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मटुकनाथ को आप जानते होंगे? पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर!! ये गुरु जी ऐसे निकले कि अपनी चेली 'जूली' के प्रेम में जज्बाती होकर उस से ब्याह रचा लिया. ब्याह के बाद 'गुरु' जी लुव-गुरु' बन गए. नई पीढी में काफी लोकप्रिय भी हुए . सबों ने खूब मजा भी लिया. न्यूज़ चैनल के वो मानों सेलेब्रिटी बन गए.
नाम क्या हुआ कि उन्होंने अपनी पार्टी ही बना ली और पार्टी का नाम दिया- प्रेम पार्टी. इसी पार्टी के बैनर पर मटुकनाथ लोकसभा चुनाव में पटना से चुनाव भी लड़े. उनकी प्रेम पार्टी हार गयी.
हाल ही में दैनिक जागरण में छपी खबर से पता चला कि वे पार्टी के विस्तार के लिए गतिविधि तेज़ कर रहे हैं.

मटुकनाथ कहते हैं कि जब तक समाज प्रेममय नहीं होगा, तब तक समाज में हिंसा और अराजकता बनी रहेगी. प्रेम तमाम प्रश्नों का उत्तर है, ऐसा वे मानते हैं.
मटुकनाथ शायद हिंदी के प्रोफेसर हैं. अपने किए को सैद्धांतिक आधार प्रदान करने के लिए अपने तर्क तो तलाशते हैं और अपने पक्ष में तरासते भी हैं.
प्रेम के नाम पर जो कुछ वे कह रहे हैं या कर रहे हैं, वह समझ से परे है. मेरी समझ में प्रेम किसी व्यवस्था का नाम नहीं है. तरकीब से तंत्र का निर्माण हो सकता है, प्रेम का नहीं.
दांपत्य जीवन एक व्यवस्था है, समझौता है. दांपत्य जीवन एक तंत्र है, प्रेम का मन्त्र नहीं. मटुकनाथ का प्रेम उसी दिन मर गया जिस दिन उन्होंने शादी की. व्यवस्था प्रदान की. व्यवस्था गुलाम बनाती है, बांधती है,मुक्त नहीं करती. गुलामी चाहे सम्बन्ध की हो या स्वर्ग की, गुलामी तो गुलामी ही है.

जिस बिस्तर पर व्यवस्था या विचार पलता हो, वह बिस्तर,बिस्तर नहीं अर्थी बन जाता है. अर्थी श्मशान जाने के लिए होती है, घर में सजाने के लिये नहीं. अर्थी को जला डालना होता है और श्मशान की लपटें मशालें नहीं बना करतीं.
मटुकनाथ श्मशान की इसी लपट से समाज-परिवर्तन का मशाल बनाना चाहते हैं.
प्रेम सृष्टि का बीज-मन्त्र है. इतनी मोहक दुनिया की रचना तो इसी प्रेम के कारन हुई है. कोयल की कूक, झरनों का संगीत, हर्षित करती हरीतिमा, असंख्य जीवों की निर्मिति के मूल में प्रेम ही तो है.प्रेम बिना सब जग सूना. प्रेम की महिमा अनंत विस्तार लिए हुए है. प्रेम तमाम प्रश्नों का उत्तर है. विचार प्रक्रिया की निष्पत्तियां हमारे सामने हैं. हर वाद बेकार साबित हुआ है. दुनिया न तो अब समाजवाद से बचेगी , ना ही पूंजीवाद से. दुनिया बचेगी तो सिर्फ सम्बन्धवाद से. मेरा सम्बन्धवाद मनुष्य केन्द्रित नहीं है. यह जीव, जगत और जगदीश के अंतर्संबंधों की बात कर रहा है. प्रेम के बिना दुनिया बाज़ार बन जायेगी, परिवार नहीं. प्रेम ख़त्म हो गया तो दुनिया या तो किचेन बन जायेगी या फिर कमोडिटी.
बुद्धि या विचार से दुनिया में व्यवस्था बन सकती है, पर विश्वास नहीं. विश्वास का माहौल तो भावना से ही तैयार होगा. समाज खड़ा होगा भाव और विश्वास के बल पर, बुद्धि के बल पर नहीं.
मटुकनाथ को प्रेम से कोई लेना-देना नहीं, ना ही इसकी गरिमा को वे समझ पा रहे हैं. वे तो भोगवाद को ही सम्बन्धवाद की संज्ञा दे रहे हैं.
सम्बन्धवाद हीनता और दुर्बलता की अभिव्यक्ति नहीं है. सम्बन्धवाद शक्ति की तलाश करता है. इसके निर्वहन के लिए व्यापक ऊर्जा की जरुरत होती है. त्याग, तर्पण और बलिदान की बुनियाद पर ही सम्बन्धवाद की ईमारत बुलंद हो सकती है. मटुकनाथ किस बुनियाद पर प्रेम की ईमारत खडी करना चाहते हैं, समझ से परे है.
मटुकनाथ ने प्रेम के नाम पर प्रेम-पार्टी बना ली है. चर्चित ही होना था तो पार्टी का नाम
गे-पार्टी हो सकता था. अखिल भारतीय होमोसेक्सुअल पार्टी भी नाम हो सकता था. बने बनाये कार्यकर्ताओं का समूह भी मिल जाता. जंतर-मंतर पर भीड़ का जुगाड़ यूँ ही हो जाता. तालियाँ भी खूब मिलतीं.
पर मटुकनाथ जी ऐसी तालियाँ लेकर समाज का क्या भला करेंगे? महाभारत की ब्रिह्न्न्ल्ला की ताली से पूरा हस्तिनापुर हिल जाता था. इन तालियों से तो ब्लाक का चपरासी भी नहीं हिलेगा.
आप सेक्सी, आपकी पार्टी सेक्सी, आपका झंडा सेक्सी, आपका फंडा सेक्सी, नारा सेक्सी, सब कुछ सेक्सी-सेक्सी हैं. लेकिन मटुकनाथ जी आप भूल रहे हैं की जूली की जिगर की आग से इश्क की बीड़ीयां तो जल सकती हैं, पर इस दौर-ए-सियासत का अँधेरा नहीं मिट सकता.
मैं मटुक नाथ जी का मजाक नहीं उड़ना चाहता. लोग मुझपर दुत्कारेंगे कि मैं ऐसे प्रेम पुजारी को क्यों लताड़ रहा हूँ? मगर मटुकनाथ जी "प्रेम न बारी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय" ये पंक्ति आपने भी पढाई होगी जुली समेत कई शिष्यों को, फिर राजनीति की मण्डी में प्रेम को क्यों बेचना चाहते हैं?
वैसे सब को ये अधिकार है कि वे पार्टी बनाये, पी. एम. बने, पर प्रेम को क्यों दल के दलदल में घसीट रहे है?
यौवन के उतार में घटित प्रेम, आपकी दमित वासना नहीं तो और क्या है? साथ-साथ रहने से पैदा हुई भावना को प्रेम कहना ठीक नहीं. मटुकनाथ की वासना समाज की प्रार्थना कैसे बनेगी?किसी बड़े कारन के लिए ये विरह या बनवास झेलते तो शायद उनकी विरह की अग्नि में तपी-गली वासना समाज के लिए प्रार्थना बन जाती!
काश! इनकी प्रेम-पार्टी के झंडे पर त्याग और बलिदान का निशान होता, तो शायद इसकी कामना समाज का कायांतरण कर पाती.
-- Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

0 Response to "जूली की जिगर की आग से इश्क की बीड़ीयां तो जल सकती हैं, पर इस दौर-ए-सियासत का अँधेरा नहीं मिट सकता...."


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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