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भारत स्वतंत्रता-दिवस की तैय्यारी में जुट गया है. आमजनों का उत्साह कहीं नज़र तो नहीं आ रहा, पर जगह-जगह पुलिस बैरिकेट, आ़ने-जाने वालों की तलाशी लेती पुलिस, होटलों में छापामारी से पता चलता है कि १५ अगस्त निकट है. सुरक्षा एजेंसी की सक्रियता और ही इस राष्ट्रीय पर्व को गंभीर बना देती है.
आजादी साठ की उम्र पार कर चुकी है. स्वतंत्रता सठियाय गयी है या परिपक्व हुई है, विवेचना जरूरी है.
हाजरों वर्षों की गुलामी, विदेशी आक्रमणों को झेलते भारत १९४७ को आजाद हुआ. बेइंतेहा त्याग और बलिदान के बाद मिली वह आजादी खंडित थी. भारत तीन टुकडों में बंट चुका था.
भारत की गुलामी में जो कारन थे आजादी के समय भी वही कारन मौजूद थे. सत्ता के लोभ में हमने अंग्रेजों को बुलाया और इसी लोभ में अंग्रेजों को भगाया भी. वही दीमक स्वतंत्रता को चाट रहा है. आज आजादी जर्जर हो चुकी है. आमजनों के लिए आजादी के मायने बदल गए हैं.
आजाद भारत का मैंने भी ४५ बरस भोग किया. मुझसे भी पड़ोस का हिंदुस्तान लूटा गया, बर्बाद हुआ. ईमानदारी से स्वीकारने में मुझे शर्म नहीं.
२६ जनवरी और १५ अगस्त के आते ही मेरा बचपन गतिविधियों से भर जाता था. झंडा फहराने के लिए बड़ा-बड़ा सरकट खोजता. रंग खरीदता. कागज पर झंडा बनाता. अशोक चक्र बनाने में भूलें होती तो फिर दूसरा झंडा रंगता...! भाषण रटता. देशभक्ति के गीतों की किताब खोजता... प्रभात फेरी में पूज्य बापू अमर रहे, चाचा नेहरु अमर रहे का नारा लगा-लगा कर निहाल होता. बीच में भगत सिंह जिंदाबाद का भी नारा लगा देता...बहुत दिनों से 'भारत माता की जय' नहीं बोल पाया हूँ. वर्षभर तो भारत माता नाम की कोई चीज जेहन में आती नहीं. हाँ, २६ जनवरी और १५ अगस्त को जरूर जयकारा कर भारत माता को याद करते. अब वह भी बंद है. लाल किला में कब तिरंगा फहरा, मुझे पता नहीं होता. जन-गन-मन सुनकर बहुत दिनों से सावधान नहीं हुआ हूँ मैं.
मेरे भीतर पड़ताल जारी है. आखिर मेरे दैनंदिन से देश क्यों गायब होता जा रहा है. मैं व्यस्तता, बेरोजगारी, बेहाली को बहाना बनाऊं तो बात पचेगी नहीं. आखिर १९४७ से पहले भारत में कौन सी खुशहाली थी कि हम देश के लिए मर मिट रहे थे.
आज हमारे पास संचार के तमाम साधन मौजूद हैं, फिर भी हमारी देशभक्ति क्यों नहीं घटित हो रही है? क्या देश के बुनियादी सवाल उत्तरित हो गए हैं?
हकीकत कुछ और है. आज देश की स्थिति १९४७ से भी बदतर है. बीमारी, महामारी, भुखमरी थी, पर हमारा समाज आत्महंता नहीं था. भारत के ऊपर एक रुपया भी विदेशी कर्ज नहीं था, तमाम लूट के बावजूद. १९४७ तक भारत कर्ज-मुक्त देश था. भारत के पास अपार मीठा जल था. सदानीरा नदी थी. घने जंगल थे. ऊँचे पहाड़ थे. खेतों में हरियाली थी. आज से बेहतर स्वास्थ्य था. बेहतर समाज था. दरवाजे पर दुधारू जानवर थे. शेर की दहाडें थी, गीदडों की भभकी थी. क्या नहीं था हमारे पास?
गीत थे, संगीत थे. नृत्य और उत्सव थे. मंदिरों में घंटी की आवाज थी तो मस्जिदों में मौजूं था अजान. कश्मीर कि क्यारियों में केशर की महक थी. पूरब कि सात बहनों का प्रेम था. आप इसे असीम आत्ममुग्धता में डूबने की बात कहें तो भी मुझे गर्व ही होगा.
आजादी के इतने वर्षों बाद हमने क्या खोया, क्या पाया? क्यों नहीं हिसाब करते हैं? आने वाली पीढी के लिए कौन सी विरासत छोड़कर जायेंगे?
अदम गोंदवी ने कहा था-
"सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद हैं,
दिल पे रख के हाथ कहिये, देश क्या आजाद है.
कोठियों से मुल्क की ऊँचाइयाँ मत आंकिये,
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है."

फुटपाथ पर आबाद हिंदुस्तान को आजादी का मायने कब समझायेंगे?
पेट खाली हो, घर अँधेरा और चूल्हा शांत हो वहां जश्न की बात करना आमजनों को चिढाना ही तो है.
प्रधानमंत्री लालकिला के प्राचीर से भाषण देंगे. प्रगति को दुहराएंगे. मैं निवेदन करता हूँ प्रधानमंत्री से कि वे देश से सही-सही बात बताएं कि-
(१) देश की खेती तब कैसी थी अब कैसी है?
(२) जंगल बढा है या उजड़ गया?
(३) नदियाँ कैसी थी, अब कैसी हैं?
(४) जानवर कितने थे अब कितने शेष हैं?
(५) उत्पादन लागत कितनी थी, अब कितनी है?
(६) प्रतिव्यक्ति अनाज की खपत कितनी थी, अब कितनी है?
(७) मंहगाई दर कितनी थी, अब कितनी है?
(८) कुटीर उद्योग कैसा था, अब कैसा है?
(९) लघु उद्योग का ताजहाल बताएं.
(१०) सामाजिक, सांस्कृतिक माहौल कैसा था, अब कैसा है?

सवालों की फेहरिस्त लम्बी है. देश श्वेत पात्र जारी करे. देश को जानने का हक है कि देश के निजामों ने राष्ट्रीय सम्पदा में कितना इजाफा किया है या बर्बाद किया है?
तभी देश का जन-गण-मन स्वतंत्रता का मूल्य समझ पायेगा. राज्यपोषित जश्नों से हमें क्या लेना देना? १९४७ के बाद सरकारें बदली हैं, पर सत्ता का चरित्र तो अंग्रेजो वाला ही है.
मैं दिल्ली के बाजार में हूँ पर दिल में आज भी मेरा देश मौजूद है, और यह मुझे अक्सर बेचैन करता है. झूठे-मक्कार निजाम के खिलाफ हल्ला बोलने की प्रतिबद्धता गहराती जा रही है. मैं जानता हूँ कि सरकार सच नहीं बोलेगी.
सरकार सच इसलिए नहीं बोल रही है कि मैं मौन हूँ. मेरा यह 'मैं' विद्रोह की इकाई भर है. उठाना ही होगा मुझे एक बार तिरंगा. मादरे-वतन की चीख लगानी ही होगी मुझे.
स्वतंत्रता बूढी नहीं परिपक्व होगी. हुक्मरानों! देश बचेगा, तभी तुम्हारा दल भी बचेगा. भावनाओं के इस झिलमिल लौ की चमक देंखे. तैयार हो जाएँ साठ होने के लिए या फिर स्वाहा होने के लिए--
"झिलमिलाती लौ सनातन लौ भला कब तक रहेगी,
पीढियों के जुल्म को ये पीढियां कब तक सहेंगी,
झिलमिलाती लौ, गर लपट बन गयी,
तो फिर ना कहना, ये दिवाली हाय कैसे मन गयी???"
जय हिंद, जय हिंदुस्तान.

- Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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