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'किन वानरों से हम विकसित हुए थे?' लेख पढ़ रहा था. मैंने भी अपना कद-काठी देखना शुरू किया. आंकलन करने लगा कि डार्विन के विकासवाद का कितना असर शेष है मुझ पर..?
हमारा पूर्वज जमीन पर चलने वाला रहा हो, या गाछ पर चढ़ने वाला, बावजूद इसके, वे वक़्त के हांथों घिसते रहे, मंजते रहे. मैं उन दूर के पूर्वजों की बात करने नहीं बैठा हूँ. मैं अपने निकट के पूर्वजों को याद कर रहा हूँ. स्मृतियाँ और संज्ञान जितनी दूर तक जा पा रहा है, मुझे यही प्रतीत होता है, कि हमारी निर्माण-प्रक्रिया ढलान की ओर है.
केवल कद और काठी ही नहीं घट रही है, बल्कि हम लगातार हर मोर्चे पर बौना और ठिगना होते जा रहे हैं.

"आदमी के शहर में मैं ढूंढता हूँ आदमी..
किस तरह खाने लगा है, तन ये अपना नोचकर,
काम है हिंसक पशु सा...शक्ल से है आदमी."

हाँ! यह सत्य है कि हम शक्ल से ही आदमी रह गए हैं. कोई भी कद, आदमकद नहीं मिलता. जिसकी भी पुँछ उठाओ, मादा निकलता है. आदमी स्वयं अपने होने के अर्थ से दूर हो गया है. हर पशु हमसे श्रष्ठ है. पशुओं में भी करुणा, प्रेम, जातीय अस्मिता, संगठन-भाव कबीले तारीफ है. प्रकृति का सम्मान करना तो हम पशुओं से सीखें...
ब्रह्मचर्य को लेकर हम पशुओं को नाहक कोसते हैं. प्रकृति का हर जीव प्रकृति के साथ खडा है. प्रकृति की उपेक्षा और अनादर तो दूर-दूर तक उसके व्यवहार में नहीं है. ऋतू के आये बिना, भले ही नर-मादा साथ हों, समागम करने नहीं उतरते. सम्भोग तो केवल सृजन के लिए है. इतना विवेक है पशुओं के पास. फिर 'पाशविकता' को क्यों गाली बनाया जाए?
हिंसक से हिंसक पशु भी प्रेम के वश में आ जाते हैं. मनुष्य जैसा खोखला और खाली तो कोई नहीं.
प्रेम, सद्भाव और संवेदना अब मनुष्य के स्वभाव में नहीं है. अब मनुष्य एक सामजिक प्राणी नहीं बल्कि एक हिंसक प्राणी बनकर रह गया है.
आज घरों में नेम-प्लेट लग रहे हैं. हमारे पूर्वज नेम-प्लेट नहीं लगाते थे. घर छोटा था, पर उनमे रहने वाले का व्यक्तित्व बड़ा था. संसाधन कम था, पर संस्कार बड़ा था. वाणी थी, पर हम वाचाल नहीं थे. हम हदों में थे, बेहदों में नहीं गए. विकृति थी, पर उसे संस्कृति नहीं बनने दिया गया. लगातार उसके परिमार्जन और परिस्कार में लगे रहे.
परन्तु अब वह नहीं रहा. अब दिनों-दिन विकृति को संस्कृति में ढाला जा रहा है. व्यक्तित्व नेम-प्लेट जितना छोटा हो गया है.
अब यह कहना, कि मनुष्य पशु हो गया है, भी पशु का अपमान है. अब तलाश जारी है कि मनुष्य किस बन्दर से बना है?
प्रश्न यह है कि इस बात को जान लेने से भी क्या हो जायेगा....! जब कि हम देख रहे हैं कि अब यह मनुष्य किसी भी जानवर से ज्यादा बदतर होता जा रहा है.
बन्दर की पीढी और पहचान तो वैज्ञानिक खोजते ही रहेंगे....लेकिन उससे सिर्फ इतना ही पता चल सकता है कि पहले-पहल मनुष्य कैसे बना होगा???
अधिक गंभीर प्रश्न तो यह है कि ये आज का मनुष्य कैसे बना है....आज की इस पीढी के मनुष्य की जिम्मेदारी तो बन्दर भी नहीं लेगा अपने सर पर.
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-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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4 Response to "बन्दर भी आज के आदमी का पूर्वज बनने को तैयार नहीं..."

  1. अमित भाई! कामेन्ट के लिये शुक्रिया। मैने कहा था
    ना! मैं ध्यान नही देता ब्लागिंग पर , नही तो ज्यादा पढ़े गये में मेरा हीं पोस्ट रहेगा।
    आज उपर से दोनो पोस्ट मेरे हीं द्वारा लिखे गयेंहै।

     

  2. आप जीमेल चैट में आनलाइन रहा करें।
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/

     

  3. ठीक लिखा है आपने सहमत , मगर कहीं नारीवादी इस वाक्य /कहावत पर नाराज न हो जायं
    जिसकी भी पुँछ उठाओ, मादा निकलता है.

     

  4. Unknown Said,

    bahut halke mein hi apne bahut gambhir prashn khada kar diya hai..........
    iske liye aap badhai ke paatr hain..
    lage rahiye..

     


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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