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दिल्ली दुनिया से अलग नहीं है, खासकर अमेरिका से तो बिलकुल नहीं। अमेरिका में गे, लेस्बियन, बाई- सेक्सुअल और ट्रांस-जेंडर से जुड़े लोगों ने अपनी आवाज़ बुलंद की है कि उनकी समलैंगिकता को कानूनी आधिकार मिले। समलैंगिक शादी को सामाजिक स्वीकृति मिले।
१९६९ से यह आवाज़ सुनाई पड़ने लग गई थी। आज यह कानून सीनेट से पास होने की स्थिति में भी है। अमेरिका का लोबीईंग और दबाव समूह इस दिशा में सक्रिय है।
कल यानी २८ जून २००९ को दिल्ली में गे-मानसून ने दस्तक दी। टोलस्टोय मार्ग से जंतर-मंतर तक मार्च निकला। नारा था: होमो-हेट्रो भाई-भाई, दुनिया के लेस्बियन एक हों।
खूंटे से खुली गाय की तरह स्त्री-पुरुष वर्जना विरोधी नारे लगा रहे थे। खबरिया चैनलों और अख़बार के लिए इससे बड़ी खबर क्या हो सकती है? कई प्रकार की उत्सुकता लिए मैं टी.वी. से चिपका। गर्मी से तर-ब-तर होने के बावजूद भी मैंने अखबार का पन्ना निचोड़ डाला।
सभी धर्मों के धर्माचार्य इसके विरोध में एकजुट हो गए हैं। पंडित और मुल्ला के स्वर एक हो गए। बहुत मुश्किल से ये लोग एक सुर में बोलते हैं। इन समलैंगिकों व लेस्बिअनों ने धर्माचार्यों के बीच एकता स्थापित करा दी।
समलैंगिकों की जय हो!!।
पहले स्त्रियाँ प्रताडित थीं, मर्दों के प्रति गुस्सा था। इस कारण मर्दों से मुक्ति के लिए दो स्त्रियाँ ही आपस में रहने लगीं। शायद पति-पत्नी की तरह।यानी पतिवाद जिन्दा रहा। इधर पत्नी से आजिज पतियों ने भी समलैंगिक संबंधों को बढ़ावा दिया। एक समलैंगिक संस्कृति का विकास शनैः शनैः पटल पर आने लगा। नव-उदारवाद ने अगर सबसे ज्यादा गति दी तो वह है स्त्री मुक्ति, सहजीवन, सरोगेट मदर, किराये की बीवी, बहन-बेटियों से यौनिक सम्बन्ध। गे, लेस्बियन, बाई-सेक्सुअल ट्रांस जेंडर, वाइफ स्वेपिंग आदि-आदि शब्द भी इसी नव-उदारवाद का प्रति- उत्पाद हैं।
बेड और ब्रेड, इन्हीं दो पावों पर खड़े बाज़ार का लक्ष्य है कि दुनिया को किचेन और कमोडिटीज में परिवर्तित कर दिया जाये। भोग-भाग का योग है, भोग सको तो भोगो। भोग के खिलाफ में कोई प्रवचन सुनने को तैयार नहीं ।
आज का विमर्श है, ''समलैंगिक संस्कृति बनाम सनातन संस्कृति''। सनातन संस्कृति की चासनी में वर्जनाओं की कोई घुट्टी नयी पीढी को नहीं पिलाई जा सकती है। संस्कृति के नाम पर दमन, यह भला कब तक चलता। वक़्त रहते सनातनी खुद को संभाल नहीं पाए। हम जंजीर दिखाते रहे कि हमारे पूर्वजों के पास हाथी था। परिवर्तन आहिस्ते-आहिस्ते बेडरूम तक पहुँच गया। कुंठा की बाढ़ ने सनातनी बांध को तोड़ दिया। कुंठा का बहाव अराजक हो गया। मर्दवाद की फसलों को बहा ले जा रहा है, इस टूटे बांध का पानी।
वक़्त के साथ न बदलने की मूढ़ता लील गयी है मूल्यों की बातों को। स्वर्गीय माइकल जब भारत आये थे, तो संस्कृतिप्रेमियों ने इससे संस्कृति पर हमला बताया। भारत की संस्कृति माइकल के आने से ख़त्म होने लगी। भला राम, कृष्ण, कपिल, कणाद, बुद्ध,महावीर की बनायीं संस्कृति को माइकल ने हिला दिया। राम!!!.राम!!! मेरी दृष्टि में माइकल इन धुरंधरों से ज्यादा बलशाली साबित हुए। अगर दो कौड़ी का नचनिया सनातन संस्कृति को नचाने लग जाये तो निश्चित ही वह नाच प्यारा होगा।
दुर्बलों की कोई संस्कृति नहीं होती। वह शक्तिशालियों की संस्कृति का केवल अनुसरण भर करते हैं। भारत की संस्कृति का भी दुनिया में डंका बजा करता था जब भारत के पास आर्थिक संप्रभुता थी।
मामला गे या लेस्बियन से डरने का नहीं है। कोई भी संस्कृति पराभूत होती है अपने आन्तरिक कारणों से। संस्कृति के भीतर का अन्तर्विरोध ही किसी संस्कृति को निर्बल बनाता है। भारतीय संस्कृति का खिड़की-दरवाजा खोलना होगा। ताज़ा हवा को आने देना होगा। संस्कृति और परम्परा के नाम पर दमन होगा, तो गे सोसाइटी का जन्म तो अवश्यम्भावी हो जायेगा।
--Vijayendra, Group Editor, Swaraj T.V.

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पाश ने कहा है कि -'इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी होगी, सपनों का मर जाना। यह पीढ़ी सपने देखना छोड़ रही है। एक याचक की छवि बनती दिखती है। स्‍वमेव-मृगेन्‍द्रता का भाव खत्‍म हो चुका है।'
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