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आओ आन्दोलन-आन्दोलन खेलें...

Posted by VIJAYENDRA On 7/28/2009 10:40:00 am


बचपन में बहुत सा खेल खेला करते थे. कुछ खेल बेवकूफी भरा था, पर बेहतरीन था. वाह! मेरी बेवकूफी. वैसे बचपन के खेलों की भी अपनी ही ऐतिहासिकता है. भगत सिंह बचपन में धान के खेत में बन्दूक रोपते थे. चन्द्रगुप्त गड़रियों के बीच राजा बनने का खेल खेला करते थे.
मेरा सब खेल बिगड़ गया. मैं ना तो तीतर बन पाया ना बटेर. मेरे सभी मित्र आन्दोलन कर रहे हैं.शशि,विलास,फिरोज़,अक्षय, अशोक सभी के सभी मित्र देश में आन्दोलन कर रहे हैं. मेरे भीतर का आन्दोलन भी कुलबुलाता रहता है. सोचता हूँ कि मैं भी एक आन्दोलन कर ही दूं.
वैसे 'आन्दोलन' मेरे लिए प्यारा शब्द रहा है. स्वतंत्रता-आन्दोलन की कहानियां पढता-सुनता रहता था. आन्दोलन से स्वाभाविक आकर्षण हो गया था. आन्दोलन धीरे-धीरे जीवन का मकसद भी बना.
नाटक भी वैसा ही देखता जिसमे क्रांति की बात थी. तिरंगा उठा लो, बगावत, गुलामी तोड़ दो- ये ही नाटक थे बचपन के. फिल्में भी उस दौर में इन्कलाब, जंजीर, अन्धाकानून थी. चारों ओर अराजकता के खिलाफ आक्रमण था, व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था. विद्रोही चेतना चेतना का अनुगूँज हर ओर सुनाई पड़ता.
कॉलेज में कदम रखा. कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी. आजादी के वक़्त हर नेता पढ़े लिखे थे. क्रांति के लिए केवल भावना ही नहीं विचार की भी जरूरत होती है. कौन सा मार्ग बेहतर है, के चयन में परेशानी थी. जो मिलता वही आकर्षक हो जाता.कैम्पस में कई बैनरों पर बहसें मौजूद थीं. नक्सलवादी आन्दोलन, ७४ का आन्दोलन, बोधगया का भूमि आन्दोलन, गंगा मुक्ति आन्दोलन, आजादी बचाओ आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन, स्त्री मुक्ति, बीज, पानी, जल, जंगल को बचाने के नाम पर आन्दोलन जैसे चिपको आन्दोलन......
गाँधी, आंबेडकर और जे.पी. के विचार वाले ज्यादा ही आन्दोलन करते थे.कैम्पस में राष्ट्र निर्माण के सिद्धांत बघारते थे. भावना के मूल में एक ही बात थी अपना देश समर्थ, सबल, स्वावलंबी और स्वाभमानी कैसे बने? देश को कमजोर करने वाली हर बात मेरे लिए बदसूरत थी. क्या करूँ? कहाँ से शुरू करूँ? समझ में नहीं आ रहा था. हर सप्ताह संगठन बनाता, लैटर हेड छपवाता, बयान देता. कितने ही संगठन के लैटर हेड थे मेरे पास. संगठन का नाम खोजने में डिक्शनरी का सहारा लेता. नाम खोज निकालता और उसमें आन्दोलन शब्द जोड़ देता. चार व्यक्ति भी बैठक में हों, पर हमारा संगठन विश्वस्तर से नीचे का नहीं होता था और मेरा राष्ट्रीय पद पर स्वाभाविक अधिकार हो जाता था.
बस, इसी खेल में डॉ. विवेकानंद से मुलाकात हुई. उन्होंने सुझाया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो लिया जाये. खोजते-खोजते संघ कार्यालय पहुँच गया. जन्माया बेटा और बना-बनाया कार्यकर्त्ता भाग्य से ही किसी को मिलता है. मेरी औकात जल्द ही बढ़ गयी. नगर से लेकर प्रान्त तक का मैं आदमी बन गया.
बयानबाजी खूब करता. अख़बार में खबरें भी दनादन छपतीं. सूची बनाना, संपर्क करना, एकत्रीकरण ये शब्द ही आन्दोलन का पर्याय बन गया. महत्वकांक्षी बड़ी थी. जिस संगठन में बुलाया जाता, वहां राष्ट्रीय दायित्व ही संभालने का जी करता. शुक्र है कि मैं कोई नया संघ बनाकर सरसंघचालक नहीं बना!!
क्या करने आया था, क्या करने लगा? पता ही नहीं चल पा रहा था- "आये थे हरी भजन को, ओटन लगे कपास...". प्रतिक्रांतिकारी होने का सारा नाटक शुरू कर दिया.
एक बार एक बड़े नेता को भागलपुर आना था. स्वागत के फूल खरीद लिए थे. यद्यपि उनका व्यक्तित्व कथित तौर पर राजनीतिक साधक के रूप में चर्चित था. स्टेशन पर आते ही फूल माला से लादकर उन्हें गदगद कर दिया। उन्होने अपने गले से माला उतारा और मेरे हाथ में सौप दिया और मुझे कान मे फुस्फुसाये कि उसी माला
को अगले चौक पर पहना दें।ताकि जगह-जगह उनके स्वागत की खबर बन सके। धुरफ़न्दी का हमारा नया पाठ पढ़ना शुरु हो गया। सवेरे-सवेरे खबर आयी। अखबार को देख-पढ़ मुझे सामाजिक जीवन के पाखण्ड का एह्सास तो हुआ, मगर वह धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा।
दुसरे दिन उस नेता का दूसरा एपिसोड शुरू हुआ. उन्होंने आन्दोलन चलाने की घोषणा की. मैं कभी भी शहर-बंद का कॉल नहीं दिया था. उनकी शह पर बाज़ार-बंद का कॉल दिया. नेता ने बंद के दौरान लाठीचार्ज की आशंका जताया. लाठीचार्ज होगा तो कार्यकर्ता घायल भी होंगे, तो क्यों न बंद के पहले ही घायल होने की फोटो खिंचवा लिया जाय. नेता जी के जात के एक फोटोग्राफर थे. रंग-पट्टी बांधकर मेरा भी फोटो खींच लिया फोटो तैयार होकर पटना चला गया. इधर मेरा भी बाज़ार, बंद हो गया. लाख तोड़फोड़ के बाद भी पुलिस ने लाठीचार्ज नहीं किया. मेरी चिंता बढ़ गई कि घायल होने की खबर पेपर में जा चुकी है, अगर घायल नहीं हुए तो क्या होगा? घायल होने के लिए बेचैन हो गए हम लोग. मरता क्या ना करता? आपस में ही एक दुसरे का शर्ट फाडा, और बाज़ार में बेतहाशा भागा ताकि लाठीचार्ज का वर्चुअल इफेक्ट बन सके.
सवेरे लाठीचार्ज की खबर फ्रंट पेज पर लगी. हम भले चंगे कार्यकर्ता को छिपा दिया गया ताकि असलियत की जानकारी समाज को न हो सके. कथित लाठीचार्ज के विरोध में दुसरे दिन भी बाज़ार बंद रहा. यह था पॉलिटिकल फोलोअप... पुलिस महकमा इस भूत्खेली पर आश्चर्य में तो था ही, मुझे भी अपने आंदोलनकारी होने पर कम आश्चर्य नहीं था!!इस पाखंड से धीरे-धीरे मैं आजिज आ चुका था.
शाखा, संपर्क, सूची बनाना सीख गया था. संघ ने बहुत कुछ सिखाया. लोकप्रियता आसमान
पर पहुँच गई.
महिला कार्यकर्त्ता का झुकाव मेरी ओर बढ़ गया. वैसे संघ की 'मातृशक्ति' शाखा से अलग रखी जाती थी. स्वयंसेवक के भटक जाने का भय था.
स्त्रियों का मातृशक्ति के रूप में बहुत आदर था. मैं भी स्त्रियों को खोज-खोजकर आदर देने लग गया. स्त्रियों को आदर देने का मेरा छिटपुट कार्यक्रम जारी रहा. आदर देने में हमसे भी बड़े-बड़े अधिकारी मौजूद थे वहां. संघ की अंकुरबाडी में मौजूद बड़े-बड़े महंत के सामने मुझ जैसे पिद्दी महंत का टिके रहने मुश्किल था. बस क्या था, संघ का मैं तन-खातैया घोषित हो गया.
बहुत अफ़सोस हुआ संघ से बाहर होने का. बड़ा सुख था वहां आन्दोलन करने में. सारी सुख-सुविधा मौजूद थी. किस्मत में कुत्ता पेशाब कर दिया कि मैं समाजवादियों के बीच आ गया. हलुआ मलाई के बाद सूखी रोटी खाना मुश्किल था. बदबूदार देह, बजबजाती जिंदगी और बोरा-चट्टी पर मीटिंग.
वर्षों वहां गुजरा. आन्दोलन खडा कर देने को मैं उतावला था. आत्म-मुग्धता असीम थी. राष्ट्रपति और भंगी की संतान को समाजवाद मुहैय्या कराने का ठेका मानो मुझपर ही था. एक से एक गीत गाता. नारा लगाता. संघ का 'बंधुवर' यहाँ 'साथी' में तब्दील हो गया.
यहाँ भी रोज बैठक. हर व्यक्ति के पास एक-एक आन्दोलन. कुछ समाजवादी नेता तो ऐसे थे कि एक के पास कई-कई आन्दोलन का जागीर मौजूद था. "तुम मेरी खुजली सहलाओ, मैं तुम्हारी... "न्योता पूरने वाले यहाँ असंख्य नेता थे. उनका जीवन मंच पर ही गुजरता. वे संगठन खडा करने का जोखिम भला क्यों लेते? बना-बनाया मंच भाषण पेलने के लिए मिल जाय तो अच्छा ही था. ना कभी ये एक साथ रहते न कभी अलग रहते. कोई झुकने को तैयार नहीं. 'अपनी डफली अपना राग'. 'संग' चलने के पहले ही जहाँ 'ठन' जाये, उस संगठन में भी वर्षों बिताया. क्रन्तिबाज और इश्कबाज साथ-साथ रह सकते थे. सह्जीवन का नया माहौल. स्त्री-मुक्ति का उछाल कायम था. यहाँ स्त्री हमेशा पुरुषों से मुक्त होती और अन्य से युक्त होती.
संघ में बौद्धिकबाज था. वहां टोका-टोकी कम था. वहां बुद्धि झाड़ने की सुविधा थी. यहाँ टोका-टाकी बहुत ज्यादा था. कोई भी किसी की धज्जियाँ उड़ा डालता. धज्जियाँ सिलने का वक़्त कहाँ था इन समाजवादियों के पास. सत्ता के संघर्ष में लगे समाजवादी सत्ता के विमर्श वाले समाजवादियों से कम ही खतरनाक थे.
हर घाट का पानी पीते-पीते अल्ट्रा-लेफ्ट के पास आ गया. हार्डकोर और मुलायम कोर यहाँ समझ में ही नहीं आया. विरोध के लिए विरोध था. यहाँ मेरा चरित्र अंतर्राष्ट्रीय हो गया. मेरा वैश्विक व्यक्तित्व आकर्षक था. विश्व स्तर के प्रश्न होते थे मेरे पास. इजराएल, अमेरिका, इराक और इरान, न्यूक्लिएर डील और पूँजी वाद पर बोलना तो शगल हो गया था. विखंडनवाद, इतिहास का अंत, सभ्यता का संघर्ष, उत्तर आधुनिकता, ९/११ के बाद, ऐसे प्यारे-प्यारे शब्द थे मेरे पास. ये सारी बातें सुनने के लिए बेवकूफ भी कम नहीं थे.
गाँधीवादी शाकाहारी संगठन और आन्दोलन चलाने में विश्वास करते थे. राज्यपोषित गांधीवाद भी नहीं भाया. गाँधीवादी को फंड, फाइल में ही उलझते देखा. हो सकता है कि मेरी छोटी आँखों में गांधीवादियों का बड़ा फोटो अटका ही नहीं हो!
दलित घाट पर भी गया. नव-ब्राह्मणवाद का पूरा नजारा. खूब मनुआद को कोसता. दलित, वंचित, शोषित, पीड़ित अकलियत और पसमांदा पर बोलता. देश का उत्थान मैं दलितों के उत्थान में देखता. श्रमण, 'बहुजन' और फिर 'सर्वजन' में उलझते-सुलझते, मैं यहाँ हूँ.
कोई कद आदमकद नहीं लगा. हर प्रक्रिया, निष्पत्तियां शून्य लगीं. फंडे और डंडे का रंग एक जैसा था. सिद्धांतों और दर्शनों का कोई भेद नहीं. "जो जाये लंका, वही हो जाये रावन." सत्ता सबों के लिए सुंदरी थी पर गणिका की तरह, वह एकांत में प्रिय थी और सार्वजनिक जगह पर गाली. जो सत्ता तक नहीं पहुँच पाए सत्ता उनके लिए गाली थी, मौकाविहीन ब्रह्मचारी की तरह.
चतुर्दिक खामोशी है. कांग्रेस का रामराज्य, राहुल-राज्य में बदल गया है. देश हँसता-मुस्कुराता नजर आ रहा है. जन्तर-मंतर खाली है, आन्दोलन बचाने का खेल जारी है.
जनता जान चुकी है सबकुछ. जन हस्तक्षेप की तैय्यारी है. संभालने दें अब आन्दोलन, जनता को. जिसकी लडाई, उसकी अगुआई ...
मंहगाई चरम पर है, खेत सूखे हैं, बेहाल किसान हैं, बेबस नौजवान हैं. बहुत दिनों तक यह नहीं चलेगा. यह विस्फोट के पूर्व का सन्नाटा है. जन्तर-मंतर खाली करें, जनता आ रही है. उन्हें ना आपका बैंनर चाहिए ना ही कथित तौर पर चमकता व्यक्तित्व.
मेरे जैसे कईयों ने आन्दोलन-आन्दोलन खेला. नयी पीढी को अब आन्दोलन ना सिखाएं. आन्दोलन का व्याकरण उसे स्वयं गढ़ने दें. मैं अपनी प्रतिक्रान्तिकारिता के लिए नयी पीढी से माफ़ी मांगता हूँ, अब मेरे अंदर उनसे ये कहने की हिम्मत नहीं है
'आओ आन्दोलन-आन्दोलन खेलें..'
-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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