बाज़ार सुन्दर होता है। दूध सी धुली चांदनी बाज़ार को आकर्षक बनाती है। बाज़ार की सुन्दर सजावट का सम्मान मैं भी करता हूँ, निश्चय ही आप भी करते होंगे। बदसूरत होकर बाज़ार कोई नहीं जाना चाहता। बाज़ार के सौंदर्य का सम्मान हो, इसके लिए आधुनिक और अत्याधुनिक परिधानों में सजकर जाते हैं लोग वहां। होंठों पर कैसी- कैसी मुस्कुराहटें और उनके कैसे-कैसे रंग......!!
हाँ, तो मैं कबीर की चर्चा कर रहा था। कबीर क्यों बाज़ार गए हैं? क्या खरीदने गए हैं? उन्हें जो चाहिए वो हाट में उपलब्ध नहीं है; "प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय....." कबीर बाज़ार गए हैं मशाल लेकर... वे कह रहे हैं -"कबीरा खडा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ, जो घर जारो आपनों चलो हमारे साथ..."
कबीर की विचित्रता भी बड़ी विचित्र है। क्रांति करने के लिए कुरुक्षेत्र जाते, कनाट प्लेस क्यों आ गये? मशाल तो वे कहीं भी जला सकते थे!! और कोई जगह नहीं मिली उन्हें?!! 'ठगनी तू क्या नैन चमकावे..... ।' ठग , ठठेरा और उसका मुनाफा.... भ्रम ही भ्रम...!कबीर को भरमाने वाली हर चीज बेकार साबित हुई। कबीर के सामने जाकर वे चीजें स्वयं में बिखरती चली गयीं।
याद, बचपन में अगर कोई किसी को बाजारू कह दे, तो वह व्यक्ति अपमानित महसूस करता था। बाज़ार स्वयं में एक गाली थी। बाज़ार प्रीति, मैत्रीभाव और संवेदना बटोरने और बिखेरने के लिए नहीं खडा होता। भगवान का महत्त्व इतना भर रहा बाज़ार में, कि -'साल भर तौल कम, सावन में बोल बम।' अध्यात्म और बाज़ार का सम्बन्ध ३६ का रहा; भले ही धर्म आज अपने आप में उद्योग बन गया हो और बाबा कारपोरेट बन गए हों।
भारत बाज़ार प्रधान देश नहीं, धर्म प्रधान देश था। बाज़ार था, पर धर्म से नियंत्रित। "साईं इतना दीजिये....." का सयाना आज जैसा तो कम से कम नहीं ही था। आज सयाना वही जो दोनों हाथों से लूट रहा हो।
शुभ-लाभ.... । हमें लाभ चाहिए था, पर शुभ पहले था। 'शुभ' लाभ के केंद्र में था। 'शुभ' और 'श्रम' का सम्मान तो कबीर भी करते थे। आज के पेटलद्धे साधू की तरह स्वादू नहीं थे वे। 'त्येन त्यक्तेन भुंजीथा' की बात तो करते हैं, पर वे अभिव्यक्ति से बहार नहीं निकल पाते। आज बाज़ार केवल आर्थिक अभिव्यक्ति ही नहीं रहा, अपितु जीवन के समग्र क्षेत्र को यह प्रभावित कर रहा है। साहित्य, सम्बन्ध और संवेदना सब बाज़ार नियंत्रित हो गए हैं। इस उफनते बाजारवाद पर लगाम लगाना आसान नहीं है। हर मनुष्य के भीतर में एक बाज़ार स्थापित है, फिर बाहर के बाज़ार को कैसे हराना संभव होगा? बाहर की चमकती दुनिया मनुष्य के भीतर की ही अभिव्यक्ति है।
भागवत अंतःकरण की आवश्यकता पर कबीर जोर देते हैं। तमाम दुखों के मूल में मनुष्य की अपनी ही चेतना और चिन्तन हैं। सदियों पहले कबीर बाज़ार जाते हैं। संसार की नश्वरता पर बात करते हैं। 'रहना नहीं देश वीराना है, यह जीवन कागद की पुड़िया, बूँद पड़े गल जाना है...' ईश्वर की इस बेहतरीन दुनिया को कबीर बनाये रखना चाहते हैं। अपनी चुनर में दाग वह नहीं लगने देना चाहते हैं। 'जस की तस धर दीन्हीं चदरिया....' की बात दुहराते हैं। कबीर बाज़ार में भागवत कर रहे हैं, मगर भागवत का बाज़ार नहीं चला रहे। कबीर बाज़ार जाकर क्रांति की परिभाषा गढ़ आये। '....जो घर जारो आपनो, चलो हमारे साथ...' परिवर्तन की शुरुआत प्रथम पुरुष एकवचन से ही होती है। बाजारवाद के हाथों नीलाम जगत शायद जाग्रत हो जाये!!
आइये खोजें, 'कबीर बाज़ार में कहाँ खडा है'??!!
-- Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.
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