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'अलोक तोमर' का आलेख 'माओवादी मिथक को तोड़ने का अवसर' पढ़ा(rashtriya sahara,15-july). तोमर को लगातार पढता रहा हूँ. इस आलेख में माओवाद के प्रति उनका घिसा-पिटा गुस्सा ही सामने आया है
लोकतान्त्रिक मूल्य, अहिंसा, संसदीय जनतंत्र का महत्त्व तो है ही. अवधारणा के स्तर पर इसका आकर्षण बरक़रार है, पर व्यवहारके स्तर पर इसका चेहरा बहुत ही घिनौना है.
कुछ तो मजबूरियां रही होंगी...... आखिर खून खराबा का जिम्मेदार जमात कौन है? आजादी के बाद से हजारों सांसदों को हमने चुनकर भेजा, क्या उखाड़ लिया उन्होंने? आज़ादी के मायने क्यों नहीं समझ पाये आम लोग?गाँव तक विकास की रौशनी क्यों नहीं पहुँच पाई अभी तक? झोपडियां क्यों उजडती रही हैं? क्यों मुट्ठीभर लोग ही आबाद होते रहे हैं? विकास के बनते टापू से क्यों खदेडे गए हैं लोग...........?

"जब तक भूखा नंगा इन्सान रहेगा...धरती पर तूफान रहेगा...."

क्यों बेच दी गई नदियाँ? क्यों उजाडे गए इनके जंगल? क्यों नहीं मिल पाता निर्धनों को न्याय? दिन-रात मेहनत करने वालों की ज़िन्दगी क्यों खाक है? क्यों श्रमहीन और कर्महीन रातों-रात करोड़पति बन जा रहे हैं?

तोमर जी! दुनिया तीन भ्रमो पर टिकी है- () पूँजी का भ्रम, () लोकतंत्र का भ्रम, () विकास का भ्रम

देशी-विदेशी पूँजी की भरमार लगी है, पर कहाँ? गाँव की गलियों में, खेत-खलिहानों में या दलाल मार्केट में?

जब तक धरती पर बेवकूफ जिन्दा रहेगा, बुद्धिमान भूखा नही रहेगा. ऐसे ही सिद्धांत पर हमारे नेता चल रहे हैं, जनता को बेवकूफ बनाकर. जब चुनाव आता है, जनता मालिक हो जाती है. चुनाव के बाद यही मालिक नेताओं और बाबुओं के आगे दुम हिलाते हम रोज़ देखते हैं. इस तंत्र का लोक पर विश्वाश ही नहीं है। जन्म और मृत्यु के प्रमाण पत्र इनसे ही प्रमाणित होते हैं. तंत्र के लिए जनता अविश्वसनीय है. राज्य के पास जमा असलहा दूसरे देश के लिए नहीं, बल्कि इसी देश के भूखे नंगे आवाम के लिए है. ताकि 'तंत्र' का डर बना रहे 'लोक' में.

विकास की कसौटियां, चिन्तन और चुनौतियाँ, इन सब बहस का क्या हुआ? देश की तासीर के आधार पर क्यों नहीं विकास का मॉडल खड़ा किया गया आजतक? कुटीर उद्योग, हस्त्शिल्ल्प, खेती -किसानी से क्यों विमुख हो गए लोग? क्यों ६० लाख किसानों ने आत्महत्या की? तंत्र की बात करने वाले अलोक जी कुछ ऐसा कर रहे हैं;

"बड़ी अजीब है यह दुनिया जहाँ भूख से भी लड़खाडाओ तो कहते हैं की पीकर आया है. "

ये भूखे नंगे तालिबानी नहीं हैं तोमर जी! तंत्र अगर बेईमान रहा तो विद्रोह को कैसे रोक पाएंगे? आप बताएं तो, क्या गरीबों का आर्तनाद बंदूकों की आवाज से शांत हो जाएगा?
सलवा-जुडूम राज्यपोषित कार्यक्रम है. आन्दोलन को कमजोर करने के लिए राज्य समानांतर में नकली नेता और नकली आन्दोलन खड़ा करता रहा है. महेंद्र करमा की जीत को तमाम बुनियादी सवालों का समाधान मान लेना भारी भूल होगी।
माओवाद का आग्रही चेहरा अनुचित है. आखिर उनके पास भी देश को देने के लिए क्या मॉडल है? क्या उनका वैकल्पिक अर्थशास्त्र है? आखिर हिंसा के बाद क्या देना चाहते हैं देश को? अगर माओवाद के हिंसा का लक्ष्य चीन, रूस, नेपाल है, तो दुर्भाग्य है. फिर तो अलोक तोमर जो रास्ता दिखा रहे हैं, वही बेहतर है. कोठा पर ही जाना है तो फिर बेहतर पर जाया जाये. गंदे कोठे पर जाकर संक्रमित क्यों हुआ जाये?
तोमर जी को स्वात घाटी का जिक्र करने से पहले सत्ता के सनातन चरित्र पर भी प्रकाश डालना चाहिए. अन्यथा आपका लिखना भी राज्यपोषित पत्रकारिता का सलवा जुडूम ही होगा. आज आप नक्सली का सफाया करने के लिए बेचैन हैं, देश की गरीबी दूर करने की बेचैनी क्यों नहीं है? भूख बेबसी के खिलाफ आपकी जंग क्यों नहीं है? क्यों नहीं आपकी ताकत इस जंग में लगती तोमर जी?
"जुल्मों-सितम की आग लगी है यहाँ वहां, पानी से नहीं आग से इसको बुझाइए."

-- Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

1 Response to "जुल्मों-सितम की आग लगी है यहाँ वहां, पानी से नहीं आग से इसको बुझाइए."

  1. Anonymous Said,

    i like ur article alot its really showing the true picture of the country our politician.


    i appreciate ur write up

     


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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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