्याय, वाजपेयी, मोदी, आडवाणी सभी के सभी तो संघ के प्रचारक ही रहे हैं. भाजपा आज वह अंगुलिमाल डाकू बन गयी है, जिसके पाप का भागी बनने के लिए कोई तैयार नहीं है. सत्ता और संसाधन-सुख जुटाए भाजपा और भोगे संघी और वक़्त आये तो इज्जत ख़राब कर दो.......ई भाई कहाँ का इंसाफ है?

पार्टी जिस घोडे पर सवार है, उसका लगाम उसके हाथ में कभी होता ही नहीं. आज जो नेता भाजपा विरोध में हैं, उन्हें पहले ही पता था, कि लगाम उनके हाथ में नहीं होगा, फिर लगाम लपकने की हसरत क्यों? हसरत दिखाओगे तो भोगोगे..

देश बेवकूफ नहीं रह गया है. देश अब राजनीति की परिभाषा जानता है. संघ संपूर्णतः एक राजनीतिक संगठन है. सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री नहीं हैं, तो क्या प्रधानमंत्री से कम रसूख है उनका?

घी दाल में कहीं भी गिरे, परिणाम में क्या अंतर आएगा? संघ की बहिन जी हैं, राष्ट्र सेविका समिति, भांजी हैं दुर्गावाहिनी, लाडला है विद्यार्थी परिषद्, कुल-पुरोहित है विहिप. कोई सदस्य किसानी में है, तो कोई मजदूरी में. जरूरत के हिसाब से एक परिवार को जितनी सुविधा चाहिए, उतनी सुविधा के लिए अलग-अलग प्रकल्प संघ ने खडा किया.

एक दम खांटी स्वदेशी......... बाहर से आउटसोर्सिंग की जरूरत ही नहीं. सारी वेरायटी घर में ही. यहाँ तक कि 'नकली विरोधी' भी इन्होने खडा कर लिया है. दूसरा कोई गाली-गलौज करे, परिवार की प्रतिष्ठा दांव पर लगे, इससे बेहतर हैं कि अपने लोग ही गाली दें. गोविन्दाचार्य जैसा छुट्टा सांड, संघ का ही छोडा हुआ है. खूब गालियाँ रटवाई गयी इन्हें.......

हाँ, गाँव में एक नया शब्द विकसित हुआ है, वह है 'बुलौकिया'. गिरमिटिया नहीं बुलौकिया..... यह बुलौकिया 'Block' यानि प्रखंड से बना है. बड़े परिवार में एक सदस्य नेतागिरी में अवश्य ही रहता है. परिवार का यह सदस्य राजनीतिक सुविधा से फंड, राशन, खाद-बीज, सब्सिडी आदि जमा करता है. इसकी दलाली से परिवार को बहुत फायदा होता है. राजनीतिक सम्बन्ध के बिना आज परिवार जिन्दा ही नहीं रह सकता. हर कोई दबोचने का प्रयास करता है.

खैर, मैं संघ परिवार की बात कर रहा था. इस परिवार ने भी भाजपा के रूप में अपना बुलौकिया बनाया.
भाई ई त अच्छी बात बा.... इनमे कौन बुराई बा..? भाजपा तोहार औलाद बा.... काहे गरियावत बानी भागवत जी ? रउरा गुड खाई तो गुलगुला से परहेज काहे...............

संघ की स्वदेशी पढ़ते-पढ़ते मैं भी कभी-कभी देसज हो जाता हूँ. राजनीति पवित्र है, मौलिक है. देश, समाज और जन-गण-मन इस राजनीति से प्रभावित होता है. जिस देश को भागवत जी खडा करना चाहते हैं, वह राजनीति के बिना कैसे संभव है? राजनीति तो गाँधी, पटेल, सुभाष ने भी किया था. क्या ये लोग गलत थे? चुनावी राजनीति हो या सांस्कृतिक राजनीति चरित्र सबका एक ही होता है. इस स्थिति में राजनीतिक ब्रह्मचर्य एक पाखण्ड ही होगा.

-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा : एक अभियान

Posted by अमिताभ भूषण"अनहद" On 8/28/2009 07:46:00 pm 1 comments


जंगल से निकली थी सांप के भय से, गाँव-शहर में आई तो आदमी ने डंस लिया...

यह दशा है, व्यथा है, गौमाता, गौवंश की. उस वंश परंपरा की, जिसका सीधा सम्बन्ध भारत के स्वास्थ्य, समृद्धि, स्वावलंबन और जीवन से रहा है. सहस्त्राब्दियों से भारतीय समाज में पूज्य रहे, पालक-पोषक रहे गौवंश का संरक्षण व संवर्धन समय की दरकार है. तकनीक तथा मशीन के अंध प्रयोग, नक़ल की होड़ में जुटे समाज को गौवंश के निरादर का गंभीर परिणाम भुगतना होगा. गाँव, खेत, किसान की पहचान से गौवंश की दूरी भविष्य के लिए खतरनाक संकेत हैं.

अभी कुछ वर्ष पहले तक ग्राम्य जीवन में गाय, बैल संपन्नता के प्रतीक थे. घर के बाहर खूंटे से बंधी गायों, बैलों की जोड़ी गृहस्वामी के प्रतिष्ठा का आधार होती थी. गाँव का गरीब से गरीब आदमी गौसेवा, गौपालन के लिए लालायित होता था. सामर्थ्यवान व्यक्ति से गाय अथवा बछडा और बैल सशर्त लेकर गौवंश से अपने दरवाजे की शोभा बढाता था. समय के साथ बदलते समृद्धि, उन्नति के मापदंड ने दरवाजे पर गडे खूंटे और हौदी(नादी) को सूना कर दिया है. ट्रैक्टर और थ्रेशर सरीखे मशीन अब ग्राम्य जीवन की संपन्नता के नए प्रतीक हैं. सोयाबीन के दूध में प्रोटीन ढूँढने वाला समाज, निरोग काया के लिए अब भी गाय के दूध को अमृत मानता है. गोमूत्र के औषधीय उपयोग और गोबर के धार्मिक, खेतिहर प्रयोग आज भी भारत में निर्विकल्प हैं. बावजूद, देश में गौवंश के प्रति विमुखता अपने चरम पर है.

दो बैलों की कहानी तथा लाला दाउदयाल का गऊप्रेम अब इतिहास कथा होने को है. क्या हम नयी पीढी को दो बैलों की कहानी के स्थान पर 'दो ट्रैक्टर की कहानी' पढाना चाहते हैं? या लाला दाउदयाल के गऊप्रेम की जगह किसी सभ्य भारतीय का कुत्ता-बिल्ली प्रेम आदर्श के तौर पर पढाना चाहते हैं?

शायद इन तमाम प्रश्नों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गंभीरता से सोचा है. रचनात्मक कार्यों के प्रति अपनी सांगठनिक प्रतिबद्धता को, संघ अपने गो संरक्षण-संवर्द्धन अभियान के जरिये दुहराने को तैयार है. २९ जून २००९ को भोपाल के शारदा विहार परिसर में संघ ने देश भर से आये डेढ़ सौ से अधिक कार्यकर्ताओं के बीच इस अभियान को लेकर विमर्श किया. तीन दिन तक चले विमर्श से 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' के सम्पूर्ण स्वरुप का निर्धारण हुआ. अपने स्थापना दिवस अर्थात विजयादशमी के दिन 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' का शंखनाद कुरुक्षेत्र की भूमि से करने का संघ ने निश्चय किया है. एक सौ आठ दिनों तक चलने वाली इस यात्रा में २०००० किलोमीटर की दूरी तय की जायेगी.

माना जाता है, कि अयोध्या आन्दोलन के बाद एक बार फिर 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' के जरिये संघ समाज में अपने पकड़ और प्रभाव का परिचय देगा. चार प्रमुख रथों से निकलने वाली इस यात्रा का उद्देश्य गौवंश के प्रति समाज में कर्तव्यबोध उत्पन्न करना तथा गाँव, पर्यावरण, संस्कृति के लिए चेतना जागृत करनाहै.

संघ के सारथी इस यात्रा में समाज के सभी पंथ, धर्मं, जाति को जोड़ने का प्रयास करेंगे. इस यात्रा का परिणाम क्या होगा, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा. फ़िलहाल इतना तय है कि गौवंश के रक्षार्थ निकलने वाली यह यात्रा संघ की ही नहीं, अपितु समय की भी यात्रा है.

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-Amitabh Bhushan 'Anhad'

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लीजिये, जनकल्याणार्थ प्रधानमंत्री महोदय का एक और बयान आ गया है. लगता है कि देश में उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से परेशान हैं प्रधानमंत्री!

होना भी चाहिए, क्योंकि दूसरी बार सत्ता जो मिली है. जन भरोसा का सर्टिफिकेट मिला है; सो जन यानि आम जन की याद उन्हें फिर सता रही है. उन्होंने पिछले दिनों आह्वान किया था कि सीबीआई आमजनता की इस धारणा को समाप्त करे कि बड़ी मछलियाँ सजा से बच जाती हैं. इससे भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है , सुरसा के मुख की तरह. लिहाजा न केवल दुनिया में भारतीयों की छवि धूमिल हो रही है, बल्कि इसके कारण गरीबों को सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. मनमोहन सिंह ने साफतौर पर यह कहा है, कि लोग यह मानते हैं कि हमारे देश में सिर्फ कमजोर लोगों के खिलाफ ही तुंरत कार्रवाई होती है, उच्च पदों पर बैठे और सबल लोग बच जाते हैं. उन्होंने उम्मीद जतायी कि इस धारणा और हालात को बदलने के लिए सम्बंधित एजेसियों को उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से आक्रामकता के साथ निपटना चाहिए. प्रधानमंत्री के मुताबिक, दुनिया हमारे लोकतंत्र का सम्मान करती है, पर यहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार हमारी छवि को धूमिल करता है. इससे निवेशक हतोत्साहित होते हैं, क्योंकि वे सौदों में पारदर्शिता चाहते हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि देश का विकास हो रहा है और हम वैश्विक अर्थव्यवस्था में शामिल हो रहे हैं, पर भ्रष्टाचार के कारण सर्वश्रेष्ठ प्रौद्योगिकी संसाधन हासिल नहीं हो पा रहे हैं. उन्होंने फिर दुहराया कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा और ज्यादा खामियाजा गरीबों को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि उनके लिए शुरू की गयी योजनायें भ्रष्टाचार में ही ख़त्म हो जाती हैं, और वे उनके लाभ से वंचित रह जाते हैं.

प्रधानमंत्री को यह याद दिलाना जरूरी है, कि दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी अपने समय में ऐसी चिंता व्यक्त कर चुके हैं. उन्होंने तो आंकडे भी दिए थे. वर्तमान पार्टी महासचिव राहुल गाँधी भी इस बात को कई बार कह चुके हैं.
समस्या बीस पैसा, दस पैसा पहुँचने का नहीं, बल्कि जो मातहत ठेकेदार या सरकारी, गैर सरकारी एजेंसियां क्रमबद्ध रूप से ८०-८५ पैसा खा रही हैं, उनके विरुद्ध अब तक क्या कार्रवाई हुई, पीएमओ को इस पर श्वेतपत्र लाना चाहिए.

प्रधानमंत्री को याद दिलाना होगा कि देश में मौजूदा नौकरशाही और उसकी विभिन्न लाबियों, समाज में सक्रिय दबाव समूहों, अर्थजगत में छाई विभिन्न लाबियों को जनोन्मुखी बनाने, तथा इसमें बाधक व्यक्तियों को न्यायिक जांच के दायरे में लाने में, और समय रहते देश में प्रचलित ठेकेदारी की व्यवस्था की भी समीक्षा करने में, यदि वे विफल रहते हैं, तो फिर यही समझा जायेगा कि मतदाताओं ने दलित व पिछड़ी मानसिकता से बाहर निकलकर कांग्रेस को जो जनाधार दिया है, उसका मकसद अधूरा रह गया.

राजनीतिक इतिहास फिर अपने आप को दुहराए, तो देश में सबसे लम्बे समय तक राज करने वाली कांग्रेस को हतप्रभ नहीं होना चाहिए. सवाल देश की आर्थिक सेहत का तो है ही, आम जनता के आर्थिक सेहत की उपेक्षा भी घातक हो सकती है.....

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-Kamlesh pande, Spl. Correspondent, Swaraj T.V.

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दुनिया बीमार हो गयी है. धीरे-धीरे यह एक अस्पताल में तब्दील हो रही है. हर कोई बीमार और लाचार नज़र आ रहा है.
'रोपे पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय....!!'

मौजूदा संसार हमारे ही अतीत के चिंतन का परिणाम मात्र है.
सृष्टि की इस अनमोल दुनिया को हमने अपनी असीम भोग की कामना के चलते बर्बाद एवं बदरंग कर दिया है.
पश्चिम के विचारकों ने कहा कि मनुष्य 'वासनाओं का एक पुंज है'. वासना की पूर्ति ही जीवन का लक्ष्य है. इस अवधारणा ने बेलगाम भोग को जन्म दिया. जंगल उजड़ गए,पहाड़ टूट गए. नदियाँ विषैली ही नहीं, सूख भी गयी. धरती बंजर हो गयी. दर्द एक हो, तब तो कहें, यहाँ तो चारों ओर विनाशलीला..........

जीवन की तमाम जरूरी चीजें अर्थहीन हो गयी हैं. आज हम जहरीली दुनिया में जीने को अभिशप्त हैं.
आज 'स्वाइन-फ्लू' से हड़कंप मचा है. कल 'बर्ड-फ्लू' का हौव्वा था. क्या मुर्गी और निरीह सूअर ही जिम्मेदार हैं इसके लिए?

दरअसल यह 'मानव-फ्लू' है. मनुष्य ही जिम्मेदार है इसके फैलाव के लिए.
१९१८ में फ्लू ने एक लाख लोगों की जान ली. १९५७ में चार लाख मौतें हुई. १९६८ में हांगकांग फ्लू ने सात लाख लोगों की जान ले ली. मौसमी बुखार से प्रतिवर्ष ३६००० की मौत केवल भारत में होती है.

अमेरिका में 'स्पिथफिल्ड फ़ूड कारपोरेशन' एक साल में १० लाख सूअर को काटता है. आज दुनिया की सबसे बड़ी मांस विक्रेता कम्पनी यही है. १० लाख सूअरों को जिस तरह रखा जाता है, वह भयानक बीमारी का कारण है. 'बर्ड-फ्लू' का भी यही कारण था, कि छोटी सी खोली में मुर्गियों को ठूंसकर रखा जाता है. स्वाभाविक जीवन नहीं जीने के कारण इससे वायरस का जन्म होता है, जो मनुष्य तक पहुँच जाता है.

मामला केवल सूअर और मुर्गी का ही नहीं है. सवाल है मनुष्य की लगातार कम होती जा रही प्रतिरोधी शक्तियों का.
मनुष्य जिस भयानक माहौल में जी रहा है, वह जानलेवा है. जहरीली हवा और पानी के साथ-साथ जहरीला भोजन भी अब प्रभाव दिखाने लग गया है.

भारत के खेतों में बोए जाने वाले बीज के बारे में आप जान लें. आज भारत के बीज बाज़ार पर 'मोनसेंटो' कम्पनी का एकाधिकार हो चुका है. यह वही 'मोनसेंटो' कम्पनी है, जो जहर बनाती है. पोटाशियम सायनाइड भी यहीं बनता है. इस कम्पनी ने जो बीज, बाज़ार में उतारा है, वह है 'जेनेटिक मोडिफाइड (जी.एम्.) सीड'. इस बीज में भी सूअर का जीन मिला है. इस बीज से उगी फसल जानलेवा है. कैंसर जैसी घातक बिमारियों का होना निश्चित है. शरीर की प्रतिरोधी शक्तियां भी क्षीण हो जाती हैं. इस बीज के पौधे का पराग, झड़कर जमीन को भी बंजर बनाता है. लगभग खाद्य सामग्री पर इसका प्रभाव है.

भारतीय समाज लाखों वर्षों से खेती से जुड़ा हुआ है. आज तक इन्होने जल, जमीन और वायु को प्रदूषण से बचाए रखा. हम जब पीपल की पूजा करते थे, गंगा और गाय को माँ कहकर पूजते थे, तो दुनिया हमारा मजाक उड़ाती थी, 'बैकवर्ड कंट्री' कहकर.

आज दुनिया उजाड़ की ओर बढ़ रही है, तो भारत की याद आ रही है. जैविक खेती, जैविक खाद, जैव उत्पाद, भू-संरक्षण, गोधन की रक्षा, वन और जल संरक्षण के लिए दुनिया भारत की ओर लौट रही है. विश्व के चिन्तक मानने लगे हैं, कि यह कथित विकास प्रकृति विरोधी है.

मानवी सभ्यता को अगर बचना है, तो भारतीय जीवन पद्धति और भारतीय मूल्यों की ओर लौटना ही होगा.
दुनिया आज मजबूर हो रही है, ' त्येन त्यक्तेन भुंजीथा:' का मन्त्र-जाप करने के लिए....

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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