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जिस राष्ट्र की आत्मा एक हो, उस राष्ट्र को गुलाम बनाना या बनाये रखना बड़ा मुश्किल होता है. ऊंच-नीच, धर्म-अधर्म तथा जाति, पंथ-उपपन्थों में बंटा भारत अंग्रेजों को पांव पसारने से नहीं रोक सका.
दुल, पहाडिया और संथाल विद्रोह ने अंग्रेजों को भयभीत किया. १७५७ के पलासी युद्ध और १८४९ के द्वितीय सिक्ख विद्रोह तक हम अंग्रेजों से लोहा लेते रहे. दलालों, गद्दारों, जमींदारों की मिलीभगत के बावजूद अंग्रेजों को भारत पर कब्जा करने में २५० वर्ष लग गए. तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद हमे गुलामी स्वीकार्य नहीं थी.
१८५७ के संघर्ष के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को विक्टोरिया ने अपने हाथों में ले लिया. अंग्रेजों की बंदूकें बेकार होती दिख रही थी. बन्दूक के बल पर भारत पर शासन करना मुश्किल था. इसीलिए उन्होनें भारतीय समाज की खाइयों को और गहरा करने का प्रयास शुरू किया. १९४७ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली द्वारा भारत को तीन महासंघों में बांटने की बात कोई नयी नहीं थी; यह तो जॉन ब्राईट १८७७ में ही प्रस्ताव दे चुके थे, जिसमें भारत को छः टुकडों में बांटने की बात थी. १८८३ में विल्फ्रेड सीवन स्लेंट ने भारत को दो भागो में उत्तर और दक्षिण में बाटने की बात की.
आजादी के आन्दोलन को कमजोर करने के लिए अंग्रजो ने एक से एक कदम उठाया. १८८५ में हयूम को भेजा गया. उन्होंने कांग्रेस पार्टी की स्थापना की. कांग्रेस की स्थापना के मूल में था, भारतीयों को भडास निकालने का स्पेस देना.
कांग्रेस एक 'सेफ्टी-वोल्व' की तरह ही था. अंग्रेजों को आवेदन देने वाले वाले नेता ही उस वक़्त कांग्रेस की अग्रिम पंक्ति में थे. ये आंदोलनकारी नहीं केवल आवेदन-कर्ता थे.
कांग्रेस की 'याचक-परंपरा' रास नहीं आई देश को...
फिर तिलक ने 'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' का नारा बुलंद किया. जिस उद्देश्य से कांग्रेस की स्थापना की गयी, अंग्रेज उस उद्देश्य में सफल नहीं हो पा रहे थे.
फिर शुरू हुआ हिन्दू और मुसलमानों के बीच फूट डालने का सिलसिला. बंगाल विभाजन की रूप-रेखा तैयार की और १९०५ में यह कर दिखाया. बंग-भंग में ही भारत के विभाजन का बीज बो दिया गया था.
१९१९ में सरकार के अधिनियम पारित होने के बाद भारत की पार्टियों के बीच सुगबुगाहट शुरू हो गयी कि सत्ता किसके हाथ में हो.
मुस्लिम नेता के अंहकार को अंग्रेजों ने सहलाया और कहा कि भारत की सत्ता हमने मुस्लिमों के हाथ से छिनी थी, अस्तु सत्ता उसी के हाथों में सौंपी जायेगी. "अँधा खोजे दोनों आँख......"मुस्लिम नेतृत्व की अपनी रणनीतियां बनने लगीं. इसी आलोक में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई. और १९२५ में संघ की स्थापना हुई, आन्दोलन धर्म में बँटने लगा. यद्यपि उस वक़्त कांग्रेस 'डोमेनियन स्टेट' की पक्षधर थी.
१९२९ के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज प्राप्ति की घोषणा की गयी. २६ जनवरी, १९३० पूर्ण स्वतंत्रता दिवस के रूप में चर्चित हुआ.
१९३७ के चुनाव में कई प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बनी. कांग्रेस को सत्ता का स्वाद उसी वक़्त लग गया था. उसी वक़्त से सत्ता प्राथमिक हो गयी थी और देश पीछे छूटता चला गया.
१५ अगस्त १९४५ को विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था. चर्चिल की कंजर्वेटिव पार्टी चुनाव हार गयी थी. क्लोमेन्ट एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी की सरकार बनी.१९४६ में मुंबई में नौसेना विद्रोह हुआ. लार्ड बावेल ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली को सुझाव दिया कि भारत पर शासन करने के लिए हजारों सिपाही चाहिए क्यूंकि भारतीय सैनिक भरोसेमंद नहीं हैं.
बावेल को हटाकर एटली ने माउन्टबेटन को भारत भेजा और १५ महीने का समय दिया. माउन्टबेटन ने वह काम पॉँच महीनों में ही कर दिखाया. भारत तीन टुकडों में बंट गया. साझा विरासत, साझा तैय्यारी के परिणाम दुर्भाग्य में बदल गए. "सर-जमीने-हिंद" खून से लाल हो गया. कितना रक्तपात हुआ!! चर्चा मर्मान्तक है.
अम्बेडकर आजादी के मायने समझ रहे थे कि यह आजादी मुट्ठी भर लोगों के लिए है. फर्क केवल गोरे और काले अंग्रेजों का था. नेहरु और जिन्ना ने अपने-अपने हिस्से का हिंदुस्तान बाँट लिया, और देश ठगा रह गया. दोनों देश के आम अवाम की स्थिति वही है जो आजादी के पहले थी. नकली नेताओं ने गाँधी को विभाजन का जिम्मेवार ठहराया और उनपे तुष्टिकरण का आरोप लगाया.
गाँधी ना कभी मस्जिद गए ना नमाज अदा किया, न ही किसी इफ्तार पार्टी में गए. उस से बड़ा खांटी हिन्दू कौन था? उसे राजा के रूप में राम चाहिए, प्रार्थना में राम और मरने के वक़्त राम ही महत्वपूर्ण थे. बावजूद, उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाया गया.
आजादी का जश्न लाल किला पर मनाया जा रहा था तो गाँधी कहाँ था? गाँधी तो इंसानियत की रक्षा के लिए, नोआरवली में पागलों की तरह दौड़ रहा था.
अंग्रेजों ने नकली नेतृत्व को ही तरजीह दी, जो शक्ल से ही केवल भारतीय थे, और मिजाज से अंग्रेज ही थे. विभाजन के वक़्त जिन्ना शेएर मार्केट में थे और नेहरु रासलीला में.
देश बंट चुका था.....................

-Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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