यह भी कुछ हद तक सुखद है, परन्तु यदि सदन में बनने वाली सरकार की बात हो तो स्थिति और भी शोचनीय हो जाती है. ५४३ सीटों की लोकसभा में २७२ सीटों अर्थात २७२ विजयी उम्मीदवारों द्वारा समर्थित दल की सरकार बनती है, अर्थात यदि सरकार को औसत रूप में मिले कुल मतों को देखा जाए तो यह स्वतः सिद्ध है कि कुल वयस्क मतों का लगभग मात्र ९.५% मतों द्वारा समर्थित दल की सरकार बनती है और हम आश्चर्यजनक रूप से उस सरकार को बहुमत की सरकार कहते हैं.
परन्तु फिर भी कहा जाता रहा है कि समस्या कोई भी हो उसका समाधान हो सकता है. आज संविधान की शल्यक्रिया करके उसे फिर से एक जीवित लोकतंत्र को पैदा कर सकने और उसे पाल सकने लायक बनाना होगा.आखिर क्यों संविधान में संशोधन करके राजनीतिक क्षेत्रों में द्विदलीय प्रणाली को लागू नहीं किया जा सकता? दलों और संगठनों का निर्माण तो हो मगर उनकी भूमिका स्वस्थ दबाव समूहों की तरह हो, वर्तमान की भांति लोकतंत्र की लाश को नोचने वाले कौओं की तरह नहीं!
इस स्थिति में भी हल है, जनता को खुद आगे बढ़कर इन कौओं के बीच से कोयलों को छाँट कर आगे लाना होगा, जिनकी सहायता से नए जीवित लोकतंत्र का जन्म हो सके. लोकतंत्र निर्माण के इस यज्ञ में हम सब को अपने हिस्से कि समिधा डालनी होगी. इसका सबसे अच्छा विकल्प है अपने मत का प्रयोग.
हमें सोचना होगा कि 'मत' सिर्फ दान करने के लिए नहीं होता, इस से देश का, लोकतंत्र का भविष्य जुड़ा हुआ है. हमें अपने मत का उचित और अनिवार्य प्रयोग करना होगा, जिस से कि हम आने वाली पीढी को एक स्वस्थ और जीवित लोकतंत्र दे सकें.
लोकतंत्र की बड़ी ही सुंदर व्याख्या की जाती है कि यह 'जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन की अवधारणा है.'
अब जरा इस सुखद भ्रम से बाहर निकलते हुए इन आंकडों पर एक दृष्टि डालते हैं- चुनाव में पड़ने वाला कुल औसत मत ५५%, एक सीट पर औसतन २५ प्रत्याशी से अधिक उम्मीदवार, विजयी होने वाले उम्मीदवार को मिलने वाला औसत मत कुल डाले गए मतों का औसतन ३५%.
इस प्रकार देखा जाये तो विजयी उम्मीदवार को कुल वैध मतों का लगभग १९% मत प्राप्त होता है. अतः कुल वयस्क जनता के लगभग १९% मतों से समर्थित उम्मीदवार विजयी होता है और पूरे पांच वर्षों तक शासन करता है.
कितनी बड़ी विडम्बना है हमारे लोकतंत्र की; कि जहाँ किसी विद्यालय में छात्र को उत्तीर्ण होने के लिए न्यूनतम ३५% अंकों कि अनिवार्यता है, वहीँ १९% मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवर सर्वोच्च स्थान पर होता है. कभी-कभार तो यह प्रतिशत इस से भी कम हो जाता है.
क्या वास्तव में मात्र ९.५% मतों के आधार पर बनी हुई सरकार को 'जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन' कहा जा सकता है? और यदि कहा जाता है तो यह घोर पाखंड ही है.
क्या इस स्थिति को देखकर भी कहा जा सकता है कि लोकतंत्र जीवित है? सत्य तो यह है कि यहाँ तो संविधान के गर्भ में ही लोकतंत्र की भ्रूण-हत्या कर दी गयी थी!
विश्व के वृहदतम संविधान में देश के प्रमुखतम पद पर आसीन होने की इच्छा रखने वाले उम्मीदवार के लिए निर्धारित की गयी पात्रता, आश्चर्यजनक रूप से किसी छोटी से छोटी संस्था के चुनकर आनेवाले संचालक से भी कम है. क्या यह गर्भ में पल रहे शिशु की गर्भनाल काट देने जैसा नहीं है? और इस स्थिति में एक स्वस्थ शिशु के जन्म की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है?
परन्तु बात यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती है कि यह लोकतंत्र तो गर्भ में ही मार दिया गया था, आदि-आदि. बल्कि तब से लेकर आज तक हर सरकार इस मरे हुए लोकतंत्र को उसी तरह गले से लगाये हुए है जैसे बंदरिया अपने मृत शिशु को अपने तन से चिपकाये हुए उसके जीवित हो उठने की उम्मीद पाले रहती है. और इस कारन से उस मृत शिशु का शरीर गल कर बदबूदार हो जाता है.
नेता और सर्वोच्च पद पर आसीन होने की इच्छा रखने वाले उम्मीदवारों के लिए एक उचित अर्हता का निर्धारण भी तो संविधान संशोधन द्वारा किया जा सकता है, और यह भी लोकतंत्र के नए शिशु के लिए अच्छा आहार होगा.परन्तु यहाँ समस्या यह भी है कि इस व्यवस्था का निर्माण भी दुर्भाग्य से उन्हीं कौओं के हाथ में है, जिन्हें लोकतंत्र कि इस लाश को नोचनें में ही मजा आता है.
-- Amit Tiwari 'Sangharsh', Swaraj T.V.
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