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बाज़ार मन के भीतर है......

Posted by VIJAYENDRA On 7/21/2009 06:34:00 pm


आदमी जन्मना शुद्र होता है. सभी के आने का मार्ग तो एक ही है...
प्रश्न यह है कि हम कर्मना क्या बन रहे हैं?
कृष्ण का जन्म किसी देवकी से नहीं हो सकता, न ही राम का जन्म किसी कौशल्या के गर्भ से होता है.
"यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे"
हर पिंड का अपने हिस्से का ब्रह्माण्ड होता है. यह पंक्ति सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सद्धान्तिक और व्यवहारिक सभी रूपों से सत्य है.
हर व्यक्ति के अंदर एक कृष्ण है, एक राम है, एक चोर नेता भी है और एक भरा पूरा बाज़ार भी...
बाहर की हर अभिव्यक्ति हमारे भीतर ही मौजूद है.

बाहर कोई बाज़ार नहीं है, बाहर कोई भ्रम नहीं है, बाहर कोई कृष्ण नहीं है, बाहर कोई राम नहीं है. यह सब कुछ सबके अंदर ही है. अगर आप कृष्ण बनना चाहते हैं तो फिर आपको भी पूतना, कंश और तक्षक से लड़ना होगा. यदि कृष्ण बनना है तो फिर महाभारत का साक्षी भी बनना पड़ेगा.
बाज़ार को मारना है, तो अपने भीतर के बाज़ार को ख़त्म करना होगा. जब तक हम अपने भीतर के बाज़ार से नहीं लड़ सकते, बाहर के इस छलिया बाज़ार से लड़ने की कल्पना भी निरर्थक है.
परदे पर यदि हमें मल्लिका उत्तेजित कर रही है तो इसका सच यही है कि वह कहीं गहरे में हमारे मन के अंदर बसी हुई है. बाहर कोई मल्लिका नहीं है उस परदे पर, वहां तो सिर्फ रौशनी का खेल है.
यही खेल बाज़ार का भी है. हमारे भीतर एक भरा पूरा बाज़ार बसा हुआ है, किसी के अंदर गाँव के मेले जितना बड़ा बाज़ार है तो किसी के अंदर फाइव स्टार मॉल जैसा बाज़ार. मगर है सब कुछ सबके भीतर ही.
ये सबसे बड़ा झूठ है कि नेता बेईमान हैं. उनसे लाख गुना ज्यादा बेईमान तो हम हैं. याद कीजिये कि क्लास का मोनिटर बनने के लिए हम कितनी राजनीति किया करते थे. दो रूपये के लिए हम सब्जी वाले से कितना उलझ जाते हैं आज कल. या जब हम किसी नौकरी के लिए इंटरव्यू में जाते हैं तो हमें वहां आये हुए बाकी लोगों को देखकर कितनी जलन होती है? या कि अगर हमें नौकरी मिल रही हो तो हम क्या कुछ नहीं कर देते उसके लिए?ना जाने कितनी भावनाओं, कितने विश्वासों का खून कर देते हैं हम लोग छोटी-छोटी बातों पर.
नेता तो लाखों-करोणों लोगों का मसीहा बनता है, अगर उसने इसके लिए पांच दस लोंगो को मार दिया तो क्या गलत किया? बल्कि मैं तो कहता हूँ हमारे अपराध को देखते हुए तो उसके सौ खून भी माफ़ हैं!
नेता कोई और नहीं है हमारे ही भीतर का बड़ा सच है वो.
जब तक हमारे भीतर का चोर नेता नहीं मर जाता हमें करोणों लोगों के उस नायक को गाली देने का कोई अधिकार नहीं है.
जब तक हमारे भीतर का साम्राज्यवाद नहीं मरता, तब तक अमेरिका के साम्राज्यवाद के विरुद्ध बोलना बेकार है.
जब तक हमारे भीतर जाति जिन्दा है, राष्ट्रभक्ति की बात संभव ही नहीं है.
तमाम बाहर की बुराइयों से जंग लड़ने से बेहतर है कि हम अपने भीतर की गन्दगी को साफ़ कर लें.
लोकतंत्र मात्र चुनावी अभिव्यक्ति ही नहीं है, यह जीवन-मूल्य भी है. हमें अपने अंदर के लोकतंत्र को जिन्दा रखना होगा, बाहर का लोकतंत्र खुद ही जी उठेगा.

-Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.

1 Response to "बाज़ार मन के भीतर है......"

  1. Tullujee Said,

    Malik photo kab dijiyega

     


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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